मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019वी.पी.सिंह: इतिहास का महानायक क्यों नहीं बन सका ये राजनीतिक सितारा

वी.पी.सिंह: इतिहास का महानायक क्यों नहीं बन सका ये राजनीतिक सितारा

राजनीति की धारा मोड़ने वाले वी.पी. राजनीतिक तौर पर बेहद अकेले रह गए

दिलीप सी मंडल
नजरिया
Updated:
विश्वनाथ प्रताप सिंह: अभागा मसीहा?
i
विश्वनाथ प्रताप सिंह: अभागा मसीहा?
(फोटो: Reuters)

advertisement

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को आजाद भारत के सबसे चमकदार सितारों में से एक होना चाहिए था. जिसने राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे कठिन लड़ाई लड़ी, रक्षा सौदों में दलाली के खिलाफ सत्ता से विद्रोह किया, जाति व्यवस्था को सबसे बड़ी चुनौती दी और सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ आमरण अनशन करके अपनी किडनी खराब कर ली. किडनी की तकलीफ से ही जिनकी जान गई, उस आदमी की मौत इतनी गुमनाम हुई कि कोई भी नेता वी.पी. सिंह के रास्ते पर चलने से पहले चार बार सोचेगा.

वी.पी. सिंह को उनकी जयंती पर कोई नेता याद नहीं करता. सोशल मीडिया पर बेशक कुछ लोग उनके नाम पर फूलमालाएं चढ़ाते हैं, लेकिन यह भी कोई आम चलन नहीं है.

वी.पी. सिंह का राजनीतिक-सामाजिक जीवन मुख्य रूप से तीन हिस्सों में विभाजित है.

  • पहला दौर एक जमींदार परिवार से निकल कर कांग्रेस की राजनीति में होना और मुख्यमंत्री तथा देश का वित्त मंत्री तथा रक्षा मंत्री बनना है. इसमें से उनका मुख्यमंत्री काल बागियों के खिलाफ अभियान के लिए जाना जाता है, जबकि वित्त मंत्री और रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने कॉरपोरेट करप्शन और रक्षा सौदों में दलाली के खिलाफ अभियान चलाया. इसी दौर में वे कांग्रेस से दूर हो गए.
  • उनके जीवन का दूसरा दौर प्रधानमंत्री के तौर पर रहा, जिस दौरान उनका सबसे प्रमुख और साथ ही सबसे विवादास्पद कदम मंडल कमीशन को लागू करने की घोषणा करना था. प्रधानमंत्री रहने के दौरान उन्होंने बाबा साहेब को भारत रत्न देने से लेकर उनकी जयंती पर छुट्टी देने और ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए स्वर्ण मंदिर जाकर माफी मांगने जैसे कदम उठाए. इस दौरान वे रिलायंस कंपनी के साथ सीधे टकराव में आए और धीरूभाई अंबानी को लार्सन एंड टुब्रो पर नियंत्रण जमाने से रोक दिया. राममंदिर आंदोलन के मुद्दे पर उन्होंने बीजेपी के सामने झुकने से मना कर दिया और इसी वजह से उनकी सरकार गिर गई.
  • अपनी जीवन के तीसरे अध्याय में वी.पी. सिंह संत की भूमिका में आ गए. वे कविताएं लिखने लगे और पेटिंग्स में हाथ आजमाया. लेकिन इस दौरान भी वे सामाजिक मुद्दों से जुड़े रहे. दिल्ली में झुग्गियों को उजाड़ने की कोशिशों का उन्होंने सड़कों पर उतरकर विरोध किया और सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ खड़े रहे.
सवाल उठता है कि वी.पी.सिंह इतिहास के महानायक क्यों नहीं बन पाए? उनसे कहां चूक होगई? बल्कि इस सवाल को यूं भी पूछा जा सकता है कि उन्हें महानायक बनाने से भारतीय इतिहास और समाज कहां और कैसे चूक गया?
विपक्षी राजनीति की लामबंदी दौरान (बाएं से ) चौधरी देवीलाल, अरुण नेहरू, चंद्रशेखर और वी.पी.सिंहफोटो : द क्विंट 

विश्वनाथ प्रताप सिंह के समर्थकों और विरोधियों दोनों को उनके बारे में एक बात समझ लेने की जरूरत है, कि सक्रिय राजनीति से अलग होने तक वी.पी. सिंह सबसे पहले नेता थे और हर नेता की तरह उनका लक्ष्य भी सत्ता में और सत्ता के शिखर पर होना था. इसलिए मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक और प्रधानमंत्री बने रहने के दौरान उनके कार्यों को अराजनीतिक नजरिए से नहीं देखा जा सकता. सत्ता में बने रहने के लिए जो कुछ करना पड़ता है, चुनाव जीतने के लिए जो भी समीकरण बनाने पड़ते हैं, जो भी इंतजाम करना होता है, उनसे वी.पी. सिंह अलग रहे होंगे, ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है.

सांप्रदायिकता को लेकर उनके निजी विचारों में शुचिता का तब कोई मतलब नहीं रह जाता, जब केंद्र में अपनी सरकार वे बीजेपी के समर्थन से चलाते हैं. केंद्र में बीजेपी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होती है, क्योंकि सरकार चलाने के लिए वामपंथी दलों का भी समर्थन जरूरी था, लेकिन राजस्थान में बीजेपी और जनता दल मिलकर सरकार चलाते हैं.

वी. पी. सिंह का नायकत्व यहां है

दरअसल इतिहास और परिस्थितियों ने वी.पी. सिंह से कुछ ऐतिहासिक कार्य करा लिए या वी.पी. सिंह ने कुछ ऐतिहासिक कार्यों को अंजाम दिया, जिसके लिए कोई उन्हें नायक तो कोई उन्हें खलनायक के तौर पर देखता है. मुश्किल यह है कि जो लोग उन्हें नायक के तौर पर देखते हैं, वे लोग छवि निर्माण करने में समक्ष लोग नहीं है. इसलिए उनकी नायक वाली छवि दबी रह जाती है और खलनायक वाली छवि उभर कर सामने आ जाती है क्योंकि छवि निर्माण के काम में सामाजिक तौर पर वही लोग आगे हैं, जो वी.पी. सिंह से नाराज हैं.

  • वी.पी. सिंह का नायकत्व इस बात में है कि उन्होंने रक्षा सौदों में हमेशा से चली आ रही दलाली और भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया. लेकिन वे इस मुद्दे को किसी तार्किक अंत तक नहीं ले जा पाए. अपने छोटे से कार्यकाल में उन्होंने रक्षा सौदों में करप्शन के मामलों की त्वरित जांच के लिए कोई ठोस काम नहीं किया. इसलिए उन पर यह आरोप है कि भ्रष्टाचार का आरोप उन्होंने राजनीतिक फायदे के लिए उछाला था.
  • वी.पी. सिंह का नायकत्व इस बात में है कि जब बीजेपी ने राममंदिर के नाम पर देश में सांप्रदायिकता भड़काने की मुहिम तेज की तो वे बीजेपी के आगे झुकने की जगह अड़कर खड़े हो गए. इस कारण बीजेपी ने उनकी अल्पमत सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई.
  • वी.पी. सिंह का नायकत्व इस बात में है कि उन्होंने भारत की तीन हजार से ज्यादा पिछड़ी जातियों को एक वर्ग में समेट दिया. इन जातियों को आरक्षण के साझा हित में बांध दिया. इसी दौरान बीएसपी के नेता कांशीराम मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू करवाने के लिए जनांदोलन चला रहे थे. लेकिन राजनीति में उनकी आवाज ने दम पकड़ना शुरू ही किया था. वी.पी. सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करके संविधान के अनुच्छेद 340 को जमीन पर उतार दिया, जो 26, जनवरी 1950 से संविधान की किताब में तो था, और देश की आधी से ज्यादा आबादी के मन में महत्वाकांक्षाएं जगा रहा था, लेकिन जमीन पर लागू नहीं था. इस अनुच्छेद में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान किया गया है. मंडल कमीशन का गठन इसी अनुच्छेद के तहत हुआ है.

....और वी. पी. सिंह ‘खलनायक’ बन गए

इस प्रश्न का जवाब इतिहास ही दे सकता है कि कोई और नेता प्रधानमंत्री होता तो क्या उन्हीं स्थितियों में वह मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करता? मेरा मानना है नहीं. यह काम विश्वनाथ प्रताप सिंह ही कर पाए. फिर भी चूंकि इतिहास की जुबां नहीं होती, इसलिए ऐसे सवालों का ऐसा जवाब हम कभी नहीं जान पाएंगे, जो हर किसी को संतुष्ट कर सके. जिस सत्य तक हमारी पहुंच है, वह यही है कि मंडल कमीशन लागू करने का काम वी.पी. सिंह के हाथों हुआ.

लेकिन इसी बिंदु पर विश्वनाथ प्रताप सिंह के पूरी तरह खलनायक बन जाना भी संपन्न होता है.

मंडल आयोग की सिफारशें लागू होते ही वी.पी. देश के एक वर्ग के खलनायक हो गए फोटो ः द क्विंट 

मंडल कमीशन लागू होते ही वह बुद्धिजीवी वर्ग जो कांग्रेस विरोध और भ्रष्टाचार विरोध के कारण वी.पी. सिंह का दीवाना था, उसने पलटी मार दी. वी.पी. सिंह अचानक से मीडिया के दुश्मन बन गए. उनके खिलाफ सैकड़ों लेख और समाचार छापे गए और कार्टून बनाए गए.

चूंकि मंडल कमीशन ने समाज को आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधी दो खेमों में बांट दिया था इसलिए पत्रकार, लेखक और बुद्धिजीवी भी दो खेमों में बंट गए. आरक्षण समर्थक बुद्धिजीवियों का कहने को एक खेमा तो था, लेकिन खेमा या तो खाली था, या फिर उसमें दो-चार लोग थे. लेकिन आरक्षण विरोधी बुद्धिजीवियों का खेमा भरा-पूरा था. छवि निर्माण की जंग वी.पी. सिंह बुरी तरह हार गए.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

आरक्षण लागू कर भी पिछड़ों के नेता नहीं बन सके वी.पी.

वी.पी. सिंह के साथ एक और समस्या थी. वी.पी. सिंह का उभार ऐसे समय में हो रहा था, जब उत्तर भारत की राजनीति में मझोली जातियां और एक हद तक दलित जातियां अपना हिस्सा तलाशने लगी थीं. वे इस स्थिति से संतुष्ट नहीं थीं कि कोई और उनके हित की बात कर दे. लोहियावाद की राजनीति के कारण पिछड़ी जातियों के कई नेता राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उभर चुके थे.

मध्यवर्ती जातियां, जो ओबीसी में भी शामिल थीं, अपने नेताओं की कीमत पर विश्वनाथ प्रताप सिंह को नेता मानने के लिए तैयार नहीं थी. इस कारण वी.पी. सिंह मंडल कमीशन लागू करने के बावजूद कभी भी पिछड़ी जातियों के नेता नहीं बन पाए. उनके प्रति पिछड़ों की अच्छी भावनाएं थीं, लेकिन अपनी जाति का नेता उन्हें हर हाल में चाहिए था. अगर वी.पी. सिंह ने पिछड़ों का समर्थन पाने के लिए मंडल कमीशन लागू किया, तो यह काम हो नहीं पाया.

इस तरह, हुआ यह कि वी.पी. सिंह अपना सवर्ण मध्यवर्गीय आधार तो गंवा बैठे, लेकिन जिन पिछड़ी जातियों के साथ आने की उम्मीद में उन्होंने यह सब किया, वे अपनी अपनी जातियों के नेताओं के पीछे लाइन में लग गईं. वी.पी. सिंह राजनीतिक तौर पर बेहद अकेले रह गए.

लेकिन, इस वजह से वी.पी. सिंह का महत्व कम नहीं हो जाता. जाने-अनजाने में वी.पी. सिंह ने भारत की राजनीति का चेहरा बदल दिया. मंडल कमीशन के जवाब मे बीजेपी ने राम रथयात्रा निकाल दी. इसके बाद भारतीय राजनीति पहले जैसी नहीं रही.

पिछड़ी जातियों का भारतीय राजनीति में उभार मंडल कमीशन के बाद ज्यादा संगठित तौर पर नजर आने लगा. इसकी वजह से समाज भी बदला. मंडल कमीशन की दूसरी सिफारिश – उच्च शिक्षा में आरक्षण- 2006 में एक और ठाकुर नेता अर्जुन सिंह ने लागू किया. इससे भारतीय कैंपस का चेहरा पहले की तुलना में लोकतांत्रिक बन गया. हर समाज और जाति के लोगों के लिए कैंपस के दरवाजे खुल गए. हालांकि इतिहास अर्जुन सिंह के साथ भी उतना ही निर्मम साबित हुआ. लेकिन वह एक और कहानी है.

ये भी पढ़ें - नौकरशाही में बाहरी भर्ती, संविधान और  तीन लाख छात्रों का हक

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 25 Jun 2018,05:35 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT