Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Zindagani Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Kala aur sanskriti  Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019हिंदी दिवस विशेष: जेल,आमरण अनशन, फुटपाथ पर दुकान, ये जी रहे हैं बस हिंदी के लिए

हिंदी दिवस विशेष: जेल,आमरण अनशन, फुटपाथ पर दुकान, ये जी रहे हैं बस हिंदी के लिए

2 लोगों की कहानियां जो वर्तमान में हिंदी पर पड़ने वाले चोट का दर्द अपने सीने में महसूस करते हैं.

धनंजय कुमार
कला और संस्कृति
Updated:
<div class="paragraphs"><p><strong>श्याम रुद्र पाठक</strong></p></div>
i

श्याम रुद्र पाठक

फोटो: एमिटी यूनिवर्सिटी

advertisement

मौका हिंदी दिवस (Hindi Diwas) का है लेकिन हिंदी किसी एक दिवस तक सीमित नहीं है. न तो हमें हिंदी के आरंभ के बारे में कोई ठोस जानकारी है न ही इसकी यात्रा कहां रुकेगी इसके बारे में. दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में चौथे नंबर पर खड़ी हमारी हिंदी को बनाने में अनेक लोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.

इतिहास में हिंदी के लिए काम करने वाले कुछ नामों का जिक्र हमने कई बार सुना होगा लेकिन आप शायद उन नामों से अब तक अंजान हैं जो हिंदी के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं. हम ऐसे 2 लोगों की कहानियां लेकर आए हैं जो वर्तमान में हिंदी पर पड़ने वाले चोट का दर्द अपने सीने में महसूस करते हैं.

1. श्याम रुद्र पाठक

पाठक साहब की कहानी शुरू होती है 1980 से. हिंदी मीडियम से पढ़े श्याम रुद्र पाठक ने 1980 में IIT की इंग्लिश मीडियम की प्रवेश परीक्षा पास करके दिल्ली IIT में B.Tech में दाखिला ले लिया. अब तक पाठक साहब एक साधारण छात्र की तरह थे, लेकिन IIT में दाखिले के बाद एहसास हुआ कि ऐसी हजारों प्रतिभाएं सिर्फ इसलिए IIT में दाखिला नहीं ले पाती क्योंकि प्रवेश परीक्षा केवल इंग्लिश में होती है और वो इंग्लिश में असहज हैं. इसीलिए हर साल मात्र 4 से 5% गैर अंग्रेजी छात्र ही IIT में दाखिला ले पाते थे.

उन्होंने इसका खूब विरोध किया और स्टूडेंट अफेयर काउंसिल में प्रवेश परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता के खिलाफ प्रस्ताव पारित करवा दिया, लेकिन अभी लागू करवाने में एक लंबी लड़ाई लड़नी थी.

पाठक ने अपने बीटेक के अंतिम वर्ष (1985) में उन्होंने कुछ ऐसा किया जो पहले कभी नहीं हुआ. उन्होंने अपने बीटेक की प्रोजेक्ट रिपोर्ट हिंदी में लिखने का फैसला किया. उद्देश्य था भारतीय भाषाओं के साथ हो रहे भेदभाव को उजागर करना.

IIT ने हिंदी में प्रोजेक्ट रिपोर्ट लेने से मना कर दिया और उनकी अब तक कि सारी पढ़ाई दांव पर लग गई. इसके बाद वो नेता से लेकर मंत्री तक सब के पास गए लेकिन मदद नहीं मिली. एक महिला पत्रकार ने इस घटना को अपने अखबार में जगह दी उसके बाद मामला सुर्खियों में आया.

कांग्रेस के तब के सांसद भागवत झा आजाद ने मामला संसद में उठाया. आखिर में राजीव गांधी के हस्तक्षेप के बाद IIT इस बात पर राजी हुआ कि उनके प्रोजेक्ट का ट्रांसलेशन इंग्लिश में करवाया जाएगा.

लेकिन लड़ाई ये नहीं थी लड़ाई थी कि किस तरह आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया जाए इसी दौरान उन्होंने 1985 में गेट की परीक्षा में टॉप कर लिया. जब बीटेक की डिग्री लेने की बारी आई तो फिर उन्होंने अंग्रेजी में डिग्री लेने से भी मना कर दिया कन्वोकेशन समारोह में खुद राजीव गांधी आने वाले थे.

पाठक साहब ने दो टूक कह दिया कि यदि उन्हें कन्वोकेशन में डिग्री अंग्रेजी में दी गई तो वह फाड़ देंगे. लिहाजा प्रशासन ने कन्वोकेशन रद्द कर दिया और फिर से हिंदी में भी डिग्री छपवाइ गई और उन्हें दी गई. लेकिन लड़ाई अभी भी अधूरी ही थी प्रवेश परीक्षा में इंग्लिश की अनिवार्यता के खिलाफ वे कई बार राष्ट्रपति से भी मिले, विरोध करने पर जेल भी गए.

साल 1989 में जब आईआईटी की प्रवेश परीक्षा हो रही थी पाठक साहब ने उसी दिन आईआईटी के गेट से शास्त्री भवन तक पैदल मार्च किया और वहां आमरण अनशन पर बैठ गए. इसके बाद भी लगातार प्रयास करते रहने के बाद 1990 की IIT की प्रवेश परीक्षा अंग्रेजी के अलावा हिंदी में भी करवाने में उन्हें सफलता मिली.

जब अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म हुई तो पहले ही साल में लगभग 20% गैर अंग्रेजी मीडियम के छात्रों ने आईआईटी में दाखिला लिया.

श्याम रुद्र पाठक आज भी हिंदी के लिए लड़ रहे हैं और भारतीय हाई कोर्टों में अंग्रेजी की अनिवार्यता के खिलाफ संघर्ष जारी है. कांग्रेस की सरकार में उन्होंने अपनी इसी मांग को लेकर 225 दिन तक कांग्रेस मुख्यालय के बाहर धरना दिया.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

2. संजना तिवारी

यदि किसी महिला का पति पत्रकार, बेटा डॉक्टर, बेटी सब इंस्पेक्टर और दामाद अधिकारी हो तो वह महिला फुटपाथ पर हिंदी किताबों की दुकान लगाकर क्यों बैठ जाती है ? यह प्रश्न सुनने में अजीब लग सकता है लेकिन राजधानी दिल्ली के एक पौश इलाके 'मंडी हाउस' का फुटपाथ हर रोज इसका गवाह बनता है. मंडी हाउस स्थित 'श्री राम सेंटर' के ठीक सामने से जब भी कोई साहित्य प्रेमी गुजरता है तो संजना तिवारी की हिंदी किताबों की जमघट उनके कदम थाम देती है.

फुटपाथ पर लगने वाली ये किताबों की दुकान सिर्फ किताबें नहीं बेचती बल्कि उन तमाम हिंदी प्रेमियों को सपने बेचती है जिनको नींद साहित्य के चादर में आती है. यह सिलसिला पिछले 24 वर्षों से जारी है. रोज सुबह 11 बजे से शाम 8 बजे तक ये स्थान पाठकों से गुलजार रहता है. महिला होना कभी संजना के हौसले और हिंदी प्रेम के मार्ग में बाधक नहीं बन सके.

वो अकेले ही रोज सुबह 9 बजे लगभग पांच सौ किताबें स्कूटी पर लादकर करावल नगर से मंडी हाउस के लिए निकल पड़ती हैं. उनकी बचपन की परिस्थितियां इतनी बेहतर नहीं रही लेकिन शिक्षा के लिए समर्पण ने हर परिस्थिति से लड़ने का साहस दिया.

संजना 23 वर्ष की थी जब उन्हीने 'श्री राम सेन्टर फ़ॉर परफार्मिंग आर्ट्स' की इमारत के भीतर हिंदी किताबों की दुकान लगानी शुरू की थी लेकिन वर्ष 2013 में अचानक इसे कमर्शियल बातकर बाहर कर दिया गया. 15 अगस्त 2013 से संजना लगातार उसी इमारत के बाहर फुटपाथ पर हिंदी क्लासिक किताबों का गुलशन सजा रही हैं.

फिल्म निर्देशक अरविंद गौड़ के साथ एक मुलाकात ने संजना को हिंदी किताबों के इतना पास ला दिया कि वे फिर कभी जुदा नहीं हुए. इसी मुलाकात के बाद संजना ने किताबें बेचने का सिलसिला शुरू किया. ये दुकान आपको छोटी लग सकती है लेकिन मंगलेश डबराल, राजीव रंजन, अरविंद गौड़ और न जाने कितने बड़े-बड़े नाम यहां आ चुके हैं.

संजना का ये कारोबार देखने में लगता है कि केवल पटरी पर है लेकिन वो भारत के कोने-कोने में यहां से हिंदी किताब पहुंचा देती है. कई नगरों, महानगरों से पाठक किताब मंगवाने के लिए संजना को फ़ोन करते हैं.

इस काम में न तो उन्हें किसी सरकारी संस्था से कोई सहयोग मिला है न ही किसी एनजीओ से. सहयोग के नाम पर केवल श्री राम सेन्टर के रंगकर्मी हैं. यही रंगकर्मी दुकान लगाने से किताबें भेजने तक में उनकी मदद करते हैं. संजना सभी रंगकर्मियों को अपना पुत्र मानती हैं. बरसात के दिनों में इन्हीं रंगकर्मियों की गाड़ियों में किताबें रखकर भीगने से बचाती हैं.

शुरुआती दिनों में पुलिसकर्मियों ने इनकी दुकान को हटाने की भरपूर कोशिश की लेकिन संजना के इरादे और हिंदी से प्रेम उनकी कोशिशों से ज्यादा मजबूत साबित हुए. इस छोटी सी दिखने वाली दुकान में हिंदी साहित्य की वो किताबें भी आसानी से मिल जाती हैं जो एक पल के लिए दरियागंज में भी मिलनी मुश्किल हो और यदि नहीं मिलती तो बस एक बार बता दीजिये अगली बार तक वो आपके हाथ में होगी.

संजना पिछले 3 वर्षों से प्रकाशन का काम भी करने लगी हैं. इस दौरान वे 23 किताबें प्रकाशित कर चुकी हैं. आजकल वो 'मंडी हाउस' पर ही किताब लिख रही हैं. वो कहती हैं "मैं आखिरी सांस तक किताबों से जुड़े रहना चाहती हूँ और मौत भी आए तो किताबों के बीच ही आए." बचपन में 'हरिवंश राय बच्चन' जी कि एक कविता सुनी थी जो आज भी वो फुटपाथ पर गुनगुनाती दिख जाती है-

आ रही रवि की सवारी

नव किरण का रथ सजा है

कलि-कुसुम से पथ सजा है

बादलों से अनुचरों ने, स्वर्ग की पोशाक धारी

आ रही रवि की सवारी.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 14 Sep 2021,05:00 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT