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एक दीदी बीजेपी की पूरी मशीनरी पर भारी. ये आज की बड़ी हेडलाइन बनती है, लेकिन दरअसल, एक हेडलाइन और बन सकती है- बीजेपी से विपक्ष तक विधानसभा चुनाव 2021 की सुपरस्टार ममता बनर्जी. बंगाल, असम, तमिलनाडु और केरल के नतीजों से एक बात जो उभकर आ रही है वो है कि ममता इस चुनावी समर की सबसे बड़ी विजेता हैं. आने वाले वक्त में उनकी जीत बंगाल ही नहीं बाकी देश की राजनीति पर भी बड़ा असर डाल सकती है.
जरा बंगाल में चुनाव प्रचार का दौर याद कीजिए. बीजेपी ने अपना सबकुछ झोंक दिया था. मोदी और अमित शाह की ताबड़तोड़ रैलियां. कोरोना के सेकंड वेव के बावजूद प्रचार का जोर कमजोर नहीं हो रहा था. बीजपी पर केंद्रीय एंजेसिंयों के जरिए विपक्ष को धमकाने के आरोप भी लगे. फिर चाहे वो कोयला घोटाले में ममता के भतीजे और उनके परिवार तक पर जांच की आंच हो या फिर चुनाव आयोग से मन मुताबिक फैसले कराने के आरोप. लेकिन बीजेपी का महाबल भी दीदी के अंगद पांव को हिला नहीं पाया तो ये काफी कुछ कहता है.
इस चुनाव में ममता हारतीं तो उनकी की सियासत कैसे चलती ये कहना मुश्किल था. दूसरी तरफ बीजेपी के ‘अश्वमेध’ में बंगाल युद्धभूमि का एक टुकड़ा भर है. निर्णायक जीत न भी मिले और कुछ कदम आगे बढ़े तो वो इंतजार कर सकती है. उसके पास वक्त है. अगले ‘वक्त’ तक सब्र के लिए रिसोर्स है. ममता न सिर्फ अस्तित्व की लड़ाई जीती हैं बल्कि विपक्ष को ये बता दिया है कि ममता है तो मुमकिन है.
विपक्ष को बीजेपी के बुलडोजर को रोकना है तो उसे कोई नेता चाहिए. मतगणना की सुबह शुरुआती रूझानों में बीजेपी की अच्छी स्थिति देखकर पार्टी के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता ने कहा कि 17 दलों के जो नेता ममता के साथ हाथ पकड़कर एक मंच पर खड़े थे, वो देख लें कि बीजेपी के सामने विपक्षी एकता की क्या ताकत है? ममता की जीत उसी विपक्ष को फिर से उनके इर्द गिर्द लामबंद कर सकती है. विपक्ष में नेतृत्व का झंझट खत्म हो सकता है.
कहते हैं कि देश जो कल सोचता है बंगाल आज ही सोच लेता है. बंगाल ने बांटने वाली राजनीति को नकार दिया है. धर्म के आधार पर नागरिकता में प्राथमिकता की चाल यानी CAA बंगाल को पसंद नहीं आई है. शहरी क्षेत्रों ने रिजेक्ट कर दिया. मालदा, मुर्शीदाबाद ने रिजेक्ट कर दिया. मुस्लिम बहुल इलाकों के हिंदुओं ने भी रिजेक्ट कर दिया. मां दुर्गा के सामने श्री राम को खड़ा करने की राजनीति को बंगाल ने नकार दिया है.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती समारोह में जब एक सरकारी कार्यक्रम में पीएम के सामने ही लोग जय श्री राम के नारे लगाने लगे तो ममता ने विरोध किया. मंच छोड़कर चली गईं. बीजपी ने मुद्दा बनाया कि उन्हें जय श्री राम के नारे से दिक्कत है. ममता पर आरोप लगे कि वो भी हिंदू तुष्टीकरण में लग गईं जब उन्होंने नंदीग्राम में चंडी पाठ किया. लेकिन फिर उन्होंने पश्चिमी मिदिनापुर में कलमा (ला इलाहा इल्लल्लाह) भी पढ़ा. साफ है कि सियासी फायदे के लिए ममता ने अपने आपको सिर्फ हिंदू साबित करने की कोशिश नहीं की.
जाहिर है जिस गेम में बीजेपी को महारत हासिल है, उसमें उसकी नकल करके किसी को फायदा नहीं होना. कई विपक्षी नेता ममता से सीख सकते हैं. क्योंकि ममता का स्टैंड बंगाल को पसंद आया. बीजेपी के स्टैंड को जितने लोगों ने पसंद किया उससे दोगुने से ज्यादा बंगालियों ने ममता के स्टैंड का साथ दिया है. क्या पता बाकी देश भी ऐसा ही चाहता हो, कोई स्टैंड तो ले.
कोरोना के कोहराम पर केंद्र की जानलेवा चुप्पी के खिलाफ भी बंगाल जोर से बोला है. बीजेपी के बड़े नेता नकारते रहे कि चुनाव और कोरोना के सेकंड वेव में कोई संबंध है.दलील थी कि बंगाल से ज्यादा केस तो महाराष्ट्र में थे. लेकिन उनसे कोई पूछने वाला नहीं कि जब टीवी पर हर भक्त और राष्ट्र भक्त अपने अनुकरणीय पीएम को बिना मास्क लाखों की भीड़ के सामने खड़ा देखता है तो संदेश लेता है कि माननीय जो कर रहे हैं वो ठीक ही होगा, हम भी कर सकते हैं.
अपने ही देश के लोगों की जिंदगी से पहले राजनीति को रखना, ये बात बंगाल को पसंद नहीं आई है. ममता ने इस मामले में भी बीजेपी से लीड लिया. शायद वोटर ने इस बात को नोट किया कि ममता ने बीजेपी से पहले कम भीड़ और रैली की बात की. ममता ने मांग की कि आखिरी के चार चरण के चुनाव एक साथ कीजिए और बीजेपी ने इसे नकार दिया. अगर इन चुनाव नतीजों को कोरोना पर भी जनमत संग्रह मानें तो बीजेपी को कोविड पर अपने चाल चलन में सुधार लाना चाहिए. ये होता है तो क्रेडिट ममता को भी जाएगा.
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Published: 02 May 2021,03:30 PM IST