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हिंदी साहित्य के महान मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह अब इस दुनिया में नहीं रहे. मंगलवार देर रात दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उन्होंने आखिरी सांस ली. वो 93 साल के थे.
खराब सेहत की वजह से पिछले कुछ समय से वह एम्स में भर्ती थे. इसी साल जनवरी महीने में वो अपने घर में अचानक गिर गए थे. तब से उनका इलाज चल रहा था. उनके घरवालों के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार दोपहर बाद लोदी रोड स्थित शमशान घाट में होगा.
19 फरवरी की रात 11:40 पर उन्होंने अंतिम सांस ली. पिछले दो तीन दिनों से उनके सारे अंगों ने काम करना बंद कर दिया था.2 दिन पहले उन्हें हार्ट अटैक भी आया था. उनका वृद्ध शरीर इतनी बीमारियों का बोझ सह नहीं पाया और वे हम सबों को छोड़कर चुपचाप अलविदा कह गए.
गुरुदेव नामवर सिंह के जाने के से हिंदी संसार बहुत सूना हो गया है. चारों तरफ सन्नाटे की आवाज सुनाई दे रही है.
जीयनपुर, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, लोलार्क कुंड, जोधपुर विश्वविद्यालय, राजकमल प्रकाशन, जेएनयू की न जाने कितनी कितनी यात्राओं पर आज पूर्ण विराम लग गया. उनका न रहना कई बार बौद्धिक समाज को रह रह कर याद आएगा.
नामवर सिंह बनारस का जन्म उत्तर प्रदेश (वर्तमान में चंदौली जिला) के एक गांव जीयनपुर में हुआ था. हिन्दी साहित्य में एमए व पीएचडी करने के पश्चात् उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय पढ़ाने का काम किया. BHU के बाद नामवर सिंह ने क्रमश: सागर विश्वविद्यालय और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी अध्यापन का काम किया.
उसके बाद वो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन्होंने लंबे समय तक पढ़ाने का काम किया. रिटायर होने के बाद भी वे JNU के भारतीय भाषा केंद्र में इमेरिट्स प्रोफेसर रहे.
नामवर सिंह न सिर्फ एक अच्छे आलोचक थे बल्कि उनकी भाषा शैली इतनी शानदार थी कि जो भी एक बार उनको सुनने बैठ जाता वो बीच में उनकी बात को छोड़ कर उठ ही नहीं सकता था. इसके अलावा आलोचना की भाषा में जिस तरह उन्होंने मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग कर इसे सर्व सामान्य बना दिया वो शानदार अनुभूति है. शायद यही वजह है कि हिंदी आलोचकों में जो स्थान नामवर सिंह को हासिल है वो किसी और को नहीं.
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