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जब गवर्नर देशमुख ने अंग्रेज सरकार को RBI से दूर रहने की नसीहत दी..

सी डी देशमुख RBI के पहले भारतीय गवर्नर थे, वे आजाद भारत के पहले वित्तमंत्री भी बने 

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Published:
(फोटो: ट्विटर)
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(फोटो: ट्विटर)

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सरकार से मतभेद के चलते रिजर्व बैंक के गवर्नर पद से सर ऑस्बॉर्न स्मिथ को हटाए जाने की स्टोरी हम सुनते आए हैं, लेकिन क्या आप उनके उत्तराधिकारी का नाम जानते हैं? उनकी जगह जॉन टेलर ने ली थी, जो दिल्ली के वित्त विभाग में अतिरिक्त सचिव थे. दिल्ली में उस वक्त टेलर के बॉस सर जॉन ग्रिग थे. वह वायसराय काउंसिल में वित्तीय सदस्य थे.

ग्रिग का मानना था कि अंग्रेजी राज का मकसद भारत को लूटना है, लेकिन टेलर की राय उनसे अलग थी. बोर्ड ने जब सर्वसम्मति से उन्हें रिजर्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया, तब टेलर सिर्फ 46 साल के थे. मनमोहन सिंह 48 साल की उम्र में आरबीआई के गवर्नर बने. कई लोगों को यह गलतफहमी है कि मनमोहन देश के सबसे युवा गवर्नर थे.

आरबीआई बिल का मसौदा तैयार करने से लेकर उसे पास करवाने की मुहिम से टेलर करीबी तौर पर जुड़े हुए थे. ग्रिग ने टेलर से कहा था कि सबसे पहले वह आरबीआई बोर्ड को घुटने टेकने पर मजबूर करें. बोर्ड में कई भारतीय उद्योगपति भी थे. वे अक्सर ग्रिग से उलटी पोजिशन लेते थे.

ग्रिग ने अपनी आत्मकथा में उस वक्त स्थिति के बारे में बताया है. उन्होंने लिखा है कि बोर्ड में कांग्रेस से जुड़े हिंदू उद्योगपतियों का दबदबा था. ग्रिग के मुताबिक,‘इसके गंभीर नतीजे हो सकते थे, लेकिन टेलर की सूझबूझ और कौशल के चलते कोई परेशानी खड़ी नहीं हुई... वह मेरे प्रति वफादार थे.’

टेलर से उम्मीद थी कि वह आरबीआई को विवादों दूर रखेंगे. संस्थान की स्वायत्त छवि बनाएंगे, लेकिन करेंगे वही जो सरकार चाहेगी. यह परंपरा आज तक चली आ रही है. आरबीआई के आधिकारिक इतिहास के पहले खंड में टेलर को लेकर दरियादिली दिखाई गई है. इसमें लिखा है कि उन्होंने भारतीयों और अंग्रेज सरकार के हितों के बीच तालमेल बनाए रखा, लेकिन यह सच नहीं है.

सरकार अंग्रेजों के हित से जुड़े मुद्दों पर अडिग रहती थी

सरकार मामूली चीजों पर पीछे हट जाती थी, लेकिन अंग्रेजों के हित से जुड़े बड़े मुद्दों पर अडिग रहती थी. मिसाल के तौर पर, फाइनेंसिंग और रक्षा बलों की सप्लाई जैसे इश्यू. उस वक्त ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ भारतीय उद्योगपति भी आवाज नहीं उठा रहे थे क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के चलते सरकार से उन्हें काफी काम मिल रहा था.

बोर्ड के गैर-उद्योगपति सदस्यों को लगता था कि आरबीआई की स्वायत्तता और बोर्ड की भूमिका को लेकर सरकार खुला नजरिया रखती है. यानी टेलर संस्थान की वैसी इमेज बनाने में सफल रहे थे. इसलिए 1942 में जब टेलर का कार्यकाल और पांच साल के लिए बढ़ाने का वक्त आया तो बोर्ड ने सर्वसम्मति से उस पर मुहर लगाई. जैसा कि अक्सर ऐसे मामलों में होता है, ग्रिग को सर पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास जैसे बोर्ड के सदस्यों को राजी करने के लिए कुछ मेहनत करनी पड़ी, लेकिन वह इसमें सफल रहे.

टेलर की अचानक 1943 में दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई, तब आईसीएस ऑफिसर सी डी देशमुख को रिजर्व बैंक की कमान सौंपी गई. दिलचस्प बात यह है कि वह 1, सफदरजंग रोड में 1950 में भी कुछ समय तक रहे थे. इस आवास को 1964 में इंदिरा गांधी को अलॉट किया गया.

सरकार के साथ तालमेल बनाने के लिए देशमुख को 1938 में रिजर्व बैंक भेजा गया था. 1940 में उन्हें आरबीआई का डिप्टी गवर्नर बनाया गया. देशमुख आजादी के बाद 1950 में देश के पहले वित्त मंत्री भी बने. उन्हें यह पद 1946 में अंतरिम सरकार में भी ऑफर किया गया था, लेकिन तब उन्होंने इसे ठुकरा दिया था. इस वजह से मुस्लिम लीग के लियाकत अली खान को वित्त मंत्री बनाया गया. इस गलती पर जल्द ही सबको पछतावा हुआ.

रिजर्व बैंक के पहले गवर्नर सीडी देशमुख(फोटो: फेसबुक)
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जब देशमुख रिजर्व बैंक के गवर्नर बने...

देशमुख रिजर्व बैंक के गवर्नर नहीं बन पाते अगर उन्हें विदेश सचिव लियो एमरी का अप्रत्याशित समर्थन ना मिला होता. दिल्ली की सरकार ने उनकी नियुक्ति रोकने की पूरी कोशिश की थी. आरबीआई बोर्ड की जब अप्रैल में मीटिंग हुई, तब इंपीरियल बैंक के मैनेजिंग डायरेक्टर और अंग्रेज विलयम लेमॉन्ड को तीन साल के लिए गवर्नर बनाने का प्रस्ताव रखा गया. कहा गया कि देशमुख उसके बाद गवर्नर बन सकते हैं. हालांकि, बोर्ड के ज्यादातर सदस्य देशमुख को गवर्नर बनाने पर अड़े रहे.

यह भी दिलचस्प है कि लेमॉन्ड को गवर्नर बनाने का प्रस्ताव एक पारसी बोर्ड मेंबर ने दिया था, जिसका एक मुसलमान और एक अंग्रेज मेंबर ने समर्थन किया. हालांकि, इस प्रस्ताव पर 7:3 से बोर्ड के हिंदू सदस्यों की जीत हुई. ऐसे में सरकार ने फजीहत से बचने के लिए एक मुसलमान और एक यूरोपियन को डिप्टी-गवर्नर बनाने का प्रस्ताव रखा. बोर्ड इसके लिए मान गया.

वैसे भी उसके पास कोई रास्ता नहीं था क्योंकि वीटो का अधिकार सरकार के पास था. इस पर बोर्ड मेंबर सीआर श्रीनिवासन ने स्पष्ट किया, ‘सरकार के विश्वासपात्र डिप्टी गवर्नर की नियुक्ति के जरिये गवर्नर के अधिकार को सीमित करने की कोशिश नहीं होनी चाहिए.’

(फोटो: Bloomberg)

गवर्नर बनने के बाद देशमुख को वित्त विभाग ने‘सलाह’ दी कि वह कुछ समय तक इंपीरियल बैंक के मैनेजिंग डायरेक्टर लेमॉन्ड से परामर्श करते रहें. देशमुख ने कुछ समय तक ऐसा किया भी, लेकिन उसके बाद लेमॉन्ड से सलाह लेना बंद कर दिया क्योंकि दोनों के बीच किसी मुद्दे पर कभी मतभेद नहीं हुआ था. देशमुख ने ईमानदारी से काम किया. उन्होंने भारतीय और ब्रिटिश हितों के बीच तालमेल बनाने की कोशिश की, लेकिन 1945 में जब उनसे किसी मामले पर दिल्ली सरकार से सलाह के बाद फैसला करने को कहा गया तो उनका धीरज भी जवाब दे गया.

उन्होंने कहा कि वित्त विभाग आरबीआई के कामकाज में दखलंदाजी ना करे. उन्होंने एक चिट्ठी में लिखा,‘विचार-विमर्श के बहाने मुझे सरकार का फैसला थोपना मंजूर नहीं है...मैं इसे बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं...रिजर्व बैंक की आजादी बनी रहनी चाहिए... इस मामले में किसी समझौते को मेरा जमीर गवारा नहीं करेगा.’

कुछ और मौके भी आए, जब देशमुख को वित्त विभाग को अपनी हरकतों से बाज आने के लिए कहना पड़ा. यह बात भी गौर करने लायक है कि 34 साल बाद 1979 में वित्त मंत्रालय के एक विशेष सचिव ने सरकार से सलाह नहीं करने को लेकर मनमोहन सिंह को फोन पर फटकार लगाई थी. इसके बाद 1985 में युवा और बेसब्र मुख्य आर्थिक सलाहकार बिमल जालान बिना उनसे सलाह लिए कोई फैसला करने पर आरबीआई पर बरस पड़े थे.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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