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लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में.
दिल की गहराइयों तक उतरकर जहन को झकझोर देने वाला ये शेर कहा है मौजूदा दौर के सबसे मशहूर शायर डॉ. बशीर बद्र ने.
पिछले दिनों दिल्ली से अलवर जाते हुए जयपुर हाई-वे पर मैंने एक ट्रक के पीछे फिर वही चर्चित शेर लिखा देखा और मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई.
बशीर साहब ये शेर कॉरपोरेट दफ्तरों में इस्तीफे के वक्त लिखी जाने वाली ई-मेल से लेकर गांव-कस्बों में विदाई के SMS तक की रेंज कवर करता है. गजल के कुछ और शेर कुछ यूं हैं:-
बशीर साहब के अल्फाजों में अहसासों की वो तर्जुमानी देखने को मिलती है कि बड़ा से बड़ा उनका मुरीद हो जाए. 2 जुलाई, 1972 को हुए शिमला समझौते के वक्त पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को डॉ. बशीर बद्र का ये शेर सुनाया था.
दुश्मनी जमके करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त बन जाएं तो शर्मिंदा ना हों
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
ना जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए.
कहते हैं कि बशीर साहब का सदाबहार शेर इंदिरा गांधी के डेस्क पर मौजूद था. गजल गायकी के बादशाह कहे जाने वाले जगजीत सिंह के साथ डॉ. बशीर बद्र का बड़ा रूहानी रिश्ता रहा. एक इंटरव्यू में जगजीत कहते हैं:
‘‘सादे अल्फाजों में जिंदगी की गहरी फिलॉसफी कह जाना डॉ. बशीर बद्र की सबसे बड़ी खूबी थी’.
अगर शायरी में जरा भी दिलचस्पी है, तो कभी ना कभी आपने भी किसी ना किसी के लिए कहा ही होगा.
डॉ. बशीर बद्र ने जिंदगी का लंबा हिस्सा मेरठ में पढ़ाते हुए बिताया.
15 फरवरी 1935 को अयोध्या में पैदा हुए बशीर बद्र ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की. वो सात साल की उम्र से ही शेरो-शायरी करने लगे थे. देश और विदेशों में मुशायरों की जान रहे डॉ. बशीर बद्र को 1999 में पद्मश्री से नवाजा गया.
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