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आडवाणी के चुप्पी तोड़ने के बाद मोदी का ‘डैमेज कंट्रोल’ नाकाफी है

निश्चित रूप से आडवाणी के ब्लॉग ने विपक्ष को एक राजनीतिक हथियार सौंप दिया है.

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
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निश्चित रूप से आडवाणी के ब्लॉग ने विपक्ष को एक राजनीतिक हथियार सौंप दिया है.
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निश्चित रूप से आडवाणी के ब्लॉग ने विपक्ष को एक राजनीतिक हथियार सौंप दिया है.
(फोटो: PTI / Altered By Quint)

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लाल कृष्ण आडवाणी की शख्सियत को चंद शब्दों में नहीं समेटा जा सकता. उनकी आत्मकथा, My Country, My Life भी करीब 1000 पन्नों की किताब है. अपने शुरुआती जीवन में एक पत्रकार होने के नाते उनके लिए लिखना हमेशा से प्रिय रहा है. 2009 लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रचार के दौरान उनकी यादें प्रकाशित हुईं. इसके करीब एक साल बाद उन्होंने ब्लॉग पर लिखना शुरू किया. उन दिनों सोशल मीडिया और उससे जुड़ी गतिविधियों से भारतीय राजनीति अछूती थी.

“As I See It” उनके ब्लॉग का संकलन है. इसकी प्रस्तावना में उन्होंने लिखा कि जब उनके सहकर्मी (प्रद्युत बोरा, @prodyut4assam और अन्य) ने उनकी व्यक्तिगत वेबसाइट तैयार की तो उन्हें लगता था कि “ब्लॉग लिखना बिना दस्तखत किए खत के समान है”.

आडवाणी के मौन तोड़ने का समय

अब बीजेपी अपने गठन के 40वें साल में प्रवेश कर चुकी है. पार्टी की स्थापना दिवस के महज दो दिन पहले, लगभग 500 शब्दों का आडवाणी का ब्लॉग निश्चित रूप से एक खत के समान ही है. आडवाणी के अन्य ब्लॉग की तुलना में ये ब्लॉग छोटा है, लेकिन इसका असर ज्यादा और विस्तृत है. ये खत किसी व्यक्ति विशेष को संबोधित नहीं करता, लेकिन बीजेपी के मौलिक सिद्धांतों की याद हर किसी को दिलाता है. लेकिन खत लिखने के लिए चुने गए समय ने पार्टी से जुड़े लोगों को असमंजस में डाल दिया है.

इस ब्लॉग से असंतुष्ट उदारवादियों की नाराजगी संभवत: अपेक्षित थी, जो आडवाणी पर रुढ़िवादी विचारधारा को प्रोत्साहन देने का दोषारोपण कर रहे हैं.

शायद उनका ये कहना गलत भी नहीं, कि ये ब्लॉग असंतोष की उपज है. अगर आडवाणी को गांधीनगर या किसी अन्य सीट से उम्मीदवार बनाया जाता, तो भी वो क्या ये ब्लॉग लिखते?

अगर इस सवाल का जवाब ना हो, तो भी आडवाणी की सोच को नकारा नहीं जा सकता. जिस नेता को राजनीति से जबरन दूर कर दिया गया हो, उस नेता के शक्तिशाली संदेश को ‘हठधर्मिता’ बताकर नकारने के बजाय ये आकलन करना बेहतर होगा, कि उस संदेश ने उनसे सम्मानपूर्वक संन्यास लेने का अंतिम मौका छीनने वालों को कितना नुकसान पहुंचाया है. इस बहस से कोई फायदा नहीं कि उस ब्लॉग के कारण आडवाणी पर उदारवादी होने का ठप्पा लगाया जाए या नहीं.

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क्या बीजेपी के अन्य नेताओं की तकदीर में भी यही लिखा है?

उनसे सम्मानपूर्वक संन्यास ग्रहण करने का अवसर छीनना निष्ठुरता का परिचायक था. 2009 चुनाव में पार्टी की हार के बावजूद आडवाणी ने पार्टी की अगुवाई नहीं छोड़ी थी और संसद में नेता विपक्ष बने थे. उस वक्त भी मोहन भागवत ने व्यक्तिगत तरीके से ही अपनी भावनाएं व्यक्त की थीं. मौजूदा समय की तरह किसी प्रेस रिलीज में आडवाणी के संन्यास के ऐलान का तरीका नहीं अपनाया गया था.

आडवाणी के समर्थन में खुलकर बोलने वाले कम हैं, लेकिन पार्टी में कई नेताओं के मन में ये चिन्ता घर कर चुकी है, कि क्या उनका भविष्य भी ऐसा ही होगा?

सुषमा स्वराज, उमा भारती और यहां तक कि सुमित्रा महाजन जैसी दिग्गज नेताओं के चुनाव न लड़ने के ऐलान के पीछे कोई तर्क नहीं दिखता. एक प्रकार से देखा जाए तो उन्होंने मोदी-शाह की जोड़ी से अपमानजनक तरीके से बाहर का रास्ता दिखाने का मौका छीन लिया है.

अपनी ताकत और लोकप्रियता के चरम पर भी आडवणी की पहचान ऐसी नहीं थी, कि वो अपनी या अपने वफादारों की तरफदारी करें. दिखने में वो वर्षों तक आर के लक्ष्मण के ‘आम आदमी’ से मेल खाते रहे. आडवाणी ने उस किरदार को भी लगभग पूरी तरह जीने की कोशिश की. यहां तक कि कार्रवाई करने के बजाय शब्दों के जरिये विरोध जताने में विश्वास करते रहे. सिर्फ एक मौका आया, जब वो इस नियम से इतर गए, और जब उन्होंने हिन्दुत्व की व्याख्या की.

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मोदी के ‘संरक्षक’ बन गए आलोचक

किसी समय में पार्टी के मजबूत स्तंभ कहलाने वाले के दुर्दिन पर आंसू बहाने वाले कम ही हैं. ये विडम्बना ही थी कि उन्हीं के पार्टी अध्यक्ष काल में एक दुबले-पतले दाढ़ी वाले व्यक्ति को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पार्टी में भेजा था. इस व्यक्ति ने अटल बिहारी वाजपेयी के समय प्रचारक की भूमिका को पुनर्जीवित किया था. इस व्यक्ति का नाम था, नरेंद्र दामोदरदास मोदी.

आडवाणी उस समय भी मोदी के संरक्षक थे जब बीजेपी में उनका क्रियाकलाप आरम्भ हुआ था और बाद में भी, जब 2002 के दंगों के बाद वाजपेयी ने मोदी से इस्तीफा लेने की कोशिश की थी.

उनकी सबसे बड़ी गलती उस वक्त हुई थी, जब मोदी ने शीर्ष पद पर स्थापित होने की अपनी महत्त्वाकांक्षा जाहिर की और उन्होंने मना नहीं किया.

दोनों के बीच सद्भाव सितम्बर 2011 में हवा होते दिखे, जब आडवाणी ने अपनी राष्ट्रीय जन चेतना यात्रा के लिए गुजरात को भी उस वक्त चुना, जब मोदी पहले ही अपना सद्भावना मिशन शुरू कर चुके थे. मोदी का ये मिशन बीजेपी के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की उनकी महत्तवाकांक्षा की ओर एक कदम था. कई लोगों ने सोचा कि मार्गदर्शक मंडल के अन्य लोगों की तरह आडवाणी भी उनका स्वागत करेंगे. दरअसल ये दौर आरएसएस में नई पीढ़ी के कमान थामने का था और मार्च 2009 में भागवत सरसंघचालक के पद पर विराजमान हो चुके थे.

आडवाणी का ब्लॉग: मोदी-शाह की जोड़ी पर निशाना

अपनी असफलताओं के बावजूद आडवाणी के उठाए मुद्दे बिलकुल उचित और महत्त्वपूर्ण हैं. जो लोग बीजेपी की मौजूदा निष्ठुर संस्कृति से असहज हैं, ये मुद्दे उनकी आवाज हैं. निश्चित रूप से उनके ब्लॉग ने मोदी और संघ परिवार में उनके वफादारों को असहज बनाया होगा.

आडवाणी का मानना कि, “भारतीय लोकतंत्र का मूलमंत्र विविधता का सम्मान और अभिव्यक्ति की आजादी है”, गर्त में खो चुके पार्टी के सिद्धांतों की याद दिलाती है. ये दूसरी बात है कि आधुनिक बीजेपी में ये मान्यताएं बचकानी हो चुकी हैं और इनका पालन करने वाले को फौरन “टुकड़े-टुकड़े” गैंग के सदस्य के रूप में विभूषित कर दिया जाता है.

बिना नाम लिए आडवाणी ने शीर्ष पर बैठे दोनों नेताओं को याद दिलाया कि वैचारिक मतभेद रखने वालों को “देशद्रोही” करार देना पार्टी की संस्कृति के खिलाफ है.

अंत में उन्होंने ये भी लिख डाला कि “लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा” पार्टी का मूलमंत्र रहा है और “चुनावी फंडिंग” में पारदर्शिता लाना लंबे समय से पार्टी की प्राथमिकता रही है.

शायद ही कोई दलील देगा कि इन संदेशों का इशारा मोदी और अमित शाह की जोड़ी की ओर नहीं है. दरअसल ये संदेश उन तौर-तरीकों का विरोध हैं, जिनके जरिये दोनों पार्टी का संचालन कर रहे हैं.

मोदी का डैमेज कंट्रोल काफी नहीं

पार्टी की स्थापना दिवस की पूर्व संध्या पर आडवाणी के ब्लॉग के कारण बिगड़ती बात को भांपते हुए मोदी ने डैमेज कंट्रोल की कोशिश की. मोदी ने ब्लॉग का लिंक साझा करते हुए अपना नैरेटिव पेश किया. ब्लॉग के “guiding Mantra of ‘Nation First, Party Next, Self Last” हिस्से को रेखांकित करते हुए उसकी तारीफ की. मोदी ने सोचा होगा कि इससे ब्लॉग के कारण हुए नुकसान की भरपाई हो जाएगी.

पिछले कुछ सालों से आडवाणी ने शायद ही कुछ कहा है. यहां तक कि संसद में भी वो मौन रहे हैं, जहां उनकी उपस्थिति 92.21 फीसदी रही है. सार्वजनिक रूप से सिर्फ 365 शब्द और संसद में दिसम्बर 2014 के बाद से तो एक शब्द भी नहीं. लेकिन जब उनकी लेखनी ने मौन तोड़ा, तो उसका असर व्यापक था.

निश्चित रूप से आडवाणी के ब्लॉग ने विपक्ष को एक राजनीतिक हथियार सौंप दिया है. जिस प्रकार मोदी ने ब्लॉग का नुकसान कम करने के लिए उसके चुनिंदा हिस्से को रेखांकित किया है, उसी प्रकार विपक्ष भी अपने हिसाब से उन हिस्सों को रेखांकित करने से नहीं चूकेगा, जिसमें मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी में भारतीय राजनीतिक मूल्यों की गिरावट का नैरेटिव होगा.

शायद अपने ब्लॉग के जरिये आडवाणी ने भविष्य में गैर-बीजेपी सरकार के लिए जमीन तलाशने का आधार तैयार कर दिया है. ठीक उसी प्रकार, जैसे मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने रातोंरात पी वी नरसिम्हा राव के शासन में सुशासन खोज निकाला था. लेकिन हो सकता है, कि तब तक दोनों में से किसी का आधार न बचा हो, क्योंकि भारतीय राजनीति में नाटक और विरोधाभासों की कमी नहीं है.

(लेखक दिल्ली स्थित पत्रकार हैं. उनकी नवीनतम किताबें हैं- ‘Sikhs: The Untold Agony of 1984’ और ‘Narendra Modi: The Man, The Times’. उनसे @NilanjanUdwin पर सम्पर्क किया जा सकता है. आलेख में दिये गए विचार उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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