नौकरशाही में नीति बनाने वाले संयुक्त सचिव स्तर पर बाहर से विशेषज्ञ लाने का केंद्र सरकार का पायलट प्रोजेक्ट संविधान की प्रस्तावना और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है.
भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में जहां आबादी सवा सौ करोड़ से ऊपर हो, हर व्यक्ति सीधे राज नहीं कर सकता. आधुनिक लोकतंत्र विभिन्न संस्थाओं के जरिये काम करता है. संसद, विधानसभाएं, न्यायपालिका, कार्यपालिका, चुनाव आयोग, सीएजी, वित्त आयोग, ये सब ऐसी ही संस्थाएं हैं.
यूपीएससी और राज्यों के लोक सेवा आयोग भी ऐसी ही संवैधानिक संस्थाएं हैं जिनका दायित्व नौकरशाही के लिए सलेक्शन करना है. ऐसी तमाम संस्थाओं के जरिये लोकतंत्र चलता है. इसलिए इन तमाम संस्थाओं की संरचना, उनके अधिकार और उनके कार्यभार संविधान द्वारा निर्धारित हैं.
संविधान में इन संस्थाओं की संरचना, अधिकार और कार्यभार तय होने का यह मतलब नहीं है कि उनमें कोई बदलाव नहीं हो सकता. संविधान कोई पवित्र धर्म ग्रंथ नहीं है. इसमें सौ से ज्यादा संशोधन हो चुके हैं. लेकिन संवैधानिक संस्थाओं के स्वरूप में कोई भी छेड़छाड़ मनमाने तरीके से नहीं की जा सकती. इसके लिए संविधान संशोधन प्रस्ताव विधिवत तरीके से संसद से और कई मामलों में विधानसभाओं से भी पारित होना चाहिए.
नौकरशाही के उच्च पदों- संयुक्त सचिव स्तर पर दस बाहरी लोगों को लाने के केंद्र सरकार के फैसले पर कई तरह के विवाद चल रहे हैं. सवाल उठता है कि क्या यह फैसला संविधान के प्रावधानों के अनुरूप है? क्या संविधान में बदलाव किए बगैर नौकरशाही में बाहरी लोग बिठाए जा सकते हैं? क्या यह यूपीएससी के अधिकारों का उल्लंघन है?
सबसे पहले तो जानते हैं कि यह प्रस्ताव दरअसल है क्या. केंद्र सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग यानी डीओपीटी ने हाल में अखबारों में विज्ञापन देकर संयुक्त सचिव पदों पर नौकरशाही से बाहर के लोगों के आवेदन मांगे हैं. ये अफसर 10 अलग-अलग मंत्रालयों में नियुक्त किए जाएंगे. इन अफसरों की नियुक्ति तीन साल के लिए होगी, जिसे बाद में बढ़ाकर पांच साल किया जा सकता है. इन्हें संयुक्त सचिव स्तर का वेतन दिया जाएगा. ये लोग निजी या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भी हो सकते हैं.
इन लोगों को यह बताकर लाया जा रहा है कि सरकार नीतियां बनाने वाले पदों पर विशेषज्ञों को लाना चाहती है. इसे एक नमूने यानी पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर लाया जा रहा है, जिसका बाद में विस्तार हो सकता है. इस प्रस्ताव पर सरकार आगे बढ़ चुकी है.
कई स्तरों पर हो रहा है विरोध
इसका विरोध कई स्तरों पर हो रहा है. ये विरोध सरकार के बाहर और अंदर दोनों तरफ से हैं. पहला विरोध अफसरों की लॉबी की तरफ से है. हालांकि यह विरोध मुखर नहीं है. अफसर लॉबी के हिसाब से यह प्रस्ताव उनके क्षेत्र में हो रहे किसी अतिक्रमण की तरह है.
दूसरा विरोध राजनीतिक दलों की ओर से है. कांग्रेस की यह शिकायत है कि इस तरह की नियुक्तियों के जरिए सरकार नौकरशाही में संघ की विचारधारा के लोगों को बैकडोर से लाना चाहती है. राष्ट्रीय जनता दल ने इस प्रस्ताव को नौकरशाही के निजीकरण के तौर पर लिया है और पूछा है कि क्या आगे चलकर प्रधानमंत्री भी बगैर चुनाव के बाहर से लाए जाएंगे.
केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान चाहते हैं कि अगर समान योग्यता वाले विशेषज्ञ उपलब्ध हों तो अनुसूचित जाति और जनजाति के कैंडिडेट्स को प्राथमिकता मिले. बीजेपी के सांसद उदित राज चाहते हैं कि इन नियुक्तियों में आरक्षण लागू हो.
सीपीएम ने कहा है कि इस रास्ते से सरकार सिविल सर्विस में आरक्षण खत्म करना चाहती है. ऐसी शिकायतें भी हैं कि इस रास्ते से निजी कंपनियों के लोग सरकार के अंदर घुस आएंगे और सरकार के अंदर अपनी कंपनियों के हितों का ध्यान रखेंगे.
इस प्रस्ताव पर आपत्तियां कई तरह की हैं लेकिन प्रस्तुत आलेख में इस प्रस्ताव के सिर्फ संवैधानिक पहलुओं पर ही चर्चा की जाएगी.
भारत और राज्य सरकारों में नौकरशाही कैसी होगी
भारत और राज्य सरकारों में नौकरशाही कैसी होगी, उसका जिक्र संविधान के अनुच्छेद 315 से 323 के बीच है. इसमें केंद्रीय लोकसेवा आयोग और राज्यों के लोकसेवा आयोग की जिक्र है, जिसे देश में नौकरशाहों की नियुक्ति का जिम्मा सौंपा गया है.
लोकसेवा आयोग की संरचना और उसके अधिकारों का जिक्र इन अनुच्छेदों में हैं. खासकर अनुच्छेद 320 कहता है कि केंद्रीय और राज्य सेवाओं में नियुक्ति लोकसेवा आयोगों को जरिए होगी. संयुक्त सचिव पद नौकरशाही का एक ऐसा स्थान है, जिसपर अब तक वही अफसर आते हैं, जिनका केंद्रीय सेवा परीक्षा और इंटरव्यू के जरिए सलेक्शन हुआ हो, और जिन्होंने इस सेवा पर रहते हुए पद के लायक सिनियॉरिटी हासिल कर ली हो. सिविल सर्विस में शामिल होने के लिए हर साल लाखों स्टूडेंट्स तैयारी करते हैं. इस साल तीन लाख से ज्यादा कैंडिडेट्स ने सिविल सर्विस का प्रिलिमिनरी एक्जाम दिया है.
नौकरशाही के पदों पर बाहर से अफसर लाने के लिए संविधान में संशोधन किया जाना चाहिए. संयुक्त सचिव का पद सलाहकार या विशेषज्ञ या ओएसडी जैसा कोई पद न होकर नौकरशाही की संरचना के अंदर का पद है. इसलिए सिर्फ सरकार के चाहने भर से इसे बाहर से भरना उचित नहीं है. सरकार को अगर लगता है कि नौकरशाही का वर्तमान टैलेंट काफी नहीं है, या किसी और कारण से बाहर से नौकरशाही में टैलेंट लाना चाहिए, तो उसे संविधान में बदलाव करना चाहिए. इसके लिए उसे विधेयक लाना चाहिए और संसद में उसे पारित कराना चाहिए.
केंद्र सरकार के इस कदम का दूसरा संवैधानिक पक्ष आरक्षण को लेकर है. यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही ‘सामाजिक न्याय’ को शामिल किया गया है. यानी हमारे संविधान निर्माता इस बात को काफी प्राथमिकता दे रहे थे कि राष्ट्र निर्माण में हर समुदाय, खासकर वंचित समुदायों की हिस्सेदारी सुनिश्चित हो.
संविधान के अनुच्छेद 16(4) में इस बात का प्रावधान है कि अगर सरकारी सेवा के किसी भी स्तर पर समाज के वंचित तबकों की पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं है तो सरकार आरक्षण का प्रावधान करेगी. केंद्रीय सेवा में संयुक्त सचिव पद पर वंचित समूहों की हिस्सेदारी का अध्ययन के बिना और वंचित समूहों की ‘पर्याप्त हिस्सेदारी’ सुनिश्चित किए बगैर, केंद्र सरकार संयुक्त सचिवों की नियुक्ति कर रही है. सरकार ने इन पदों के लिए जो विज्ञापन जारी किया है, उसमें आरक्षण का कोई जिक्र नहीं है. यह संविधान के अनुच्छेद 16(4) का उल्लंघन है.
यह अनुच्छेद संविधान के मौलिक अधिकारों के अध्याय का हिस्सा है और इस नाते कहा जा सकता है कि सरकार संयुक्त सचिवों की जिस तरीके से नियुक्ति कर रही है, वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. इसके अलावा, यह प्रस्ताव संविधान के अनुच्छेद 340, 341 और 342 का भी उल्लंघन करता है कि जिसके जरिए क्रमश: ओबीसी, एससी और एसटी को सरकारी सेवाओं में आरक्षण का रास्ता बनता है.
इन आपत्तियों का यह अर्थ नहीं है कि भारतीय नौकरशाही में सब कुछ अच्छा ही है और उसमें सुधार की कोई जरूरत नहीं है. नौकरशाही में हर तरह की प्रतिभा के आने का रास्ता खुला होना अच्छी बात है. लेकिन यह सब किसी नियम के तहत होना चाहिए. और ऐसा कुछ भी करते समय संविधान का पालन होना चाहिए.
(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं)
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