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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को आजाद भारत के सबसे चमकदार सितारों में से एक होना चाहिए था. जिसने राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे कठिन लड़ाई लड़ी, रक्षा सौदों में दलाली के खिलाफ सत्ता से विद्रोह किया, जाति व्यवस्था को सबसे बड़ी चुनौती दी और सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ आमरण अनशन करके अपनी किडनी खराब कर ली. किडनी की तकलीफ से ही जिनकी जान गई, उस आदमी की मौत इतनी गुमनाम हुई कि कोई भी नेता वी.पी. सिंह के रास्ते पर चलने से पहले चार बार सोचेगा.
वी.पी. सिंह को उनकी जयंती पर कोई नेता याद नहीं करता. सोशल मीडिया पर बेशक कुछ लोग उनके नाम पर फूलमालाएं चढ़ाते हैं, लेकिन यह भी कोई आम चलन नहीं है.
वी.पी. सिंह का राजनीतिक-सामाजिक जीवन मुख्य रूप से तीन हिस्सों में विभाजित है.
विश्वनाथ प्रताप सिंह के समर्थकों और विरोधियों दोनों को उनके बारे में एक बात समझ लेने की जरूरत है, कि सक्रिय राजनीति से अलग होने तक वी.पी. सिंह सबसे पहले नेता थे और हर नेता की तरह उनका लक्ष्य भी सत्ता में और सत्ता के शिखर पर होना था. इसलिए मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक और प्रधानमंत्री बने रहने के दौरान उनके कार्यों को अराजनीतिक नजरिए से नहीं देखा जा सकता. सत्ता में बने रहने के लिए जो कुछ करना पड़ता है, चुनाव जीतने के लिए जो भी समीकरण बनाने पड़ते हैं, जो भी इंतजाम करना होता है, उनसे वी.पी. सिंह अलग रहे होंगे, ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है.
सांप्रदायिकता को लेकर उनके निजी विचारों में शुचिता का तब कोई मतलब नहीं रह जाता, जब केंद्र में अपनी सरकार वे बीजेपी के समर्थन से चलाते हैं. केंद्र में बीजेपी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होती है, क्योंकि सरकार चलाने के लिए वामपंथी दलों का भी समर्थन जरूरी था, लेकिन राजस्थान में बीजेपी और जनता दल मिलकर सरकार चलाते हैं.
दरअसल इतिहास और परिस्थितियों ने वी.पी. सिंह से कुछ ऐतिहासिक कार्य करा लिए या वी.पी. सिंह ने कुछ ऐतिहासिक कार्यों को अंजाम दिया, जिसके लिए कोई उन्हें नायक तो कोई उन्हें खलनायक के तौर पर देखता है. मुश्किल यह है कि जो लोग उन्हें नायक के तौर पर देखते हैं, वे लोग छवि निर्माण करने में समक्ष लोग नहीं है. इसलिए उनकी नायक वाली छवि दबी रह जाती है और खलनायक वाली छवि उभर कर सामने आ जाती है क्योंकि छवि निर्माण के काम में सामाजिक तौर पर वही लोग आगे हैं, जो वी.पी. सिंह से नाराज हैं.
इस प्रश्न का जवाब इतिहास ही दे सकता है कि कोई और नेता प्रधानमंत्री होता तो क्या उन्हीं स्थितियों में वह मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करता? मेरा मानना है नहीं. यह काम विश्वनाथ प्रताप सिंह ही कर पाए. फिर भी चूंकि इतिहास की जुबां नहीं होती, इसलिए ऐसे सवालों का ऐसा जवाब हम कभी नहीं जान पाएंगे, जो हर किसी को संतुष्ट कर सके. जिस सत्य तक हमारी पहुंच है, वह यही है कि मंडल कमीशन लागू करने का काम वी.पी. सिंह के हाथों हुआ.
लेकिन इसी बिंदु पर विश्वनाथ प्रताप सिंह के पूरी तरह खलनायक बन जाना भी संपन्न होता है.
मंडल कमीशन लागू होते ही वह बुद्धिजीवी वर्ग जो कांग्रेस विरोध और भ्रष्टाचार विरोध के कारण वी.पी. सिंह का दीवाना था, उसने पलटी मार दी. वी.पी. सिंह अचानक से मीडिया के दुश्मन बन गए. उनके खिलाफ सैकड़ों लेख और समाचार छापे गए और कार्टून बनाए गए.
चूंकि मंडल कमीशन ने समाज को आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधी दो खेमों में बांट दिया था इसलिए पत्रकार, लेखक और बुद्धिजीवी भी दो खेमों में बंट गए. आरक्षण समर्थक बुद्धिजीवियों का कहने को एक खेमा तो था, लेकिन खेमा या तो खाली था, या फिर उसमें दो-चार लोग थे. लेकिन आरक्षण विरोधी बुद्धिजीवियों का खेमा भरा-पूरा था. छवि निर्माण की जंग वी.पी. सिंह बुरी तरह हार गए.
वी.पी. सिंह के साथ एक और समस्या थी. वी.पी. सिंह का उभार ऐसे समय में हो रहा था, जब उत्तर भारत की राजनीति में मझोली जातियां और एक हद तक दलित जातियां अपना हिस्सा तलाशने लगी थीं. वे इस स्थिति से संतुष्ट नहीं थीं कि कोई और उनके हित की बात कर दे. लोहियावाद की राजनीति के कारण पिछड़ी जातियों के कई नेता राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उभर चुके थे.
मध्यवर्ती जातियां, जो ओबीसी में भी शामिल थीं, अपने नेताओं की कीमत पर विश्वनाथ प्रताप सिंह को नेता मानने के लिए तैयार नहीं थी. इस कारण वी.पी. सिंह मंडल कमीशन लागू करने के बावजूद कभी भी पिछड़ी जातियों के नेता नहीं बन पाए. उनके प्रति पिछड़ों की अच्छी भावनाएं थीं, लेकिन अपनी जाति का नेता उन्हें हर हाल में चाहिए था. अगर वी.पी. सिंह ने पिछड़ों का समर्थन पाने के लिए मंडल कमीशन लागू किया, तो यह काम हो नहीं पाया.
लेकिन, इस वजह से वी.पी. सिंह का महत्व कम नहीं हो जाता. जाने-अनजाने में वी.पी. सिंह ने भारत की राजनीति का चेहरा बदल दिया. मंडल कमीशन के जवाब मे बीजेपी ने राम रथयात्रा निकाल दी. इसके बाद भारतीय राजनीति पहले जैसी नहीं रही.
पिछड़ी जातियों का भारतीय राजनीति में उभार मंडल कमीशन के बाद ज्यादा संगठित तौर पर नजर आने लगा. इसकी वजह से समाज भी बदला. मंडल कमीशन की दूसरी सिफारिश – उच्च शिक्षा में आरक्षण- 2006 में एक और ठाकुर नेता अर्जुन सिंह ने लागू किया. इससे भारतीय कैंपस का चेहरा पहले की तुलना में लोकतांत्रिक बन गया. हर समाज और जाति के लोगों के लिए कैंपस के दरवाजे खुल गए. हालांकि इतिहास अर्जुन सिंह के साथ भी उतना ही निर्मम साबित हुआ. लेकिन वह एक और कहानी है.
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Published: 25 Jun 2018,05:35 PM IST