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ये जो इंडिया है ना, इसे जवाब चाहिए - फादर स्टेन स्वामी (Father Stan Swami) को किसने मारा? फादर स्टेन स्वामी की किस वजह से मौत हुई? क्या सिर्फ कार्डिएक अरेस्ट की वजह से थी? या सिर्फ उनके फेफड़े में कोविड का प्रभाव या कोई और भी कारण थे? जैसे की देश की न्यायायिक प्रणाली जिसने उन्हें बार-बार जमानत मांगने पर भी नहीं दी. ये जानने के बावजूद कि वह 84 साल के थे, पार्किंसन रोग के मरीज थे, क्रोनिक स्पोंडिलोसिस के मरीज थे, न ही ठीक से सुन पाते थे.
एनआईए (NIA) कि विशेष अदालत ने 74 पैराग्राफ के फैसले में एक भी पैराग्राफ में इस बारे में कुछ नहीं कहा कि स्टेन स्वामी के गिरते स्वास्थ, और उनके बुढ़ापे को जमानत से इंकार करते हुए क्यों नजरअंदाज किया गया था.
अब स्टेन स्वामी के जेल में गुजरे कई महीनों कि तुलना सूरज पल अमू की आजादी से करिए. सूरज पाल अमू, कानून के डर के बिना, अपनी पार्टी के पूर्ण समर्थन के साथ, जिसने उन्हें हरियाणा के लिए बीजेपी का प्रवक्ता बना दिया है, नियमित रूप से मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाते हैं.
मई के महीने में आसिफ शेख कि हत्या करने वालों की सराहने से लेकर ये कहने तक कि लव जिहाद कि शुरुआत पटौदी में शर्मीला टैगोर के साथ हुई थी. देश के मुस्लमान पाकिस्तानी हैं, उन्हें बाहर निकाला जाए, सूरज पल अमू लगातार इस तरह का जहर उगलते हैं.
करनी सेना के प्रमुख के रूप में उन्होंने 2017 में पद्मावत विवाद के दौरान दीपिका पादुकोण का सिर कलम करने वाले किसी भी व्यक्ति को 10 करोड़ का इनाम देने कि बात कही थी, फिर भी वो आजाद हैं.
दूसरी तरफ स्टेन स्वामी को जमानत देने से इनकार करते हुए एनआईए कोर्ट ने कहा समुदाय का हित स्वामी कि व्यक्तिगत आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. उनकी उम्र या कथित बीमारी के बावजूद. कथित बीमारी यानी स्टेन स्वामी बीमारी का ड्रामा कर रहे थे.
क्या वे उसमे नफरत नहीं ढूंढ पा रहे हैं? और उन वीडियो में उन्हें हिंसा की खुली धमकी सुनाई नहीं देती? नहीं, वो इसपर नजर नहीं डालना ही ठीक समझते हैं.
लेकिन स्टेन स्वामी की हत्या की बात पर फिर लौटते हुए, आगे पूछते हैं कि क्या रोल था इसमें एडिशनल पब्लिक प्रोसीक्यूटर का, जिसने बीमार स्वामी को प्राइवेट अस्पताल में ले जाने पर आपत्ति जताई थी? क्या रोल था महाराष्ट्र के तलोजा जेल अधिकारियों का, जिनके पास एक साधारण सिपर और स्ट्रॉ की अनुमति देने के लिए मानवता नहीं थी? या क्या रोल था एनआईए का जिसने 84 साल के कैथोलिक पादरी पर यूएपीए (UAPA) का आरोप लगाया, उन पर माओवादी होने का आरोप लगाया और इतने गहरे आरोप के बावजूद अक्टूबर 2020 में उन्हें अरेस्ट करने के बाद एक दिन के लिए भी पूछताछ के लिए नहीं बुलाया!
ऐसा क्यों? क्योंकि वे बस उन्हें सलाखों के पीछे चाहते थे, और यूएपीए के कायदे कानून के तहत उन्हें जेल में ही रखना चाहते थे. क्योंकि जैसा की हम अब जानते हैं जब यूएपीए की बात आती है तब प्रक्रिया ही सजा है.
इस मौत की तुलना क्यों न हम राम भक्त गोपाल को मिली हुई आजादी से करें. जिस व्यक्ति ने जनवरी 2020 में CAA विरोधी छात्रों पर गोलियां चलाई. उसे न सिर्फ जमानत मिली, आज वो आदमी नफरत उगलने के लिए वापस आ गया है
तो असल में हो क्या रहा है? देश के अलग अलग हाई कोर्ट में पुलिस द्वारा यूएपीए के तहत कई आरोपों को खारिज भी किया है. फिर भी पुलिस और सरकार इन एफआईआर को रद्द करने के लिए तैयार नहीं. क्यों? क्योंकि ऐसे लोग जो सरकार से असहमत रहते हैं, ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट, वकील, छात्र, पत्रकार. इनके लिए यूएपीए से बेहतर सजा क्या हो सकती है. न ट्रायल कि जरूरत न सबूत कि, एक, दो, तीन साल जेल में रखो, खुद सीधे हो जाएंगे. बस स्टेन स्वामी को छोड़कर क्योंकि उनकी तो इंतजार करते-करते मौत हो गई.
बॉम्बे हाई कोर्ट से वीडियो कांफ्रेंस पर बात करते हुए 21 मई को एक जमानत याचिका के दौरान स्टेन स्वामी ने कहा, "संभव है कि मै यहीं जल्द मर जाऊंगा, अगर चीजें ऐसे ही चलती रहीं" 45 दिन बाद सच में उनकी मौत हो गयी.
ये जो इंडिया है ना.. यहां 5 जुलाई के दिन हमने सिर्फ फादर स्टेन स्वामी को नहीं खोया, हमने इंसानियत खोई, हमने कानून का शासन खोया, हमने फ्रीडम ऑफ़ स्पीच यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खोई, अपनी सेकुलरिज्म खोई, अपने लोकतंत्र का एक बड़ा हिस्सा खो दिया. अब तो गांधी लगातार गोडसे से हारते दिख रहे हैं.
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Published: 09 Jul 2021,07:14 AM IST