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सावन का महीना शुरू होने को है. सावन के साथ ही कांवड़ यात्रा भी शुरू हो जाती है. सावन के महीने में जगह-जगह केसरिया रंग के कपड़े पहने, कंधे पर कांवड़ लेकर चलते हुए शिवभक्त देखे जा सकते हैं. कांवड़ियां भगवान शिव की अराधना करते हुए गंगा से जल लाते हैं और किसी विशेष शिव मंदिर के शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं. ऐसा नजारा सबसे ज्यादा उत्तर भारत में देखने को मिलता है.
पिछले कुछ दशकों से उत्तर भारत में कावड़ यात्रा के लिए लोग ज्यादा जागरूक दिख रहे हैं. समाज के हर तबके के लोग कांवड़ यात्रा में शामिल होते हैं. कई जगह तो लोग ग्रुप में इकट्ठे होकर डीजे लेकर जाते हैं और रास्ते भर भोलेनाथ के गानों पर थिरकते हैं. लेकिन क्या आप कावड़ यात्रा का इतिहास जानते हैं? इस यात्रा के बारे में अन्य जरूरी बातों भी जानें...
कांवड़ यात्रा के पीछे कई पौराणिक कहानियां हैं. लेकिन पुराणों के मुताबिक, सबसे ज्यादा प्रचलित कहानी श्रावण के महीने में समुद्र मंथन से संबंधित है. समुद्र मंथन के दौरान महासागर से निकले विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया. तब से उनका नाम 'नीलकंठ' पड़ गया. लेकिन विष के नकारात्मक असर ने नीलकंठ को घेर लिया था.
विष के असर को कम करने के लिए देवी पार्वती समेत सभी देवी-देवताओं ने उन पर पवित्र नदियों का शीतल जल चढ़ाया, तब जाकर शंकर विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए. यहीं से कावड़ यात्रा की परंपरा की भी शुरुआत हो गई.
कुछ विद्वानों का मानना है कि श्रवण कुमार सबसे पहले कावड़िया थे. उन्होंने ही सबसे पहले त्रेतायुग में कावड़ यात्रा की थी. जब श्रवण कुमार अपने माता-पिता को तीर्थ यात्रा करा रहे थे, तब उनके अंधे माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा जताई. माता-पिता की इस इच्छा को पूरी करने के बाद कुमार लौटते समय अपने साथ गंगाजल ले गए. यहीं से कावड़ यात्रा की शुरुआत मानी जाती है.
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