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अहमद पटेल के दुखद निधन पर सोनिया गांधी ने कहा "अद्वितीय" साथी और मनमोहन सिंह ने कहा "अपूरणीय" क्षति. अभी अहमद भाई को जानने वाला हर शख्स उनके बारे में सोचेगा और शोककुल होगा. लेकिन कुछ ही दिनों में कांग्रेस पार्टी इस सवाल का सामना करेगी कि इस "अद्वितीय साथी की अपूरणीय क्षति" को कैसे भरा जाए और किससे भरा जाए?
ये एक राजनीतिक प्रश्न है.
कांग्रेस जिस संकट से गुजर रही है, उसमें उत्तरधिकार प्रबंधन, ग्रुप-23 की चिट्ठी, बिहार में हार, जीते हुए राज्यों को खोना, प्रादेशिक नेताओं की गुटबंदियां तो प्रमुख हैं ही, लेकिन उनके साथ अहमद भाई की गैर मौजूदगी पार्टी की मुसीबतों को कई गुना बढ़ाती है.
इतने वर्षों में वो बहुआयामी योगदान करने वाले नेता बन गए थे- भरा पूरा पैकेज. कांग्रेस में काफी नेता हैं, लेकिन उन जैसा वन स्टॉप शॉप कौन है? (और है तो उनको आप आगे बढ़ते हुए देख पा रहे हैं क्या?) कुछ युवा नेताओं के अर्दलियों की भाषा में कहा जाए तो - वाट डज वन ब्रिंग ऑन दि टेबल? तो अहमद भाई ने कांग्रेस की टेबल पर जो रखा उसका मोटा हिसाब ये है-
अहमद भाई राजनीति का यथार्थवादी पक्ष सामने लाते थे. जहां तक हो सके अपने आग्रहों को किनारे रख कर सूचना और सलाह लेते देते थे. पार्टी का मुद्दा चाहे महाराष्ट्र का हो या मणिपुर का, एक ही दिन बराबर तवज्जो देते हुए ऐसे सारे मसलों पर काम करते थे. राजस्थान के ताजा संकट में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के टकराव को टालने में उनकी मशक्कत कमाल की थी.
तीसरी बड़ी चीज - अहमद भाई संस्थागत स्मरणशक्ति के भंडार थे. इंदिरा गांधी से लेकर राजीव, सोनिया और राहुल गांधी के कार्यकाल में इस लाजवाब भूमिका में कुछ ही लोग थे - पीवी नरसिंह राव, अर्जुन सिंह, प्रणब मुखर्जी, शरद पावर जैसे कुछ ही नेता हैं जो इस श्रेणी में आते हैं. इन सब नेताओं में कोई बौद्धिक और नीतिगत इनपुट लाते हैं, तो कोई व्यावहारिक पक्ष. लेकिन सब से अहम होता है रणनीतिक काबिलियत. अहमद भाई इस गुण की वजह से कांग्रेस के बेशकीमती ऐसेट थे.
राजनीतिक पार्टियों को काले धन से तो डील करना ही पड़ता है, लेकिन भारत की पार्टियों की एक खास बात है. वो पार्टी का खजांची हमेशा बेहद ईमानदार चुनती है. कोई पार्टी कोषाध्यक्ष बन गया तो मान लीजिए कि वो गारंटीशुदा ईमानदार शख्स होगा. अहमद भाई का लम्बे समय तक कोषाध्यक्ष होना यही बताता है. पद नाम के आगे वो हमेश कोर ग्रुप का हिस्सा रहे.
सबसे बड़ी क्वालिटी जो किसी को लीडर बनाती है वो है कि वो सबों को कितना सुलभ है. कोई जानकारी उस तक पहुंचने के पहले ही उसके दफ्तर में खो तो नहीं जाती और वो आसानी से मिल लेता है क्या? अहमद भाई इन सब कसौटियों पर खरे उतरते थे. कई लोग अहमद भाई के लिए कहते हैं वो परदे के पीछे रहते थे, अंत:पुर की राजनीति करते थे. ये गलत आकलन है. वो मितभाषी थे, लो प्रोफाइल में रहना उनको पसंद था, मीडिया में आना उनको पसंद नहीं था. वो ज्यादा सुनते थे और कम बोलते थे.
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस पार्टी में लोग नहीं हैं. वो हैं लेकिन परिपूर्ण पैकेज वाले लोग कम हैं. अहमद भाई वाला आउटपुट लेने के लिए कम से कम तीन लोग लगेंगे. उनको पहचानने और तैयार करने में समय और मेहनत दोनों की जरूरत होती है.
अभी युवा इतिहासकार विनय सीतापति ने बीजेपी पर एक किताब लिखी है- जुगलबंदी. उन्होंने सीधी सी बात समझाई है - बीजेपी यानी टीमवर्क और दीर्घकालीन सोच. बीजेपी की शीर्ष रणनीति ये रही है कि एक श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो साथ में एक दीन दयाल उपाध्याय. एक आडवाणी तो साथ में एक वाजपेयी. एक नरेंद्र मोदी तो साथ में अमित शाह की जुगलबंदी.
ये प्रतीकात्मक सवाल है क्योंकि वो पार्टी के लिए जो थे, वो किसी पद से व्याख्यायित नहीं होता. पार्टी को जोड़े रखने और सक्रिय रखने वाली सीमेंट जैसा रोल निभाने वालों की जरूरत हर पार्टी को होती है. ये सिपहसलार ही पार्टी को संभालते-चलाते हैं.
इसलिए अहमद भाई का जाना, एक व्यक्ति का जाना नहीं है. ये एक घटना है जो अस्तित्व की लड़ाई में उलझी कांग्रेस की मुसीबतों को और गहराई से रेखांकित करती है और पार्टी को याद दिलाती है कि अगला अहमद पटेल कौन?
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