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शिव को प्रसन्‍न करने के लिए ‘रुद्राष्‍टकम्’ से सुंदर और क्‍या होगा

शिव तो केवल भाव के भूखे हैं. अगर भावना में समर्पण हो, तो वे भक्‍तों पर जल्‍द प्रसन्‍न हो जाते हैं. 

अमरेश सौरभ
धर्म और अध्यात्म
Updated:
‘रुद्राष्‍टकम्’ संस्‍कृत में है, लेकिन आसानी से मधुर स्‍वर में गाए जाने योग्‍य है
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‘रुद्राष्‍टकम्’ संस्‍कृत में है, लेकिन आसानी से मधुर स्‍वर में गाए जाने योग्‍य है
(फोटो: Twitter)

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महाशिवरात्र‍ि को लेकर शिवभक्‍तों में विशेष उत्‍साह है. इस दिन शिवालयों में भक्‍तों की भीड़ उमड़ती है. लोग भोलेशंकर को प्रसन्‍न करने के लिए उन्‍हें तरह-तरह की चीजें अर्पित करते हैं. लेकिन शिव के बारे में सबसे खास बात ये है कि वे केवल भाव के भूखे हैं. अगर भावना सच्‍ची हो, तो वे भक्‍तों पर जल्‍द प्रसन्‍न हो जाते हैं.

सनातन धर्म के ग्रंथों में शिव की कई स्‍तुतियां हैं, लेकिन इनमें तुलसीदास का लिखा 'रुद्राष्‍टकम्' सबसे सुंदर और मनोहारी है. 'रुद्राष्‍टकम्' रामचरितमानस के उत्तरकांड में है. इसके श्‍लोक संस्‍कृत में हैं, लेकिन आसानी से मधुर स्‍वर में गाए जाने योग्‍य हैं.

महाशिवरात्र‍ि पर रुद्राभिषेक का खास महत्‍व होता है(Photo: PTI)

महाशिवरात्र‍ि पर शिव को प्रसन्‍न करने के लिए शायद इससे बेहतर स्‍तोत्र आप न खोज पाएं. पूरी स्‍तुति और इसके अर्थ पर डालिए एक नजर:

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं । विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं ॥

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं । चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ॥1॥

हे मोक्षरूप, विभु, व्यापक ब्रह्म, वेदस्वरूप ईशानदिशा के ईश्वर और सबके स्वामी शिवजी, मैं आपको नमस्कार करता हूं. निज स्वरूप में स्थित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन, आकाश रूप शिवजी मैं आपको भजता हूं.

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं । गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशं ।

करालं महाकालकालं कृपालं । गुणागारसंसारपारं नतोऽहं ॥2॥

निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत) वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलाशपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे परमेश्‍वर को मैं नमस्कार करता हूं.

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं । मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरं ॥

स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगंगा । लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजंगा ॥3॥

जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित है.

चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं । प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालं ॥

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥4॥

जिनके कानों में कुंडल शोभा पा रहे हैं. सुन्दर भृकुटी और विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्न मुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं. सिंह चर्म का वस्त्र धारण किए और मुण्डमाल पहने हैं, उन सबके प्यारे और सबके नाथ श्रीशंकरजी को मैं भजता हूं.

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं । अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं ॥

त्रय: शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं । भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ॥5॥

प्रचंड, श्रेष्ठ तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोडों सूर्य के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए, भाव के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकरजी को मैं भजता हूं.
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कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी । सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ॥

चिदानन्दसंदोह मोहापहारी । प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥6॥

कलाओं से परे, कल्याण स्वरूप, प्रलय करने वाले, सज्जनों को सदा आनंद देने वाले, त्रिपुरासुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालनेवाले हे प्रभो, प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए.

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं । भजन्तीह लोके परे वा नराणां ।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं । प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥7॥

जब तक मनुष्य पार्वतीजी के पति के चरणकमलों को नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इहलोक में, न ही परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और अनके कष्टों का भी नाश नहीं होता है. अत: हे समस्त जीवों के हृदय में निवास करने वाले प्रभो, प्रसन्न होइए.

न जानामि योगं जपं नैव पूजां । नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यं ॥

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं । प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥8॥

मैं न तो योग जानता हूं, न जप और न पूजा ही. हे शम्भो, मैं तो सदा-सर्वदा आप को ही नमस्कार करता हूं. हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दु:ख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:खों से रक्षा कीजिए. हे शम्भो, मैं आपको नमस्कार करता हूं.

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ॥।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥9॥

जो मनुष्य इस स्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर शम्भु विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं.

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Published: 13 Feb 2018,07:52 PM IST

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