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पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव: TMC-BJP की लड़ाई में लेफ्ट बन सकता है 'छुपा रुस्तम'

इस बार के चुनाव में लेफ्ट का TMC के प्रमुख विपक्षी के रूप में उभरने के संकेत मिल रहे हैं.

सुमंता रॉय & स्पंदन रॉय बासुनी
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव: TMC-BJP की लड़ाई में, डार्क हॉर्स हो सकता है लेफ्ट</p></div>
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पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव: TMC-BJP की लड़ाई में, डार्क हॉर्स हो सकता है लेफ्ट

(फोटो: विभूषिता सिंह/द क्विंट)

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पश्चिम बंगाल (West Bengal) में पंचायत चुनाव (Panchayat Election) की घोषणा 8 जून को की गई थी. इसमें दार्जिलिंग और कलिम्पोंग के पहाड़ी जिलों सहित 22 जिलों में 73,887 सीटों (ग्राम पंचायत में 63,229, पंचायत समिति में 9,730 और जिला परिषद में 928) पर वोटिंग होनी है. दार्जिलिंग और कलिम्पोंग में 23 साल के लंबे इंतजार के बाद ग्रामीण स्थानीय निकाय का चुनाव हो रहा है. इस चुनाव के ऐलान के समय से ही बंगाल में राजनीतिक गर्मी बढ़ती जा रही है, जो अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए अहम होगी.

पिछले पंचायत चुनावों में हुई हिंसा को ध्यान में रखते हुए, जहां सत्तारूढ़ दल ने 34% सीटें निर्विरोध जीतीं. विपक्षी दलों ने केंद्रीय बलों की तैनाती की मांग की, जिसे कलकत्ता हाईकोर्ट ने मंजूर कर लिया है. लंबे विचार-विमर्श के बाद राज्य चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार से केंद्रीय बल की 800 से ज्यादा कंपनियां तैनात करने को कहा है.

बंगाल में विपक्षी पार्टियों में क्षेत्रवार विभाजन

2021 के ऐतिहासिक विधानसभा चुनावों के बाद राज्य की राजनीति काफी बदल गई है. उप-चुनावों और नगरपालिका चुनावों के नतीजों से पता चला है कि सियासी तस्वीर अलग बन रही है जो तीन फैक्टर्स- क्षेत्र, धर्म और नाराजगी से प्रेरित है. बदलाव की यह प्रवृत्ति इस पंचायत चुनाव की नामांकन प्रक्रिया के बाद और अधिक स्पष्ट होती दिख सकती है.

2021 के बाद के चुनावों में बंगाल की राजनीति में विपक्ष में एक बड़ा बदलाव हुआ है, जहां नगर निगम और नगर पालिका चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की जगह लेफ्ट एक प्रमुख विपक्ष के रूप में उभरा है. बालीगंज उपचुनाव में भी यह ट्रेंड दिखा. लेकिन अब, यह प्रवृत्ति केवल कोलकाता या उसके पड़ोसी जिलों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि मध्य बंगाल में भी इसने रफ्तार पकड़ ली है.

पंचायत चुनाव के लिए नामांकन और वापसी की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है, इसलिए बंगाल में विपक्षी इलाके की डाटा से एक स्पष्ट क्षेत्र-वार विभाजन दिखता है.

उत्तर बंगाल में मालदा को छोड़कर सभी जिलों में बीजेपी ने लेफ्ट या कांग्रेस से ज्यादा उम्मीदवार उतारे हैं. इसी तरह, मेदिनीपुर-जंगलमहल क्षेत्र में, उम्मीद के मुताबिक, बीजेपी ने सभी जिलों में वामपंथियों की तुलना में अधिक उम्मीदवार उतारे हैं. लेकिन जब मध्य बंगाल या ग्रेटर कोलकाता की बात आती है, तो ज्यादातर जगहों पर अलग-अलग लड़ते हुए भी लेफ्ट और कांग्रेस ने बीजेपी को पछाड़ दिया है.

मध्य बंगाल में, जिसमें मुर्शिदाबाद, नादिया, बीरभूम, पुरबा और पश्चिम बर्धमान जैसे जिले शामिल हैं, अकेले CPIM ने बीजेपी से अधिक नामांकन दाखिल किए हैं. ग्रेटर कोलकाता क्षेत्र में, उत्तर 24 परगना, हावड़ा और हुगली जिलों में बीजेपी के उम्मीदवारों से CPIM काफी आगे निकल गई है. हालांकि, दक्षिण 24 परगना में BJP सीपीआईएम से आगे है, लेकिन अन्य वामपंथी सहयोगियों को ध्यान में रखते हुए, इस जिले में भी बीजेपी तीसरे स्थान पर खिसक सकती है.

यह एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है क्योंकि नामांकन दाखिल करना किसी संगठन के लिए एक बड़ी परीक्षा है जो बंगाल में कोई भी चुनाव जीतने के लिए आवश्यक है. क्षेत्रवार स्पष्ट विभाजन से पता चलता है कि बीजेपी दस जिलों में बढ़त लेने की हैसियत में है जबकि वामपंथी और कांग्रेस अन्य दस में आगे है. गौरतलब है कि अभी जिन दस जिलों में नामांकन के मामले में लेफ्ट और कांग्रेस बीजेपी से आगे हैं, उनमें से पिछले 2019 के लोकसभा या 2021 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी वोट शेयर या सीट शेयर के मामले में काफी आगे थी.

इसलिए, यह प्रवृत्ति केवल धर्म जैसे फैक्टर के कारण नहीं है. हुगली या बर्धमान (पूर्व) और पश्चिम (पश्चिम)) जैसे हिंदू बहुल जिलों में, वामपंथियों के संगठन ने बीजेपी से बेहतर प्रदर्शन किया है.

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धार्मिक ध्रुवीकरण की प्रधानता

CSDS-लोकनीति डाटा के अनुसार, पिछला विधानसभा चुनाव शायद बंगाल की राजनीति के इतिहास में सबसे ज्यादा धार्मिक ध्रुवीकरण वाला चुनाव था. इसमें एक पार्टी ने 50% से अधिक हिंदू वोट शेयर हासिल किया था और दूसरी पार्टी को लगभग 75% मुस्लिम वोट मिले थे.

लेकिन इसके बाद से, बेरोजगारी या नौकरी-भर्ती घोटाले जैसे मुद्दे बंगाल में खबरों की सुर्खियां बने. इनमें कोई भी धार्मिक पहलू नहीं था. बीजेपी भी समझ गई है कि धार्मिक ध्रुवीकरण अपने चरम पर पहुंच गया है. ये उनके लिए उल्टा नुकसान पहुंचाने वाला साबित हुआ है. आखिरकार उन्हें मुस्लिम समुदाय के प्रति आउटरीच कार्यक्रम शुरू करने के लिए प्रेरित किया. इन कारणों से, मजहबी गोलबंदी अब कमजोर हो रहा है , हालांकि इसके पूरी तरह से गायब होने की उम्मीद करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है.

इसलिए, यह उन पार्टियों के लिए बहुत कठिन होने जा रहा है जिन्हें पहले कुछ समुदायों से वोटों का बड़ा हिस्सा मिलता था. यह कांग्रेस या CPIM जैसी पार्टियों के लिए मुर्शिदाबाद या मालदा जैसे उनके पूर्व गढ़ों में मौका देता है, जहां वे पिछले चुनाव में एक दम जमींदोज हो गए थे. हाल ही में हुए सागरदिघी उपचुनाव में वे सत्तारूढ़ अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को लगभग 23,000 वोटों से हराने में सफल रहे, जहां उन्हें टीएमसी और बीजेपी दोनों से वोट मिले, जो घटती धार्मिक एकजुटता का संकेत है.

ये फैक्टर्स, यानी, क्षेत्र, धर्म, या नाराजगी, बहुत एक्सक्लूसिव नहीं हैं. ये एक दूसरे से किसी ना किसी प्वाइंट पर मिलते रहते हैं. पहले से ही ऊपर चर्चा की गई क्षेत्रवार विभाजन में धर्म की भूमिका है, जिससे अल्पसंख्यक बहुल जिलों मुर्शिदाबाद, मालदा और बीरभूम, नादिया, दक्षिण और उत्तर 24 परगना के कुछ हिस्सों में कांग्रेस और वामपंथियों को स्पष्ट बढ़त मिलती है.

अगर चुनाव में धार्मिक मुद्दों की जगह विकास या पिछड़ापन हावी रहा तो सागरदिघी का ट्रेंड दोहराया जा सकता है. अनीस खान की मौत और बोगतुई में हुई हिंसा ने टीएमसी शासित राज्य सरकार को असहज स्थिति में डाल दिया है और इसके अलावा, सरकारी पदों पर या संगठनात्मक स्तर पर मुसलमानों के कम प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दे पार्टी के अंदर और बाहर नाराजगी बढ़ा रहे हैं.

असंतोष: राज्य सरकार का भ्रष्टाचार, केंद्र की अनदेखी

राज्य सरकार के खिलाफ नाराजगी कई स्तरों पर है. सबसे पहले, प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षक-भर्ती प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण राज्य सरकार के खिलाफ बढ़ती सत्ता विरोधी लहर है. पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी और कुछ अन्य प्रमुख सरकारी अधिकारी जेल में हैं. इसके अलावा मवेशी और कोयला तस्करी के भी आरोप हैं. बीरभूम के टीएमसी जिला अध्यक्ष अनुब्रत मंडल फिलहाल गौतस्करी के मामले में तिहाड़ जेल में हैं. नरेगा श्रमिकों के लिए फंड रोकने को लेकर बीजेपी शासित केंद्र सरकार भी निशाने पर है.

परिणामस्वरूप, ग्रामीण बंगाल में लाखों लोगों ने अपनी कमाई का एक जरिया खो दिया.

कानून-व्यवस्था की स्थिति संभालने को लेकर राज्य सरकार के खिलाफ संभावित नाराजगी की गुंजाइश है. हालांकि नामांकन प्रक्रिया पिछले चुनावों की तुलना में लगभग परेशानी मुक्त रही. परिणामस्वरूप, पिछली बार की 34% की तुलना में केवल 12% सीटें निर्विरोध रहीं, लेकिन कुछ इलाकों में हिंसा का बोलबाला जारी है.

नतीजा यह हुआ कि अब तक नौ लोगों की जान जा चुकी है. दिलचस्प बात यह है कि सात अल्पसंख्यक समुदाय से हैं, और उनमें से छह सत्तारूढ़ टीएमसी से ही हैं. हिंसा पर काबू पाना और स्वतंत्र, निष्पक्ष चुनाव कराना टीएमसी और उसकी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती रहेगी.

बगावत: नाराजगी का संभावित नतीजा

पिछले कुछ हफ्तों में, विभिन्न TMC नेताओं ने टिकट वितरण पर अपना असंतोष जताया है. मालदा जिले के अन्य मुस्लिम विधायकों, जिनमें नवादा की साहिना मुमताज, रेजीनगर के रबीउल आलम चौधरी और जलांगी के अब्दुर रज्जाक, भरतपुर के TMC विधायक हुमायूं कबीर शामिल है. एक साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में इन्होंने पार्टी के पंचायत उम्मीदवारों के चयन पर खुले तौर पर सवाल उठाया. इन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र की 87% सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों का नामांकन दाखिल करवाया है.

कबीर प्रतिनिधित्व का मुद्दा भी उठाते हैं. कोलकाता के आसपास पार्टी का नेतृत्व केंद्रित रहने के लिए पार्टी का मजाक भी उड़ाते हैं. एक संवाददाता सम्मेलन में, दक्षिण 24 परगना के मगराहाट पश्चिम निर्वाचन क्षेत्र के एक अन्य मुस्लिम विधायक गियासुद्दीन मोल्ला ने उम्मीदवारों के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की.

पूर्व समर्पित कांग्रेसी और इस्लामपुर से 11 बार के विधायक अब्दुल करीम चौधरी ने भी पार्टी की पसंद का विरोध किया और विधानसभा के लिए अपने स्वतंत्र उम्मीदवारों के समर्थन में प्रदर्शन किया. राजनीति में आए लेखक और हुगली जिले के बालागढ़ से विधायक मनोरंजन ब्यापारी ने सार्वजनिक रूप से अपने ब्लॉक अध्यक्ष को 'चोर' कहा. उन पर और पार्टी पर उम्मीदवारों से पैसे लेने का आरोप लगाया. यहां तक कि उन्होंने पार्टी की चुनाव समिति से भी इस्तीफा दे दिया.

पार्टी से बगावत करने वाले आठ विधायकों में से सात मुस्लिम हैं. TMC ने अभी तक अपने विधायकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है. इसलिए, पंचायत चुनाव के नतीजे काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेंगे कि टीएमसी अपने झुंड को कैसे एकजुट रखती है और ये असंतुष्ट लोग कैसा प्रदर्शन करते हैं.

बंगाल की राजनीति की संभावित नई तस्वीर?

यह पंचायत चुनाव क्षेत्र, धर्म, आक्रोश और विद्रोह जैसे फैक्टर्स से चलने वाली बंगाल की राजनीति की धारणा को बंद कर सकता है. जो नामांकन भरे गए हैं उनसे बदलाव के पक्ष में साफ रुझान मिलते हैं. हालांकि नतीजों से ही यह पता चलेगा कि यह लकीर कितनी स्पष्ट होगी.

हालांकि, यह ध्यान में रखा जाएगा कि अधिक नामांकन अधिक वोटों की गारंटी नहीं देते हैं. बंगाल में हुए पिछले नगर निगम और नगर पालिका चुनावों में, वामपंथियों से ज्यादा बीजेपी का वोट शेयर था. बीजेपी का वोट शेयर लगभग 1.5% से ज्यादा था. लेफ्ट ने केवल 84% नगरपालिका वार्डों पर चुनाव लड़ा था, जबकि बीजेपी ने 90% पर चुनाव लड़ा था.

साथ ही यह भी देखना दिलचस्प होगा कि केंद्रीय बलों की भारी तैनाती से हिंसा पर कितनी लगाम लगाई जा सकेगी.

हालांकि, बंगाल में स्थानीय ग्रामीण निकाय चुनावों में नतीजे हमेशा सत्तारूढ़ दल के पक्ष में एकतरफा होते हैं. लेकिन विपक्ष वास्तव में 2008 के चुनावों में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहा, जिसमें कांग्रेस और टीएमसी दोनों ने दो-दो जिला परिषदों पर कब्जा कर लिया, जो मतदाताओं के विपरीत रुझान का संकेत था, जो 2009 के लोकसभा या 2011 के विधानसभा चुनावों में काफी हद तक सामने आया.

संक्षेप में, ये चुनाव परिणाम संकेत दे सकते हैं कि इस बार के काफी अहम माने जाने वाले लोकसभा चुनाव से पहले राज्य की राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ेगी. भले ही सत्तारूढ़ टीएमसी अपना प्रभुत्व जारी रखना चाहेगी लेकिन BJP, CPIM या कांग्रेस जैसे विपक्षी दल आने वाले दिनों में TMC के लिए प्रमुख चुनौती के रूप में उभरने के लिए लड़ाई जारी रखेंगे.

(स्पंदन रॉय बासुनी पश्चिम बंगाल नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिडिकल साइंसेज, कोलकाता के छात्र हैं. सुमंत रॉय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में एक शोध विद्वान हैं. यह एक राय है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए ज़िम्मेदार है.)

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