advertisement
मशहूर शायर और आलोचक प्रोफेसर यूसुफ हसन फरमाते हैं, "गालिब ने स्टीम इंजन के दौर में शायरी की, आज रोबोटिक ऑटोमेशन का जमाना है. गालिब को आज भी पढ़ा जा रहा है और आइन्दा भी पढ़ा जायेगा".
उर्दू शायेरी में गालिब को वही स्थान हासिल है, जो सितारों से भरे आसमान में चांद को हासिल है. जिस तरह चांद से अनगिनत सितारे रोशनी हासिल करते हैं, उसी तरह मिर्जा गालिब से दुनिया-जहान के न जाने कितने शायर, लेखक और दार्शनिक फैज हासिल करते हैं. गालिब ने शायरी के पुराने जिस्म में नई रूह फूंकी. शायरी की रगों में फलसफा, इंकलाब और नये नये विषयों की लहरें रवां की.
बादशाहे गजल मीर तकी मीर ने मिर्जा गालिब के बारे में कहा था, "अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बन जायेगा वरना मोहमल बकने लगेगा”
गालिब ने जिस दौर में आंखें खोलीं, उस जमाने में हिंदुस्तान का दिल दिल्ली उजड़ चुकी थी, यानी दिल्ली की गजलें दिल्ली का मर्सिया बन चुकी थीं. हिंदुस्तान पर पूरी तरह अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था. इन घटनाओं ने गालिब की नजर में गहराई और फिक्र में फैलाव पैदा किया, जिसका अक्स उनकी शायरी में जा ब जा दिखाई देता है.
गालिब की निजी जिन्दगी तल्खियों और महरूमियों से भरी हुई है. बचपन में बाप की मौत, चचा की परवरिश, फिर उनके साये से महरूमी, 13 साल की कच्ची उम्र में शादी की जंजीर, कर्जों का बोझ- इन चीजों ने गालिब को वह सब कुछ सिखा दिया, जो आदमी किसी यूनिवर्सिटी या कॉलेज में हजारों किताबें पढ़कर भी नहीं सीख पाता.
मिर्जा गालिब ने यूं तो शायरी की विभिन्न विधाओं में शायरी की, लेकिन गजलगोई में उनको वह हैसियत हासिल है, जो किसी और के हिस्से में नहीं आई. इस बात का भी जिक्र जरूरी है कि उन्होंने न सिर्फ उर्दू, बल्कि फारसी भाषा में भी शायरी की.
खुसरो, बेदिल और नजीरी को छोड़ कर गालिब फारसी के बड़े हिंदुस्तानी शायर हैं. खुद गालिब ने अपने फारसी कलाम को अपने उर्दू कलाम पर तरजीह दी. उनके मुताबिक यह अजीब-ओ-गरीब बात है कि फारसी के बजाय उर्दू कलाम से शोहरत मिली.
गालिब के अशआर इतने मशहूर हैं कि साहित्य और शायरी से दूर आम आदमी भी उन्हें मुहावरे की तरह इस्तेमाल करता है. इस की सबसे बड़ी वजह यह है कि गालिब ने इंसानी जिन्दगी और चेहरों को पढ़ा है और इंसानी जज्बात और एहसासा को छुआ है.
गालिब आम रास्तों पर चलने वालों में से नहीं थे. वह हर हाल में रवायत को चैलेंज करने वाले थे. वह हमेशा पुरानी रवायतों के पहाड़ों को तोड़कर नये रास्ते और नई मंजिलें बनाने की कोशिश में रहते थे.
कर्ज से पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लायेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
किसी भी शायर की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वो किसी भी विषय को इस अंदाज में पेश करे कि पढ़ने वाला या सुनने वाला खुद बखुद उसके दाम में आ जाए और दाद देने पर मजबूर हो जाए. यह हुनर गालिब को खूब आता था. उन्हें इस बात का अंदाजा भी था कि उनका डिक्शन, उनका अंदाजे बयान, उनका तर्जे इजहार और उनका लफ्जों का इंतखाब जुदागाना है.
हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि गालिब का है अंदाजे बयां और
गालिब की शायरी में तंज का पहलू भी मौजूद है. वो हंसना भी जानते थे और हंसाना भी. कभी खुदा, कभी महबूब और कभी दुनिया पर तंज करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे. लेकिन उनके तंज में भी एक खास तरह का पैगाम छुपा होता है कि गालिब बतौर शायर या फनकार खुदा और खुदा की बनाई हुई कायनात को देखते हैं.
मिर्जा असद उल्लाह खां गालिब 27 दिसम्बर 1797 को आगरा में पैदा हुए. मुगल बादशाह की तरफ से नजमउद्दौला, दबीर-उल-मुल्क और निजाम जंग के खिताब से नवाजे गए. 15 फरवरी 1869 को ने गालिब जैसे महान कलमकार ने इस संसार को अलविदा कह दिया, मगर आज रोबोटिक ऑटोमेशन के जमाने में भी गालिब की अहमियत बरकरार है और आइंदा भी रहेगी.
हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना कि यूं होता तो क्या होता
यह भी पढ़ें: मिर्जा गालिब : जिसकी शायरी में जिंदगी अपना फलसफा ढूंढती है
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)