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बंगाल में राजनीतिक हिंसा नहीं, हिंसा की राजनीति हो रही है

चुनावों के बाद से पश्चिम बंगाल में रोज हिंसा का मंजर

रवि प्रकाश
नजरिया
Published:
चुनावों के बाद से पश्चिम बंगाल में रोज हिंसा का मंजर
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चुनावों के बाद से पश्चिम बंगाल में रोज हिंसा का मंजर
(फाइल फोटोः PTI)

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बंगाल में जारी ताजा हिंसा भारत की सियासी पहेली बन गई है. इसके पात्रों की संख्या प्याज के छिलके की तरह बढ़ती जा रही है. ताजा हिंसा में कितने लोगों की मौत हुई, इसको लेकर परस्पर विरोधी दावे हैं. ये दावे संवैधानिक प्रमुखों द्वारा किए जा रहे हैं. लिहाजा, किसी पत्रकार के लिए यह लिख पाना काफी कठिन है कि चुनाव पूर्व या चुनाव बाद की हिंसा में पश्चिम बंगाल में कुल कितने लोगों ने अपनी जानें गंवाईं.

हमारी मुश्किल यह है कि हम किसकी बात का भरोसा करें. सत्ता के शीर्ष पर बैठीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का, जिन्होंने इस हिंसा में दस लोगों के मारे जाने की बात कही. या फिर, बंगाल में संविधान के कस्टोडियन राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी का, जिन्होंने केंद्र को भेजी अपनी रिपोर्ट में कुल बारह लोगों के मारे जाने (बकौल, ममता बनर्जी) की बात लिखी है.

ये दोनों लोग संवैधानिक प्रमुख हैं. ऐसे में इनकी रिपोर्ट का ठोस आधार होगा, ऐसा माना जाना चाहिए. संसदीय प्रणाली की यही पंरपरा भी है और संवैधानिक बाध्यताएं भी. ऐसे में यह सवाल उठता है कि दो संवैधानिक प्रमुखों की रिपोर्ट में संख्या का अंतर कैसे हो गया, जबकि दोनों के फीडबैक के आधिकारिक सोर्स एक ही होंगे.

इस कहानी में एक और पात्र भारतीय जनता पार्टी है, जिसने चुनावी हिंसा में अपने 54 कार्यकर्ताओं के मारे जाने और उनके परिजनों को प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में बुलाने का दावा किया था.

अब केंद्र में बीजेपी की सरकार है और इसके अध्यक्ष अमित शाह देश के गृहमंत्री बन चुके हैं. बीजेपी के इस दावे के उलट तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मंगलवार को कोलकाता में कहा कि राजनीतिक हिंसा में मारे गए दस लोगों में से आठ उनकी पार्टी के कार्यकर्ता हैं और दो बीजेपी के. इसके अलावा किसी और के मारे जाने की आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है. इससे पहले एक रैली के दौरान उन्होंने कहा था- जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा.

मतलब साफ है कि बंगाल में हो रही हिंसा राजनीतिक हो न हो, यहां हिंसा पर राजनीति खूब हो रही है. बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस दोनों के पास इसके नफा-नुकसान के अपने-अपने आकलन हैं.

बंगाल में बीजेपी का काला दिवस

बंगाल में जारी ताजा हिंसा के बीच बीजेपी ने बुधवार को पूरे राज्य में काला दिवस मनाया. इस दौरान बशीरहाट में बारह घंटे का बंद बुलाया गया और कोलकाता में ‘महाधिक्कार मिशिल’ निकाला गया. बंगाल में मिशिल का मलतब जुलूस होता है जो विरोध प्रदर्शन के लिए निकाला जाता है. राजा सुबोध मल्लिक स्क्वायर से निकला यह मिशिल (जुलूस) लाल बाजार (पुलिस हेडक्वार्टर) तक जाना था, लेकिन पुलिस ने इसे पहले ही रोक दिया.

इस दौरान बीजेपी कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच झड़पें हुईं. वाटर कैनन और आंसू गैस का इस्तेमाल किया गया. लाठीचार्ज हुआ. इसमें कुछ लोग घायल भी हुए. भारतीय जनता पार्टी ने इसके लिए पश्चिम बंगाल की सरकार को दोषी ठहराते हुए कहा है कि बंगाल में लोकतंत्र का हनन हो रहा है. इस जुलूस में बंगाल बीजेपी के प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय और प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष भी शामिल थे. यह विवाद अभी जारी है.

इससे पहले ममता बनर्जी सरकार के मंत्री ज्योतिप्रिय मल्लिक ने आरोप लगाया था कि नॉर्थ 24 परगना इलाके में उनपर बमों से हमला किया गया और इसके लिए बीजेपी सांसद अर्जुन सिंह दोषी हैं. हालांकि, अर्जुन सिंह ने इससे इंकार किया है. मंगलवार को वहां हुई हिंसा में मो. मुख्तार और मो. हलीम नाम के दो लोगों की मौत हो गई. तृणमूल कांग्रेस ने इस हत्या के लिए बीजेपी को जिम्मेदार बताया है.

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राज्यपाल की सक्रियता

इस बीच राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने सोमवार को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात कर उन्हें बंगाल के ताजा हालात के बारे में बताया और गृह मंत्रालय को भेजी अपनी रिपोर्ट में राज्य में कानून-व्यवस्था की हालत खराब होने की बात कही. इसके बाद यह अटकलें तेज हो गई हैं कि क्या पश्चिम बंगाल राष्ट्रपति शासन के रास्ते पर अग्रसर है.

तृणमूल कांग्रेस के कई नेता राज्यपाल पर पार्टी वर्कर के तौर पर काम करने का आरोप लगाते रहे हैं और उनकी भूमिका सवालों के घेरे में रही है. ऐसे में इन अटकलों को वायरल होने के लिए पार्याप्त हवा मिल रही है. लेकिन, ऐसा होना बहुत आसान नहीं है.

बीजेपी को पता है कि राष्ट्रपति शासन लगने पर ममता बनर्जी उसका इतेमाल अपने राजनीतिक फायदे के लिए कर लेंगी और खुद को शहीद साबित कर अपने कार्यकर्ताओं को और अग्रेसिव होकर काम करने का रास्ता तैयार कर देंगी. जाहिर है कि बीजेपी ऐसा तभी होने देना चाहेगी, जब उसके पास और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाए.

किस बात की लड़ाई

दरअसल, यहां 18 सासंदों को जिताने वाली बीजेपी बंगाल पर कब्जे की लड़ाई लड़ रही है तो तृणमूल कांग्रेस के पास अपने बिखरते वोट बैंक को सहेजने और वजूद को बचाने का टास्क है. साल 2014 के संसदीय चुनावों में 34 सीटें जीतने वाली ममता बनर्जी अब 22 सीटों पर सिमट चुकी हैं. वहीं, बीजेपी ने अपने 2 सांसदों की जगह 18 सांसद जितवा लिए हैं.

नार्थ बंगाल की 9 सीटों में से 8 पर बीजेपी का कब्जा हो चुका है. इसके अवाला पुरुलिया, झारग्राम जैसे आदिवासी इलाकों में बीजेपी की जीत से ममता बनर्जी चिंतित हैं.

बंगाल में अगले साल शहरी निकायों के चुनाव भी होने हैं. इसलिए दोनों पार्टियां पूरे दमखम से मैदान में उतर चुकी हैं. ऐसे में हिंसा की कुछ और वारदातें हों, तब भी कमसे कम यहां के लोगों को कोई आश्चर्य नहीं होगा.

दरअसल, अब युद्ध का शंखनाद हो चुका है. लिहाजा, यह भूल जाइए कि महाभारत की तरह यह युद्ध कुछ नियम और कायदों की बदौलत लड़ा जाएगा. इस युद्ध में तमाम नियम टूटेंगे क्योंकि बंगाल की राजनीति मे हिंसा का पुराना इतिहास रहा है. राजनीति का यह सिद्धांत कहता है कि युद्ध और प्यार में सब जायज है.

इसलिए, इंतजार कीजिए. आने वाले दिनों में हमें कुछ और नए उदाहरण मिलेंगे. ये उदाहरण सियासत का भविष्य तय करेंगे. क्योंकि बंगाल की लड़ाई अब सिर्फ बंगाल की नहीं रह गई है.

(लेखक रवि प्रकाश कोलकाता के एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. इनका टि्वटर हैंडल है @ravijharkhandi. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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