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साल 2023 अपना सफर लगभग खत्म करने वाला है. हमारे दिमाग में जैसे ही साल के आखिरी दिन का खयाल आता है, एक अलग तरह की घबराहट महसूस होती है. यह हम सब के लिए आम है, अचानक ऐसा लगता है कि पूरा साल इतनी तेजी से कैसे निकल गया.
क्या हम जनवरी में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) द्वारा नोटबंदी को वैध करार देने पर चर्चा नहीं कर रहे थे? क्या यह कुछ दिन पहले की बात नहीं लगती, जब भारत में तलाक की कार्यवाही को इसके लिए एक नया आधार पेश करके तेज कर दिया गया था?
यकीनन, भारतीय कानूनी प्रणाली में इस साल कई मील के पत्थर देखे गए, जो आने वाले दिनों में भारत के जुडिशियल लैंडस्केप को काफी हद तक प्रभावित करेंगे.
4:1 के बहुमत के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि 2016 में 500 और 1000 रुपए के नोटों को बंद करने का फैसला संवैधानिक था और यह वैधता, आनुपातिकता और जरूरत की कसौटी पर खरा उतरता है.
कोर्ट ने पाया कि सरकार नोटों का विमुद्रीकरण करते वक्त RBI अधिनियम का पालन कर रही थी. काले धन के फैलाव और मनी लॉन्ड्रिंग को रोकने के उद्देश्य यह एक सही फैसला था.
आखिरी में पुराने नोटों के आदान-प्रदान के लिए 52-दिन का वक्त किसी भी अन्य मनी लॉन्ड्रिंग को रोकने की जरूरत के हित में थी. हालांकि, जस्टिस नागरत्ना ने अपनी असहमति में इस बात पर कहा कि नोटबंदी जैसे गंभीर मुद्दों को केवल संसद के कानून के जरिए से बनाया जाना चाहिए, केवल इसके घोषित उद्देश्यों के आधार पर कानूनी नहीं कहा जा सकता है.
इस साल, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक और ऐतिहासिक फैसले में इस बात पर जोर दिया कि आर्टिकल 21 दिए गए व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार में 2018 इच्छामृत्यु दिशानिर्देशों को सुव्यवस्थित करते हुए सम्मान के साथ मरने का अधिकार भी शामिल है.
कोर्ट ने पैसिव यूथनेसिया (Passive Euthanasia) की अनुमति दी, मतलब "एडवांस मेडिकल डायरेक्टिव्स" के सख्त अनुपालन में उपचार में तेजी लाकर या उसे वापस लेकर किसी व्यक्ति को मरने की अनुमति दी गई.
चुनाव आयोग की नियुक्तियों पर फिर से विचार करने की मांग पिछले कुछ वक्त से लगातार हो रही है. सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों का चयन करने के लिए प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के चीफ जस्टिस को शामिल करते हुए एक निकाय बनाने की गुजारिश की.
नियुक्तियों के प्रभारी, सत्तारूढ़ सरकार की पिछली एकतरफा प्रणाली के खिलाफ यह एक बहुत जरूरी सुरक्षा थी. हालांकि, अदालत ने संसद द्वारा नियुक्तियों को संहिताबद्ध करने वाला कानून लागू होने तक केवल एक अस्थायी उपाय के रूप में इस निकाय के गठन का आदेश दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने भारत में तलाक कानूनों में दो अहम बदलाव किए. सबसे पहले: विवाह का पूरी तरह विघटन अब तलाक के लिए एक आधार के रूप में मान्यता प्राप्त है. और दूसरा: हिंदू कानून के तहत तलाक चाहने वाले जोड़ों को अब 6 महीने के जरूरी "कूलिंग पीरियड" से गुजरने की जरूरत नहीं है.
इससे पहले, हिंदू विवाह अधिनियम, 1956 के तहत तलाक के लिए आवेदन करने वाले जोड़ों को अपने तलाक को अंतिम रूप देने से पहले 6 महीने तक इंतजार करना पड़ता था.
इसलिए, शादी के पूरी तरह से टूटने की स्थिति में, न्यायालय विवेक का प्रयोग कर सकते हैं और इस जरूरी कूलिंग पीरियड को माफ कर सकते हैं.
गोवा विश्वविद्यालय के एक कर्मचारी की बर्खास्तगी आदेश के खिलाफ अपील पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2013 ("PoSH एक्ट") वास्तव में एक 'हितकारी' कानून है, लेकिन इसके कार्यान्वयन में गंभीर खामियां हैं.
इन खामियों को संबोधित करते हुए, कोर्ट ने निर्देश दिया कि सभी केंद्र और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके सभी मंत्रालयों, विभागों, प्राधिकरणों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में एक ICC गठित हो और इसकी PoSH एक्ट के प्रावधानों के तहत सख्ती से पालन होनी चाहिए.
इसके अलावा, संबंधित अधिकारियों को यह तय करना चाहिए कि PoSH एक्ट के बारे में सभी के लिए आसानी से जानकारी उपलब्ध हो और वक्त-वक्त पर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया जाए.
मुख्य रूप से यह मानते हुए कि वैवाहिक संबंध में प्रवेश करने का अधिकार यौन रुझान के आधार पर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि नॉन-हेट्रोसेक्सुअल जोड़ों को कानूनी दर्जा देने का दायित्व विधायिका पर है.
हालांकि, बेंच ने कहा कि विधायिका नॉन-हेट्रोसेक्सुअल जोड़ों के बीच नागरिक संघ की सुविधा के लिए एक संहिता तैयार करती है.
जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के आर्टिकल 370 को रद्द करने के संसद के 2019 के फैसले ने इसे करने के तरीके और इसके घोषित उद्देश्यों के बारे में बहुत विवाद पैदा कर दिया था. इस फैसले को चुनौती देने वाली एक अपील पर सुनवाई करते हुए, कोर्ट ने माना कि निरस्तीकरण का कार्य कानूनी रूप से वैध था और राष्ट्रपति वास्तव में अनुच्छेद को निरस्त करने की अपनी शक्तियों के दायरे में थे.
आर्टिकल 370 को हटाने का उद्देश्य बचे भारत के साथ जम्मू और कश्मीर राज्य के क्रमिक और सहयोगात्मक एकीकरण को सक्षम करना था और 2019 के फैसले ने इसे बरकरार रखा. कोर्ट को फैसले में कोई अवैधता नहीं नजर आई क्योंकि जम्मू और कश्मीर ने 1947 में भारत संघ में शामिल होकर खुद को "आंतरिक संप्रभुता" से मुक्त कर लिया था और जम्मू और कश्मीर का मौजूदा संविधान निष्क्रिय था.
सूची किसी भी तरह से संपूर्ण नहीं है और भारतीय न्यायपालिका अपनी कई शाखाओं के जरिए पूरे 2023 तक भारत के कानूनी ढांचे को ढालती रही. हालांकि, उपरोक्त फैसला नागरिक के रूप में हम में से सभी के लिए अहम है और आने वाले वक्त में कानून हमारे विकास में योगदान करेंगे.
(यशस्विनी बसु बेंगलुरु की वकील हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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