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मिर्जा गालिब : जिसकी शायरी में जिंदगी अपना फलसफा ढूंढती है 

गालिब को सुनिए, वही मजा आएगा जो पिज्जा-बर्गर खाते-खाते अचानक मां के हाथ का परांठा खाने से आता है.

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मिर्जा असदुल्लाह खां गालिब. ये सिर्फ एक नाम नहीं, पूरी कायनात है, पूरा यूनिवर्स जिसमें उर्दू और फारसी जुबान अपनी तमाम नजाकत, नफासत, कैफियत, शिद्दत, इश्क-ओ-मुहब्बत, पेचीदगी, रवानगी, रोमांस और सूफीज्म के साथ इठलाती घूमती हैं. गालिब सिर्फ एक नाम नहीं, वो ब्रांड है, जो WhatsApp के इन-बॉक्स में गिरे किसी लावारिस, अजनबी या झूठे-सच्चे शेर को भी लाजवाब समझने की एक वजह दे देता है.

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गालिब की पैदाइश 27 दिसंबर, 1797 को आगरा में हुई थी. यानी करीब सवा दो सौ साल पहले. लेकिन गालिब के मिसरे कहावतों और मुहावरों की शक्ल में आज भी रोजमर्रा की बोलचाल में चहलकदमी करते हैं. इम्तिहान के किसी खराब नतीजे या फिर दफ्तर में हुए खराब अप्रेजल के बाद आपने किसी दोस्त को ये कहते सुना ही होगा:

हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,

दिल के खुश रखने को 'गालिब' ये खयाल अच्छा है.

या फिर

उन के देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक,

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है.

और तो और

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,

बहुत निकले मिरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले.

मैं तो कभी-कभी ये भी गुनगुना लेता हूं

न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता,

डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता.

दिल्ली के आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफर अपने वक्त के मशहूर शायर भी थे. उनके जमाने यानी 18वीं शताब्दी में जब देश में मुगलिया सल्‍तनत का चांद डूब रहा था और अंग्रेजी हुकूमत का सूरज सिर उठा रहा था, उसी दौरान गालिब, दाग, मोमिन और जौक जैसे शायरों ने अपने बेहतरीन कलाम लिखे. बहादुरशाह जफर ने ही गालिब को मिर्जा नोशा की उपाधि दी थी जिसके बाद गालिब के साथ ‘मिर्जा ’ जुड़ गया.

गालिब को बहुत लोगों ने पढ़ा, उन पर लिखा, रिसर्च की, उनकी शायरी के संकलन छापे. लेकिन मौजूदा वक्त में सबसे पहले याद आता है जाने-माने फिल्मकार और गीतकार गुलजार का 1988 में दूरदर्शन पर आया सीरियल मिर्जा गालिब. उसकी शुरुआत गुलजार कुछ यूं करते हैं:

मिसरा गालिब का, कैफियत गुलजार की

गुलजार, यानी ग्रेट गुलजार साहब, वो खुद को मिर्जा गालिब का मुलाजिम यानी सेवक मानते हैं. वो तो यहां तक कहते हैं कि वो गालिब की पेंशन ले रहे हैं, जो खुद गालिब नहीं ले पाए. एक किस्सा मुझे याद आता है. एक बार विदेश में कहीं, मशहूर गीतकार जावेद अख्तर किसी शो में लोगों से मुखातिब थे. बात ही बात में उन्होंने कहा- जी ढूंढता है फिर वही फुरसत के, रात-दिन- मिर्जा गालिब के इस शेर में...

बात अभी अधूरी ही थी कि दर्शकों में से एक महिला खड़ी हुई और बोली, '‘जावेद साहब, अब खुद एक शायर हैं. क्या इतना भी नहीं जानते कि ये गालिब ने नहीं बल्कि गुलजार ने लिखा है.''

दरअसल मिर्जा की एक गजल है-

मुद्दत हुई है यार को मेहमां किये हुए,

जोश-ए-कदह से बज्म-ए-चिरागां किए हुए.

उसी नज्म का एक शेर है-

जी ढूंढता है फिर वही फुर्सत के, रात-दिन

बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां किए हुए.

गुलजार साहब ने 1975 में बनायी अपनी फिल्म मौसम के एक गाने का मुखड़ा इसी शेर को बना दिया.

दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन,

बैठे रहे तसव्वुर-ए-जानां किए हुए.

दिल ढूंढता है..

जाड़ों की नर्म धूप और आंगन में लेट कर

आंखों पे खींचकर तेरे आँचल के साये को

औंधे पड़े रहें कभी करवट लिये हुए

दिल ढूंढता है.. फिर वही...

लता मंगेश्कर और भूपिंदर सिंह की आवाज में ये गाना खासा हिट रहा. इस कदर हिट की मिसरा गालिब का था, लेकिन गुलजार का हो गया.

गुलजार का लिखा कजरारे, कजरारे, कजरारे तेरे नैना याद है आपको? अरे वही, अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय वाला कजरारे. उसका एक अंतरा है-

तुझसे मिलना पुरानी दिल्ली में,

छोड़ आये निशानी दिल्ली में,

बल्ली-मारां से दरीचे के तलक,

तेरी-मेरी कहानी दिल्ली में.

वही पुरानी दिल्ली और बल्ली-मारां... यानी गालिब का असर.

गुलजार के सीरियल में गालिब का रोल अदा किया था मशहूर फनकार नसीरुद्दीन शाह ने. रोल क्या अदा किया था, छोटे पर्दे पर गालिब को जिंदा कर दिया था. गालिब के कैमरे से खिंची तो कोई तस्वीर है नहीं, लेकन जैसे अकबर का जिक्र होते ही पृथ्वीराज कपूर की शक्ल सामने आती है, वैसे ही मिर्जा गालिब की बात छिड़ते ही नसीरुद्दीन साहब का चेहरा सामने आ जाता है.

सीरियल से पहले गुलजार साहब मिर्जा गालिब पर फिल्म बनाना चाहते थे और उनकी पहली पसंद थे नामचीन अदाकार संजीव कुमार. लेकिन दिल का दौरा पड़ने से संजीव कुमार की मौत हो गई और फिल्म भी ठंडे बस्ते में चली गई. बाद में सीरियल बना और मिर्जा को जीने की मेरी हसरत पूरी हुई.
नसीरुद्दीन शाह, एक्टर

नसीरुद्दीन शाह ने एक इंटरव्यू में कहा था कि मिर्जा गालिब की शायरी इतनी गहरी है कि दिमाग की नसें खोल देती है. एक और बनगी देखिए:

गालिब की हाजिरजवाबी और फाकामस्ती के किस्से भी खासे मशहूर हैं लेकिन उनका जिक्र कभी और.

15 फरवरी, 1869 को मिर्जा गालिब का इंतकाल हो गया. लेकिन ऐसी शख्सियत मरती कहां हैं. वो तो जिंदा रहती हैं किस्सों में, किताबों में, अल्फाजों में, अहसासों में, ख्वाबों में, ख्वाहिशों में, जहन में, जिंदगी में.

हुई मुद्दत कि 'गालिब' मर गया पर याद आता है,

वो हर इक बात पर कहना, कि यूं होता तो क्या होता.

तो दोस्तो.. आप अपने आप पर एक अहसान कर डालिए. अगर टीवी पर गुलजार के गालिब को नहीं देखा है, तो यू-ट्यूब पर जाइए, दोस्तों के कंप्यूटर की हार्ड-डिस्क खंगालिए, कुछ भी कीजिए और देख डालिए. वेब सीरीज के जमाने में ‘मिर्जा गालिब’ सीरीज देखकर वही मजा आएगा, जो पिज्जा-बर्गर खाते-खाते अचानक मिले मां के हाथ का पराठा खाने से आता है.

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