advertisement
भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद को 20 दिसंबर 2019 को नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हुए प्रदर्शन के दौरान हिंसा में लिप्त रहने के आरोप में गिरफ्तारी के बाद ज़मानत दी गई है. दिल्ली पुलिस का आरोप है कि उन्होंने जामा मस्जिद के पास भाषण दिया और लोगों को पुलिस के खिलाफ ‘हिंसा’ और सार्वजनिक संपत्ति को ‘नुकसान पहुंचाने’ के लिए ‘उकसाया’.
जमानत का निश्चित रूप से स्वागत है क्योंकि प्रथम दृष्टया इस दावे के समर्थन में कोई सबूत नहीं हैं. इसे अदालत ने भी अपने आदेश में नोट किया है. लेकिन जमानत देते हुए जज ने कुछ शर्तें भी लगाई हैं. जैसे, चंद्रशेखर आजाद को चुनाव होने तक अगले चार हफ्ते दिल्ली में प्रवेश की इजाजत नहीं है. इसका कोई आधार या तर्क नहीं है और निश्चित रूप से इस पर सवाल उठने चाहिए.
जमानत का विरोध करते हुए राज्य सरकार ने रैली से पहले उनके द्वारा किए गए ट्वीट्स को उत्तेजक बताया. इसके साथ ही यह कहा गया कि 20 दिसम्बर को हुई रैली के ड्रोन फुटेज (जिसकी वैधता स्वयं संदिग्ध है) बताते हैं कि अभियुक्त ने हिंसा के लिए उकसाने वाले बयान दिए. जो सीसीटीवी फुटेज मिले हैं उसकी क्वालिटी इतनी खराब है कि न केवल आजाद, बल्कि उनके 15 सह अभियुक्त भी इस आधार पर घटनास्थल पर मौजूद नहीं थे ऐसा बताया जा सकता है.
इन बातों को ध्यान में रखते हुए साधारणतया नियमित शर्तों, जैसे निजी मुचलके और पासपोर्ट जमा करा लेना, के साथ जमानत मिल जानी चाहिए थी जैसा कि सह अभियुक्तों को जमानतें दी गई हैं. लेकिन इस मामले में अदालत एक कदम और आगे चली गई और निर्देश दिया कि आजाद को अगले चार हफ्ते दिल्ली आने की इजाजत नहीं दी जाएगी और यहां तक कि मेडिकल के लिए आते वक्त भी उन्हें पुलिस के घेरे में रहना होगा.
जमानत के समय शर्तें लगाने का मूल तर्क होता है कि अभियुक्त किसी तरीके से जांच को प्रभावित ना करे, जैसे गवाहों को धमकाना या कुछ ऐसा प्रभाव डालना जिससे जांच पर असर हो. इस मामले में गवाहों में ज्यादातर पुलिस अधिकारी हैं और जो प्रमाण दिए जाने वाले हैं वे हैं सीसीटीवी फुटेज, जिसे दिल्ली पुलिस ही देख सकती है और ड्रोन फुटेज जहां भी उनके ही आदमी हैं. चंद्रशेखर आजाद जैसे आम नागरिक के लिए यह बेहद मुश्किल है कि वह किसी सबूत से छेड़छाड़ करे या गवाहों को प्रभावित करे. इसलिए वे चिंता की वजह नहीं हो सकते.
जमानत देते हुए कौन सी शर्तें लगाई जा सकती हैं इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है और सुप्रीम कोर्ट ने खुद को नियंत्रित रखा है. यह कहा गया है कि कोई भी परिस्थिति जिसमें जांच या ट्रायल की निष्पक्षता का संदर्भ नहीं आता, कानून के हिसाब से जमानत के लिए मान्य है.
आदेश से यह बिल्कुल साफ है कि दिल्ली में उनके नहीं रहने की शर्त जांच में बाधा डालने की आशंकाओं को देखते हुए नहीं बल्कि दिल्ली चुनावों को ध्यान में रखकर की गई है. यह बात भी अजीब है कि जज इस बात का आधार बनाते दिखते हैं कि वे न तो दिल्ली के स्थायी निवासी हैं और न ही दिल्ली के मतदाता. किसी नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाने से रोकने का यह वैध आधार नहीं है. यह नोट करना प्रासंगिक है कि आदेश में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि सरकार की ओर से चुनाव को लेकर कोई तर्क दिया गया है.
उनके वकील ने अदालत में तर्क दिया कि रैली के दौरान उन्होंने जो भी पढ़ा, वह संविधान की प्रस्तावना थी और उन्होंने लोगों को केवल यह समझाने का प्रयास किया कि सीएए का असर न केवल मुसलमानों पर पड़ेगा, बल्कि अनुसूचित जाति के लोगों और आदिवासियों पर भी पड़ेगा.
उनके भाषणों और आंदोलनों के बीच संबंध के प्रभावों को चुनावों से स्वत: जोड़ा गया है. हमें यह देखना होगा कि क्यों राज्य आजाद से (जो खुद भी वकील हैं) डरा हुआ है जिसका जमीनी स्तर पर काम मूलत: एससी/एसटी समुदाय के लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करना और राज्य की ओर से किए जा रहे भेदभाव का विरोध करना है.
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक आदेश, जो प्रदर्शन के अधिकार को मानता है और राज्य की कार्रवाईयों को मौलिक अधिकारों के विरुद्ध बताकर असंतोष व्यक्त करता है, वही आदेश ऐसी शर्तें लगाता है जिसमें आजाद को उत्तर प्रदेश में उनके घर पर, दिल्ली में मेडिकल चेक अप और प्रार्थना के लिए जामा मस्जिद जाने के दौरान पुलिस के घेरे में रखता है. निश्चित रूप से ऐसा कोई भी साक्ष्य रिकॉर्ड में नहीं है जो बताता हो कि वह ऐसी कोई कार्रवाई करेगा जिसकी वजह से स्वतंत्र रूप से घूमने के उसके अधिकारों पर इस तरह से आक्रमण किया जाएगा.
ये शर्तें न केवल सरकार के गलत कार्यों के खिलाफ एक नागरिक के असंतोष दर्ज करने के मूल अधिकार को कम करती है बल्कि देश की दशा के बारे में जनता को सूचित करने से भी रोकती है. सुप्रीम कोर्ट की ओर से कश्मीर से जुड़ी बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिकाओं में दिए गए फैसलों का आईना इस तरह के आदेशों में नजर आता है जहां राहत देने के लिए लगाई जा रही शर्तें खुद मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हैं, उदाहरण के लिए एमवाई तारिगामी का मामला.
ऐसे समय में जब संविधान पर हम भरोसा करते दिख रहा हैं, हमने देखा है कि राज्य की ओर से सत्ता के दुरुपयोग के मामलों में उच्च न्यायपालिका संविधान की भावनाएं बनाए नहीं रख पा रही हैं जिनमें छात्रों, अल्पसंख्यकों और विरोध प्रदर्शन के अधिकार का इस्तेमाल कर रहे नागरिकों के विरुद्ध हिंसा हुई और यहां तक कि कई जिन्दगियां चली गईं.
इन शर्तों को एक ओर रखते हुए यह देखकर खुशी होती है कि निचली न्यायपालिका से जुड़े अधिकारी इसे “रोकने के लिए हिंसा की प्रतीक्षा’ किए बगैर संविधान प्रदत्त अधिकारों के लिए खड़े हैं.
यह भी पढ़ें: जिस जामा मस्जिद से गिरफ्तार हुए थे चंद्रशेखर आजाद, फिर वहीं पहुंचे
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined