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(विजय तेंदुलकर की पुण्यतिथि पर इस आर्टिकल को दोबारा शेयर किया जा रहा है.)
अपनी बेबाकी के लिए मशहूर थे विजय तेंदुलकर. साल 2002 में, जब गुजरात साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहा था, विजय तेंदुलकर के बेबाक बयानों ने विवाद खड़ा कर दिया. उनके पुतले जलाए गए और मीडिया ये जानने के लिए उनके पीछे लगी रही, कि जिस बयान ने भारी विवाद खड़ा कर दिया, दरअसल उसका वास्तविक अर्थ क्या है.
आखिरकार विजय थोड़े नरम हुए. उन्होंने कहा कि उसका बयान एक सहज आक्रोश का नतीजा था. उन्होंने कहा,
कुछ लोग कह सकते हैं कि उनका ये नरम रुख तीखे विवाद से बचने का तरीका था. लेकिन ये भी सच है कि किसी भी प्रकार की नाइंसाफी का विरोध और उसके प्रति आक्रोश उनकी शख्सियत का अभिन्न अंग थे. फिर भी, वो हार मानने वालों वालों में नहीं, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से आशावादी थे.
विजय तेंदुलकर ने साल 1972 में प्रसिद्ध घासीराम कोतवाल नाटक लिखा. ये नाटक 18वीं सदी में पुणे की राजनीतिक कुटिलता पर आधारित था. इस नाटक को उस वक्त दक्षिणपंथी ताकत के रूप में उभर रही शिव सेना का कोपभाजन बनना पड़ा. कोशिश की गई कि यूरोप में इस नाटक का मंचन न हो सके. आखिरकार, समझौता हुआ और हर नाटक के मंचन से पहले घोषणा की जाती कि इस नाटक का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है.
जाहिर है सेंसरशिप और रूढ़ीवादी ताकतों से टकराव के साथ उनका चोली-दामन का रिश्ता था. जल्द ही लहरों के खिलाफ कलम चलाने की सोच ने विजय को नियम तोड़ने वाले थियेटर लेखक के रूप में प्रचारित कर दिया. इस सोच को साथ मिला, बादल सिरकार, मोहन राकेश, गिरीश कर्नाड और हबीब तनवीर जैसे कॉमरेड्स का. इन सबके साथ उन्होंने परम्परिक सोच को चुनौती देने की परम्परा को परवान चढ़ाया. इस परम्परा की पैनी धार न सिर्फ मराठी नाटकों में, बल्कि उनके साहित्यिक आलेखों, उपन्यासों, लघु कहानियों, पत्रकारिता और फिल्मी स्क्रिप्टों में भी दिखी.
6 जनवरी को विजय तेंदुलकर की 90वीं सालगिरह है. उनकी तपस्या का असर अब दिखने लगा है. समाज का एक विशाल तबका उनके विचारों से प्रभावित है. कुछ ऐसे लोग भी हैं जो उनकी सोच की नकल उतारने की ईमानदार कोशिश करते हैं.
विजय तेंदुलकर पर थियेटर के मशहूर कलाकार शांता गोखले को आश्चर्य होता था. अक्सर वो सवाल करते,
तेंदुलकर ने अपने पिता को भी नाटकों का रिहर्सल करते देखा था. लेकिन वो रिहर्सल उनके दिलो-जेहन में कोई गंभीर छाप नहीं छोड़ पाए. उनके हिसाब से उन नाटकों में अक्सर किरदार मंच पर खड़ा होते थे, और कुछ पंक्तियां बोल देते थे. नाटक का ये स्वरूप उन्हें नहीं पचा. दरअसल उनकी सोच की बुनियाद फिल्मों ने डाली. स्कूल के दिनों से ही वो ग्रेट गार्बो, पॉल मुनि, ग्रीर गार्सन, चार्ल्स लाफटन जैसे महान कलाकारों के दीवाने थे.
इन फिल्मों के ‘विषय, कहानियां, सीन प्रस्तुतिकरण और सबसे महत्त्वपूर्ण - दुनिया के प्रति सोच’ का उनकी सोच पर गहरा असर पड़ा. फिर उन्हें प्रभात स्टूडियो की फिल्म मानुष (1939) देखने को मिली. इस फिल्म ने उन्हें सिखाया कि डायलॉग सिर्फ रटकर नाटकीयता उत्पन्न करने के लिए प्रस्तुत नहीं किये जाते. किरदार का अभियन और संवाद अगर प्राकृतिक हो, तो वो अपने आप में गहरा नाटकीय प्रस्तुतिकरण हो जाता है.
जैसा हर विलक्षण प्रतिभा के साथ होता है, विजय तेंदुलकर की शुरुआत पर भी उनके परिवेश की छाप थी. उनकी पैदाइश मुंबई के गिरगांव में एक सामुदायिक वातावरण में हुई थी. रियल स्टेट के विकास ने अब उस वातावरण को इतिहास के पन्नों में समेट दिया है. विजय के पिता धोन्डोपंत एक क्लर्क थे, प्रकाशन का कारोबार करते थे और स्टेज पर अभिनय भी करते थे.
इस वातावरण में होश संभालने वाले धोन्डोपंत के बेटे ने छह साल की उम्र में ही एक नाटक का लेखन और निर्देशन कर डाला. उस बच्चे की स्कूली पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी. 14 साल के हुए तो 1942 के स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बन गए. ‘नवजीवन संगठन’ नामक एक वामपंथी पार्टी में शामिल हो गए. पार्टी के स्टडी सर्किल में भाग लेने के कारण कुछ दिनों सलाखों के पीछे भी रहे. सोच से वो मार्क्सवादी थे, लेकिन जल्द ही वामपंथी विचारधारा को उन्होंने ये कहते हुए अलविदा कह दिया, “कम्यूनिस्टों में सिर्फ बलिदान और अनुशासन की आदत मेरे लिए उनकी प्रशंसा का विषय हैं.”
बंद कमरे में कुर्सी पर बैठकर कलम चलाना उनकी आदत नहीं थी. पूरी जिदगी उनकी लेखनी में दूरदराज के गावों, छोटे कस्बों और महानगरों की चकाचौंध से दूर बस्तियों की झलक देखने को मिली. ये जरूर होता, कि अक्सर वो किसी होटल के कमरे में बंद हो जाते और ग्रामीण या शहरी वंचित समुदाय का ताकतवरों का हाथ शोषण से जुड़े अपने तजुर्बों को नाटक या फिल्म की शक्ल दे डालते.
दशकों बाद तेंदुलकर की फिल्म स्क्रिप्ट और कहानियां, नई कहानियों के रूप में सामने आने लगीं. कई विषयों पर लिखी कहानियों को पुरस्कार मिला. स्वयं उन्हें भी 1984 में पद्म भूषण के सम्मान से नवाजा गया. हालांकि ये सब देख-सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या आज की तारीख में सिस्टम के खिला खिलाफ आवाज उठाने वाले को ये सम्मान मिल पाएगा? जवाब बिलकुल स्पष्ट है. कतई नहीं.
रिकॉर्डिंग के लिए अपना डिक्टाफोन मेरे हाथ में थमाते हुए कहा, “इसे रखो. जब इंटरव्यू की ट्रांस्क्रिशन कर लोगे, तो लौटा देना.” कोई उनकी वाहवाही करे, उनमें ये चाहत बिलकुल नहीं थी. न वो ये चाहते थे कि उनके नाटक घासीराम कोतवाल (1976) पर बनी फिल्म की भी कोई बिना वजह प्रशंसा करे. इस फिल्म को मणि कौल और के. हरिहरन ने पुणे स्थित फिल्म एंड टेलिविजिन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के कुछ स्नातकों के साथ मिलकर बनाया था.
फिल्म प्रिव्यू के लिए वो रात भर की यात्रा के पश्चात टैक्सी में बैठकर इंस्टीट्यूट पहुंचे. इंस्टीट्यूट में फिल्म का प्रिव्यू करते हुए उन्होंने अपने विचार प्रकट नहीं किये. लेकिन उनकी भाव-भंगिमा बता रही थी कि वो नाखुश थे. नाटक में दर्शकों तक जो बात सीधे पहुंचाई गई थी, फिल्म में उसे बिना वजह तोड़-मरोड़ दिया गया था. “चूंकि ये फिल्म एक प्रयोग है, लिहाजा मैं इसकी आलोचना नहीं करूंगा. फिर भी, फिल्म की धार हल्की है और वो सकारात्मक नहीं है. शैली को बनाए रखने के लिए तथ्यों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता. अंतिम शॉट बिना किसी कट के 10 मिनट का था. तकनीकी रूप से बेहतरीन था, मगर... ” इतना कहकर वो खामोश हो गए.
उन्होंने लिखा, “नसीर का अभिनय बेमिसाल था. लेकिन कुछ जिम्मेदारियां भी होनी चाहिए. मुझे ऐसा लगा कि अंत में नसीर ने ब्लैकमेलिंग जैसे गुनाह को भी ग्लैमराइज कर दिया.”
श्याम बेनेगल के साथ उनकी फिल्म निशांत (1975) अपना सबकुछ खो चुके एक सामंती परिवार की कहानी थी, जो महाभारत की परिकल्पना से बाहर निकलने को तैयार नहीं था. जबकि मंथन (1976) एक दूध कोओपरेटिव स्थापित करने के राह आनेवाली परेशानियों की कहानी थी. ये फिल्में समानान्तर सिनेमा के दौर में मील का पत्थर साबित हुईं.
गोविन्द निहलानी के साथ उनकी फिल्म आक्रोश (1980) एक सरकारी वकील की अनुसूचित जाति पर प्रताड़ना के खिलाफ संघर्ष की कहानी थी. अर्ध सत्य (1983) एक पुलिस अधिकारी का मनोवैज्ञानिक चरित्र चित्रण था, जो अपराध से निपटने में खुद को बेबस पाता था.
निश्चित रूप से तेंदुलकर थियेटर के धनी थे. वो बार-बार कहते कि थियेटर के लिए काम करने में उन्हें अधिक आनंद आता है.
उनके नाटकों पर थियेटर आलोचक मुक्ता राजाध्यक्ष का कहना था, कि उनके नाटकों में “इंसानों की उन क्षमताओं का वर्णन होता था, जो लोगों को लगभग रातोंरात बदल देते हैं.” राजाध्यक्ष 1950 और 1960 के दशक में उनके नाटकों की याद दिलाते हैं, जो उन्होंने थियेटर के साथ नित नए प्रयोग करने वाले ग्रुप रंगायन के साथ किये. यहां उन्हें विजय मेहता, श्रीराम लागू, अरविंद और सुलभा देशपांडे जैसी शख्सियत के साथ काम करने का मौका मिला. उनकी मिराची गोष्टी (1981) नाटक महिला समलैंगिक सम्बंधों पर आधारित थी.
एक नजर में आकलन की क्षमता रखने वाली आंखों और पीछे की ओर बाल झाड़ने वाले चमत्कारिक व्यक्तित्व के मालिक विजय तेंदुलकर का चेहरा भावप्रण था. उनका चेहरा आसानी से पढ़ा जा सकता था, जो बाद में सफेद सन जैसी दाढ़ी में आधा छिप गया था.
उनकी पत्नी निर्मला, पुत्र राजा और पुत्री प्रिया तेंदुलकर ने उनकी आंखों के सामने दम तोड़ा था. अस्सी साल की उम्र में उन्होंने भी इस जहान को अलविदा कह दिया. लेकिन अंत तक उनकी आंखों की आकलन करने की क्षमता स्पष्ट दिखती थी. प्रिंट और टेलिविजन में दिये उनके इंटरव्यू देखते हुए मैं उनके एक अजीबोगरीब बयान से रुबरु हुआ.
तो क्या पागलपन उनकी शख्सियत का हिस्सा था? जवाब है नहीं. और नाइंसाफी के खिलाफ मोर्चा लेने वाला एक सिपाही? निश्चित रूप से जवाब है, हां.
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