मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019आडवाणी के वारिसों के लिए उनकी नसीहतों का मतलब क्या है?

आडवाणी के वारिसों के लिए उनकी नसीहतों का मतलब क्या है?

क्या आडवाणी की नसीहतों से बेपरवाह हैं बीजेपी नेता

मुकेश कुमार सिंह
नजरिया
Updated:
लालकृष्ण आडवाणी
i
लालकृष्ण आडवाणी
(फोटोः PTI)

advertisement

(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. यह आर्टिकल पहली बार 06.04.19 को पब्लिश हुआ था)

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीजेपी ने अपने वयोवृद्ध संस्थापक सदस्य लाल कृष्ण आडवाणी को मार्गदर्शक मंडल में फिट कर दिया. पांच साल तक जब किसी ने उनसे मार्गदर्शन नहीं लिया तो आडवाणी ने कलम उठायी और पांच साल के अन्तराल के बाद अपने ‘विदाई सन्देश’ के रूप में ऐसा ब्लॉग लिखा, जिसे पार्टी के मौजूदा कर्ताधर्ताओं के लिए नसीहत के रूप में देखा गया.

आडवाणी ने पिछला ब्लॉग 23 अप्रैल 2014 को लिखा था. अपने ताजा ब्लॉग ‘सबसे पहले देश, फिर दल, फिर स्वार्थ’ में आडवाणी ने मोदी-शाह-जेटली जैसे कर्णधारों को बीजेपी की उस नीति का वास्ता दिया, जिसमें राजनीतिक ‘विरोधियों को दुश्मन और असहमति रखने वालों को राष्ट्रद्रोही’ नहीं माना जाता था.

(फोटोः PTI)

आडवाणी के विदाई संदेश के मायने

आखिरी वक्त तक बीजेपी से गरिमामय और यादगार विदाई के लिए तरसते रहे आडवाणी ने मौजूदा कर्णधारों का नाम लिये बगैर इशारों ही इशारों में लिखा कि जो पार्टी आज एक व्यक्ति का पर्याय यानी ‘अहं ब्रह्मसि’ के सिद्धान्त पर चल रही है, कभी उसका दर्शन हुआ करता था ‘सबसे पहले देश, फिर दल, फिर स्वार्थ’. जो पार्टी आज हिन्दू-मुस्लिम करके अपनी राजनीति को चमकाना चाहती है, कभी उसका सिद्धान्त ‘हरेक नागरिक की व्यक्ति पसन्द’ यानी Freedom of Choice का पूरा सम्मान करना हुआ करता था.

पार्टी ने जिस तरह से लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाकर, विधायकों की सौदेबाजी करके कई राज्यों में सरकारें बनाईं वो न तो ‘सत्य, राष्ट्र निष्ठा और लोकतंत्र’ के मूल्यों के अनुरूप है और ना ही ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ और ‘सुराज’ के अनुकूल.

(फोटोः PTI)

मार्गदर्शक आडवाणी को क्यों करना पड़ा मार्गदर्शन

अब सवाल ये है कि क्या बीजेपी के कर्णधारों को आडवाणी के लेखन में कोई मार्गदर्शन दिखायी दिया? कतई नहीं. अगर बीजेपी के ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ में आडवाणी को विकृतियां नहीं दिखायी देतीं वो फिर वो ऐसा लिखते ही क्यों? उन्होंने देखा है कि कैसे उनके उत्तराधिकारियों ने चुनाव आयोग, सीएजी, सीबीआई, सीआईसी, लोकपाल, ईडी, इनकम टैक्स, नीति आयोग वगैरह को सत्ताधारी पार्टी का एक्सटेंसन बना दिया है.

आडवाणी ने देखा है कि कैसे उनके चेलों ने लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं को ‘तोता’ बना दिया है. उन्होंने देखा है कि उनके चेलों ने कैसे गाय-बीफ, लिंचिंग, अवॉर्ड वापसी, लव-जिहाद, ऑपरेशन रोमियो जैसे हथकंडों को भगवा चिन्तन का नीति निर्धारक सिद्धान्त बना दिया है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

क्या आडवाणी की नसीहतों से बेपरवाह हैं बीजेपी नेता

आडवाणी देख रहे हैं कि उनके सियासी वारिसों की हुकूमत में भारतीय लोकतंत्र की विविधता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गम्भीर चोट लगी है. उन्होंने बताया है कि मीडिया को बेमानी और सरकार का भोंपू बना देने से लोकतंत्र का भला नहीं हो सकता. आडवाणी ने खामोशी से बीजेपी के कार्यकर्ताओं को आगाह किया है कि देर-सबेर पार्टी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.

लेकिन दूसरी ओर, आडवाणी की नसीहतों से उनके चेले पूरी तरह से बेपरवाह हैं. चुनावी बेला में आडवाणी के चेले अपने उन बयानों से पीछे हट नहीं सकते कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में सबूत मांगने वाले देशद्रोही हैं.

(फोटोः PTI)

बीजेपी को नहीं भूलने चाहिए ये सबक

आडवाणी, कदाचित अपने चेलों को याद दिलाना चाहते हैं कि मत भूलो कि वाजपेयी जी की सरकार 13 दिन और 13 महीने में इसलिए गिर गयी थी कि अन्य राजनीतिक दल, बीजेपी को साम्प्रदायिक बताकर हमारे साथ आने को तैयार नहीं हुए थे. जनता पार्टी के टूटने की वजह को भी मत भूलो. विरोधियों को दुश्मन समझोगे तो बहुमत नहीं मिलने की दशा में चुनाव के बाद तुम्हारी सरकार बनवाने के लिए कोई साथ नहीं देगा. तुम्हें सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद विपक्ष में बैठना पड़ेगा.मत भूलो कि कितने ही दल बीजेपी का साथ छोड़कर जो गये तो फिर कभी नहीं लौटे. मत भूलो कि 2 सीट से 282 सीट का सफर का उल्टी चाल भी चल सकता है.

इतिहास, आडवाणी से भी करेगा सवाल

मगर अफसोस कि जिन्हें आईना दिखाने के लिए आडवाणी ने इतना मार्गदर्शन दिया उन्हें तो परवाह ही नहीं है. पता नहीं ये देख आडवाणी ने कैसा महसूस किया होगा? बीजेपी में अब बुजुर्गों की परवाह किसे है?

आडवाणी ने अपना विदाई सन्देश कूटनीतिक भाषा में दिया. हालांकि, साफ-साफ भी लिख देते तो उनकी सुनता कौन? वैसे इतिहास आडवाणी से यह सवाल भी पूछेगा कि बीते पांच साल उन्होंने बुजुर्गों की वैसी भूमिका ही निभायी जो हस्तिनापुर के राजदरबार में हो रहे द्रौपदी के चीरहरण को नजरें झुकाये देखते रहे!

(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 06 Apr 2019,06:18 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT