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इसी साल फिलाडेल्फिया के इंडिपेंडेंस हॉल में चीफ जस्टिस एनवी रमना ने अपने भाषण में यह टिप्पणी की थी. जस्टिस रमना जल्द ही रिटायर होने वाले हैं. विडंबना है कि उन्होंने लोगों से आजादी के लिए खुद को समर्पित करने की अपील उस दौर में की है जब नागरिक समाज के कुछ लोग ठीक वैसा ही कर रहे हैं- वे “स्वतंत्रता और लोकतंत्र” की रक्षा करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उन्हें अदालतों से फटकार मिल रही है. उनके खिलाफ कार्रवाई हो रही है.
पूर्व सांसद एहसान जाफरी (Zakia Jafri) को 2002 में गुजरात दंगों के दौरान जिंदा जला दिया गया था, चूंकि सरकारी मदद की उनकी गुहार को अनसुना कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने जकिया एहसान जाफरी बनाम गुजरात राज्य मामले में एहसान जाफरी की बीवी जकिया जाफरी की जांच की मांग को ठुकरा दिया है.
अदालत ने यह टिप्पणी भी की कि जो लोग राज्य के उच्चाधिकारियों पर मिलीभगत का आरोप लगा रहे थे और उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे थे और इंसाफ की लड़ाई में जकिया जाफरी की मदद कर रहे थे, वे लोग वास्तव में "कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग" में "शामिल" हैं. उन्हें “कटघरे में खड़ा करने और कानून के मुताबिक उनके खिलाफ कार्रवाई करने” की जरूरत है.
• इसमें कोई विवाद नहीं है कि जकिया ने अपने पति को खोया है. उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया था क्योंकि वह उन लोगों की जांच करवाना चाहती थीं, जिन लोगों पर उनके पति की जिंदगी और आजादी की रक्षा करने का दायित्व था.
• एपेक्स कोर्ट के फैसले के पैरा 88 में कहा गया है, उस विधवा की मदद करने वाले लोगों को “कटघरे में खड़ा” किया जाना चाहिए. यह टिप्पणी व्याख्या से परे है.
• अगर आम लोगों को आजादी और लोकतंत्र की रक्षा करने वाला सिपाही बनाने की मंशा है, जैसा कि चीफ जस्टिस ने कहा भी है, तो यह जरूरी है कि न्यायपालिका को कभी भी उन लोगों का विरोधी नहीं होना चाहिए जो वास्तव में "सत्ता से सच बोलने" की हिम्मत करते हैं.
फैसले के कुछ घंटों के भीतर, जिसने राज्य सरकार के तत्कालीन मुखिया को क्लीन चिट दे दी है, गुजरात पुलिस ने कमाल की तेजी दिखाते हुए एक्टिविस्ट्स और प्रशासन के कथित व्हिसिलब्लोअर्स के खिलाफ एक लंबी चौड़ी एफआईआर दर्ज कर दी. और जैसा कि अदालत ने कहा था, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया.
दिलचस्प बात यह है कि शिकायतकर्ता वह नहीं है जिसके खिलाफ जकिया, एक्टिविस्ट्स या व्हिसिलब्लोअर ने “कहाड़ी खौलाए” रखी थी (अदालत ने इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल किया है). बल्कि वह अहमदाबाद शहर के क्राइम ब्रांच का पुलिस इंस्पेक्टर है.
अब उन पुलिस वालों की तारीफ की जानी चाहिए जिन्होंने 450 पन्नों के अदालत के फैसले को झटपट पढ़ा और उसे 10 पन्नों में समेटकर एफआईआर दर्ज की. फिर तीस्ता सीतलवाड़ के मुंबई स्थित घर पहुंचकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया. मैं आगे जो लिखने वाला हूं, उसे वे लोग आसानी से समझ सकते हैं जिन्होंने हिंदी काव्य शास्त्र में अलंकारों को पढ़ा है. इसे वे अतिश्योक्ति अलंकार कह सकते हैं कि अभी सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के लिखे फैसले की स्याही सूखी भी न थी, कि मुंबई में तीस्ता को गिरफ्तार कर लिया गया. यह बात और है कि फिलहाल यह पता नहीं चला है कि इस फैसले को तीनों में से किसने लिखा है.
जकिया जाफरी ने 2002 के गुजरात दंगों में राज्य सरकार के उच्चाधिकारियों की कथित मिलीभगत की आपराधिक जांच कराने की मांग की थी जिसके बाद यह मामला उठा. इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया था और एसआईटी ने यह निष्कर्ष दिया था कि इस मामले में मिलीभगत का कोई सुराग नहीं मिला है. मेजिस्ट्रेट ने इस मामले में ‘क्लोजर’ रिपोर्ट को मंजूर कर लिया. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को चुनौती दी गई थी.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में एक विधवा और अन्य असंतुष्ट लोगों (पैरा 79) के “दुस्साहस” का जिक्र है कि कैसे उन्होंने सार्वजनिक रूप से किसी पर आरोप लगाने की “गुस्ताखी” की (पैरा 88) जोकि एसआईटी की जांच में पूरी तरह से झूठे पाए गए. मैं व्यक्तिगत रूप से इस बात से स्तब्ध हूं कि लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध एक संवैधानिक अदालत के शब्दकोष में ऐसे शब्द शुमार हैं.
सुप्रीम कोर्ट इस बात की जांच कर रहा था कि क्या क्रिमिनल कोर्ट ने एसआईटी की "क्लोजर" रिपोर्ट को मंजूर करके, सही किया था. जब तक अदालत ने अपना फैसला नहीं सुनाया था, तब तक शिकायतकर्ता या उसकी सहायता करने वालों के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज नहीं की गई थी. न ही उन पर जालसाजी या किसी भी गलत काम का आरोप लगाया गया था, जिसका अब एफआईआर में जिक्र किया गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने खुद कहा है कि ये घटनाएं एक दशक पहले की हैं. ऐसी परिस्थितियों में, जैसा कि एपेक्स कोर्ट के फैसले के पैरा 88 में कहा गया है, उस विधवा की मदद करने वाले लोगों को “कटघरे में खड़ा” किया जाना चाहिए. यह टिप्पणी व्याख्या से परे है. इस फैसले के कुछ ही घंटों बाद जिस तरह से कार्यपालिका ने जकिया की “मदद” करने वालों को गिरफ्तार और जेलबंद किया, उसका असर उन सभी लोगों पर पड़ेगा जो इंसाफ की तलाश में अदालतों का दरवाजा खटखटाते हैं. इस फैसले के बाद लोग अपने प्राकृतिक और कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल करने से हिचकिचा सकते हैं क्योंकि उन्हें अपने खिलाफ कानूनी कार्रवाई का खौफ होगा. कानूनी भाषा में जिसे “चिलिंग इफेक्ट” कहा जाता है.
यह माना गया है कि लोगों को झूठे आरोप लगाने से हतोत्साहित किया जाना चाहिए, खासकर तब जब संबंधित व्यक्ति उच्च संवैधानिक पदों पर आसीन हो. हालांकि, अगर अदालत ने कार्यपालिका को लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की अवांछित सलाह देने से खुद को रोक लिया होता तो एक बड़ा सार्वजनिक हित पूरा होता.
आखिरकार वह सिर्फ एक जांच रिपोर्ट की समीक्षा कर रहा था, और वह भी, जिस पर संबंधित अदालत पहले ही कार्रवाई कर चुकी थी. मजिस्ट्रेट, जिनके पास वह रिपोर्ट थी, उसने उस विधवा की सहायता करने वालों को "कठघरे" में खड़ा करने की जरूरत नहीं महसूस की थी.
हालांकि सच्चाई यह है कि ऐसे बहुत सी वजहें होती हैं कि औरतें आपराधिक मामलों को बीच में छोड़ देती हैं या उनमें हार जाती हैं. न्यायिक व्यवस्था की प्रकृति ऐसी है कि किसी को भी तोड़कर रख सकती है. इसके अलावा पति-पत्नी के बीच आर्थिक ताकत का बंटवारा असमान होता है. फिर समाज उन पर इस बात का दबाव डालता है कि भूल जाओ और आगे बढ़ो.
इन सब बातों के चलते वे इंसाफ की लड़ाई में पिछड़ जाती हैं. तिस पर अगर अदालत यह कह दे कि ऐसी औरत को “कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए” क्योंकि उसने अपने पति के खिलाफ आपराधिक आरोप लगाने की हिम्मत की, चूंकि जांच और/या मुकदमे के दौरान पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं तो इससे औरतें आगे बढ़कर इंसाफ मांगने से हिचकिचाएंगी. वे चुपचाप घरेलू हिंसा और उत्पीड़न झेलती रहेंगी.
सार्वजनिक जीवन जीने वाले नेताओं में अप्रिय हालात से लड़ने की ताकत होती है. उनके पास तमाम संसाधन होते हैं और वे खुद पर लगने वाले आरोपों से राजनैतिक ही नहीं, कानूनी रूप से भी लड़ सकते हैं. उनकी आखिरी जरूरत यह होती है कि अदालतें भी उनकी जय जयकार करें.
दूसरी तरफ आम लोग अति संवेदनशील, कमजोर होते हैं. अगर उन्हें आजादी और लोकतंत्र की रक्षा करने वाला सिपाही बनाने की मंशा है, जोकि चीफ जस्टिस ने कहा भी है, तो यह जरूरी है कि न्यायपालिका को कभी भी उन लोगों का विरोधी नहीं होना चाहिए जो वास्तव में "सत्ता से सच बोलने" की हिम्मत करते हैं.
इस फैसले और कार्रवाई करने की अपील ने "सिटिजन वॉरियर्स" के आइडिया को गहरी चोट पहुंचाई है जिसे चीफ जस्टिस ने बहुत अच्छी तरह से पेश किया था!
मैंने अपनी बात की शुरुआत उस टिप्पणी से की थी जो चीफ जस्टिस रमना ने अपने विदेशी दौरे में साझा की थी. ज्यादातर चीफ जस्टिस अपने रिटायरमेंट के आखिरी दिनों में ऐसे विदेशी दौरे करते रहते हैं. यह परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है. लेकिन यह याद किया जा सकता है कि चीफ जस्टिस सर्व मित्र सीकरी ने जब केशवानंद भारती मामले में 13 जजों वाली संवैधानिक पीठ की अध्यक्षता की थी, तो उनके सामने भी विदेशी दौरों और अपने नजदीकी रिटायरमेंट का दबाव था. उस फैसले ने भारत के गणतंत्र का बुनियादी ढांचा मजबूत किया था और जस्टिस सीकरी ने रिटायरमेंट के एक दिन पहले वह फैसला सुनाया था. इस बात के लिए जस्टिस सीकरी को आज भी याद किया जाता है. तो, जस्टिस रमना, आप क्या चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ी आपको कैसे याद रखे?
(लेखक दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले सीनियर एडवोकेट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @advsanjoy है. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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