Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Zindagani Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Zindagi ka safar  Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019विजय तेंदुलकर: वो शख्स जिसकी कलम रूढ़ीवादी सोच से बेखौफ टकराई  

विजय तेंदुलकर: वो शख्स जिसकी कलम रूढ़ीवादी सोच से बेखौफ टकराई  

सेंसरशिप और रूढ़ीवादी ताकतों से टकराव के साथ विजय तेंदुलकर का चोली-दामन का रिश्ता था

खालिद मोहम्मद
जिंदगी का सफर
Updated:
सेंसरशिप और रूढ़ीवादी ताकतों से टकराव के साथ विजय तेंदुलकर का चोली-दामन का रिश्ता था
i
सेंसरशिप और रूढ़ीवादी ताकतों से टकराव के साथ विजय तेंदुलकर का चोली-दामन का रिश्ता था
फोटो:Twitter

advertisement

(विजय तेंदुलकर की पुण्यतिथि पर इस आर्टिकल को दोबारा शेयर किया जा रहा है.)

अपनी बेबाकी के लिए मशहूर थे विजय तेंदुलकर. साल 2002 में, जब गुजरात साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहा था, विजय तेंदुलकर के बेबाक बयानों ने विवाद खड़ा कर दिया. उनके पुतले जलाए गए और मीडिया ये जानने के लिए उनके पीछे लगी रही, कि जिस बयान ने भारी विवाद खड़ा कर दिया, दरअसल उसका वास्तविक अर्थ क्या है.

आखिरकार विजय थोड़े नरम हुए. उन्होंने कहा कि उसका बयान एक सहज आक्रोश का नतीजा था. उन्होंने कहा,

“मैं नहीं समझता कि वास्तविक और सहज आक्रोश किसी समस्या का समाधान हो सकता है. क्रोध कभी समस्याओं का निदान नहीं होता.”

कुछ लोग कह सकते हैं कि उनका ये नरम रुख तीखे विवाद से बचने का तरीका था. लेकिन ये भी सच है कि किसी भी प्रकार की नाइंसाफी का विरोध और उसके प्रति आक्रोश उनकी शख्सियत का अभिन्न अंग थे. फिर भी, वो हार मानने वालों वालों में नहीं, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से आशावादी थे.

विजय तेंदुलकर ने साल 1972 में प्रसिद्ध घासीराम कोतवाल नाटक लिखा थाफोटो:Twitter 

विजय तेंदुलकर ने साल 1972 में प्रसिद्ध घासीराम कोतवाल नाटक लिखा. ये नाटक 18वीं सदी में पुणे की राजनीतिक कुटिलता पर आधारित था. इस नाटक को उस वक्त दक्षिणपंथी ताकत के रूप में उभर रही शिव सेना का कोपभाजन बनना पड़ा. कोशिश की गई कि यूरोप में इस नाटक का मंचन न हो सके. आखिरकार, समझौता हुआ और हर नाटक के मंचन से पहले घोषणा की जाती कि इस नाटक का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है.

लेकिन कड़वी सच्चाईयों का भावनाओं की तुष्टि के साथ कभी भाईचारा नहीं रहा. कोर्ट चालू आहे (1967), गिधाडे (1970) और सखाराम बिन्दर (1972), कुछ ऐसे ही नाटक थे, जो शहरों में रहने वाले मध्यम वर्गीय जिदगी में बंद दरवाजों में होने वाली घरेलू हिंसा, यौन सम्बंधों और राजनीतिक हिंसा की साजिशों पर आधारित थे.  
सेंसरशिप और रूढ़ीवादी ताकतों से टकराव के साथ विजय तेंदुलकर चोली-दामन का रिश्ता थाफोटो:Twitter 

रूढ़ीवादी ताकतों से चोली-दामन का रिश्ता

जाहिर है सेंसरशिप और रूढ़ीवादी ताकतों से टकराव के साथ उनका चोली-दामन का रिश्ता था. जल्द ही लहरों के खिलाफ कलम चलाने की सोच ने विजय को नियम तोड़ने वाले थियेटर लेखक के रूप में प्रचारित कर दिया. इस सोच को साथ मिला, बादल सिरकार, मोहन राकेश, गिरीश कर्नाड और हबीब तनवीर जैसे कॉमरेड्स का. इन सबके साथ उन्होंने परम्परिक सोच को चुनौती देने की परम्परा को परवान चढ़ाया. इस परम्परा की पैनी धार न सिर्फ मराठी नाटकों में, बल्कि उनके साहित्यिक आलेखों, उपन्यासों, लघु कहानियों, पत्रकारिता और फिल्मी स्क्रिप्टों में भी दिखी.

6 जनवरी को विजय तेंदुलकर की 90वीं सालगिरह है. उनकी तपस्या का असर अब दिखने लगा है. समाज का एक विशाल तबका उनके विचारों से प्रभावित है. कुछ ऐसे लोग भी हैं जो उनकी सोच की नकल उतारने की ईमानदार कोशिश करते हैं.

विजय तेंदुलकर पर थियेटर के मशहूर कलाकार शांता गोखले को आश्चर्य होता था. अक्सर वो सवाल करते,

“आखिर ये सोच कहां से पैदा होती है? क्या उनके जेहन में कोई आदर्श पल रहा है, जिसकी वो नकल उतारते हैं?”

तेंदुलकर ने अपने पिता को भी नाटकों का रिहर्सल करते देखा था. लेकिन वो रिहर्सल उनके दिलो-जेहन में कोई गंभीर छाप नहीं छोड़ पाए. उनके हिसाब से उन नाटकों में अक्सर किरदार मंच पर खड़ा होते थे, और कुछ पंक्तियां बोल देते थे. नाटक का ये स्वरूप उन्हें नहीं पचा. दरअसल उनकी सोच की बुनियाद फिल्मों ने डाली. स्कूल के दिनों से ही वो ग्रेट गार्बो, पॉल मुनि, ग्रीर गार्सन, चार्ल्स लाफटन जैसे महान कलाकारों के दीवाने थे.

नाटक का एक दृश्य( फोटो: Padatik)

इन फिल्मों के ‘विषय, कहानियां, सीन प्रस्तुतिकरण और सबसे महत्त्वपूर्ण - दुनिया के प्रति सोच’ का उनकी सोच पर गहरा असर पड़ा. फिर उन्हें प्रभात स्टूडियो की फिल्म मानुष (1939) देखने को मिली. इस फिल्म ने उन्हें सिखाया कि डायलॉग सिर्फ रटकर नाटकीयता उत्पन्न करने के लिए प्रस्तुत नहीं किये जाते. किरदार का अभियन और संवाद अगर प्राकृतिक हो, तो वो अपने आप में गहरा नाटकीय प्रस्तुतिकरण हो जाता है.

टिनीज विलियम्स के नाटक A Streetcar Named Desire (1947) और 1943 में बंगाल में अकाल पर चित्तोप्रसाद के स्केच ने भी उनके प्लेराइट को प्रभावित किया. 

स्वतंत्रता आंदोलन का भी बने हिस्सा

जैसा हर विलक्षण प्रतिभा के साथ होता है, विजय तेंदुलकर की शुरुआत पर भी उनके परिवेश की छाप थी. उनकी पैदाइश मुंबई के गिरगांव में एक सामुदायिक वातावरण में हुई थी. रियल स्टेट के विकास ने अब उस वातावरण को इतिहास के पन्नों में समेट दिया है. विजय के पिता धोन्डोपंत एक क्लर्क थे, प्रकाशन का कारोबार करते थे और स्टेज पर अभिनय भी करते थे.

14 साल की उम्र में  विजय तेंदुलकर 1942 के स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बन गए थे फोटो:Twitter 

इस वातावरण में होश संभालने वाले धोन्डोपंत के बेटे ने छह साल की उम्र में ही एक नाटक का लेखन और निर्देशन कर डाला. उस बच्चे की स्कूली पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी. 14 साल के हुए तो 1942 के स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बन गए. ‘नवजीवन संगठन’ नामक एक वामपंथी पार्टी में शामिल हो गए. पार्टी के स्टडी सर्किल में भाग लेने के कारण कुछ दिनों सलाखों के पीछे भी रहे. सोच से वो मार्क्सवादी थे, लेकिन जल्द ही वामपंथी विचारधारा को उन्होंने ये कहते हुए अलविदा कह दिया, “कम्यूनिस्टों में सिर्फ बलिदान और अनुशासन की आदत मेरे लिए उनकी प्रशंसा का विषय हैं.”

व्यक्तिगत तौर पर वास्तविकता को समझना और उसका अनुभव करना ही उनकी सोच की बुनियाद थी. वो कहते, “मैं हवा में नहीं लिख सकता. मैं किसी किरदार की गहराई में गए बगैर उसके बारे में नहीं लिख सकता.”

बंद कमरे में कुर्सी पर बैठकर कलम चलाना उनकी आदत नहीं थी. पूरी जिदगी उनकी लेखनी में दूरदराज के गावों, छोटे कस्बों और महानगरों की चकाचौंध से दूर बस्तियों की झलक देखने को मिली. ये जरूर होता, कि अक्सर वो किसी होटल के कमरे में बंद हो जाते और ग्रामीण या शहरी वंचित समुदाय का ताकतवरों का हाथ शोषण से जुड़े अपने तजुर्बों को नाटक या फिल्म की शक्ल दे डालते.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

दशकों बाद तेंदुलकर की फिल्म स्क्रिप्ट और कहानियां, नई कहानियों के रूप में सामने आने लगीं. कई विषयों पर लिखी कहानियों को पुरस्कार मिला. स्वयं उन्हें भी 1984 में पद्म भूषण के सम्मान से नवाजा गया. हालांकि ये सब देख-सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या आज की तारीख में सिस्टम के खिला खिलाफ आवाज उठाने वाले को ये सम्मान मिल पाएगा? जवाब बिलकुल स्पष्ट है. कतई नहीं.

विजय तेंदुलकर से मेरी पहली मुलाकात फिल्मफेयर के लिए एक इंटरव्यू के दौरान हुई. मेरे सामने एक ऐसा शख्स था, जो कई मुद्दों पर जितना तीखा था, अन्य मुद्दों पर उतना ही सौम्य. निदेशक जब्बार पटेल ने हमारी मुलाकात शिवाजी पार्क के पास एक सामान्य से होटल में कराई थी. बातचीत शुरु होते ही उन्होंने मुझे इंटरव्यू नोट लिखने से मना कर दिया.

रिकॉर्डिंग के लिए अपना डिक्टाफोन मेरे हाथ में थमाते हुए कहा, “इसे रखो. जब इंटरव्यू की ट्रांस्क्रिशन कर लोगे, तो लौटा देना.” कोई उनकी वाहवाही करे, उनमें ये चाहत बिलकुल नहीं थी. न वो ये चाहते थे कि उनके नाटक घासीराम कोतवाल (1976) पर बनी फिल्म की भी कोई बिना वजह प्रशंसा करे. इस फिल्म को मणि कौल और के. हरिहरन ने पुणे स्थित फिल्म एंड टेलिविजिन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के कुछ स्नातकों के साथ मिलकर बनाया था.

फिल्म प्रिव्यू के लिए वो रात भर की यात्रा के पश्चात टैक्सी में बैठकर इंस्टीट्यूट पहुंचे. इंस्टीट्यूट में फिल्म का प्रिव्यू करते हुए उन्होंने अपने विचार प्रकट नहीं किये. लेकिन उनकी भाव-भंगिमा बता रही थी कि वो नाखुश थे. नाटक में दर्शकों तक जो बात सीधे पहुंचाई गई थी, फिल्म में उसे बिना वजह तोड़-मरोड़ दिया गया था. “चूंकि ये फिल्म एक प्रयोग है, लिहाजा मैं इसकी आलोचना नहीं करूंगा. फिर भी, फिल्म की धार हल्की है और वो सकारात्मक नहीं है. शैली को बनाए रखने के लिए तथ्यों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता. अंतिम शॉट बिना किसी कट के 10 मिनट का था. तकनीकी रूप से बेहतरीन था, मगर... ” इतना कहकर वो खामोश हो गए.

संयोग से ओम पुरी ने भी फिल्मों में अपना करियर घासीराम कोतवाल में अभिनय के साथ शुरु किया था
संयोग से ओम पुरी ने भी फिल्मों में अपना करियर घासीराम कोतवाल में अभिनय के साथ शुरु किया था. ओम के बारे में उनका कहना था, “आधुनिक अभिनेताओं में मैं ओम और नसीरुद्दीन शाह का प्रशंसक हूं. मुझे उम्मीद है कि वो अपना किरदार सोच-समझकर चुनेंगे.” हाल ही में उन्होंने बेज़ुबान (1982) देखी थी, जिसमें नसीरुद्दीन शाह ने एक बेरहम ब्लैकमेलर की भूमिका निभाई थी.
घासीराम कोतवाल में ओम पुरीफोटो: YouTube screengrab

उन्होंने लिखा, “नसीर का अभिनय बेमिसाल था. लेकिन कुछ जिम्मेदारियां भी होनी चाहिए. मुझे ऐसा लगा कि अंत में नसीर ने ब्लैकमेलिंग जैसे गुनाह को भी ग्लैमराइज कर दिया.”

तेंदुलकर की फ्रीक्वेंसी सीधे संदेश देने वाले निदेशक जब्बार पटेल के साथ मेल खाती थी. उनकी मराठी फिल्म सामना (1974) एक फिजूलखर्च और एक चीनी उद्यमी के बीच संघर्ष की कहानी थी. अम्ब्रेला (1982) एक महिला सुधार घर की महिला अधीक्षक की दृढ़ता की कहानी थी, जिसका ताना-बाना पूरी तरह कहानी के मूल संदेश के इर्द-गिर्द बुना गया था.

श्याम बेनेगल के साथ उनकी फिल्म निशांत (1975) अपना सबकुछ खो चुके एक सामंती परिवार की कहानी थी, जो महाभारत की परिकल्पना से बाहर निकलने को तैयार नहीं था. जबकि मंथन (1976) एक दूध कोओपरेटिव स्थापित करने के राह आनेवाली परेशानियों की कहानी थी. ये फिल्में समानान्तर सिनेमा के दौर में मील का पत्थर साबित हुईं.

गोविन्द निहलानी के साथ उनकी फिल्म आक्रोश (1980) एक सरकारी वकील की अनुसूचित जाति पर प्रताड़ना के खिलाफ संघर्ष की कहानी थी. अर्ध सत्य (1983) एक पुलिस अधिकारी का मनोवैज्ञानिक चरित्र चित्रण था, जो अपराध से निपटने में खुद को बेबस पाता था.

1984 में विजय तेंदुलकर को पद्म भूषण के सम्मान से नवाजा गया थाफोटो:Twitter 
राज कपूर (जो 1985 में राम तेरी गंगा मैली की स्क्रिप्ट पर काम कर रहे थे) और यश चोपड़ा की पेशकश उन्हें नहीं भाई. माना यही गया कि के. ए. अब्बास और कैफी आजमी जैसे बॉलीवुड के सिस्टम को आत्मसात करने वाले प्रोग्रेसिव लेखकों की जमात में वो शामिल नहीं हो सकते थे.  

निश्चित रूप से तेंदुलकर थियेटर के धनी थे. वो बार-बार कहते कि थियेटर के लिए काम करने में उन्हें अधिक आनंद आता है.

उनके नाटकों पर थियेटर आलोचक मुक्ता राजाध्यक्ष का कहना था, कि उनके नाटकों में “इंसानों की उन क्षमताओं का वर्णन होता था, जो लोगों को लगभग रातोंरात बदल देते हैं.” राजाध्यक्ष 1950 और 1960 के दशक में उनके नाटकों की याद दिलाते हैं, जो उन्होंने थियेटर के साथ नित नए प्रयोग करने वाले ग्रुप रंगायन के साथ किये. यहां उन्हें विजय मेहता, श्रीराम लागू, अरविंद और सुलभा देशपांडे जैसी शख्सियत के साथ काम करने का मौका मिला. उनकी मिराची गोष्टी (1981) नाटक महिला समलैंगिक सम्बंधों पर आधारित थी.

कमला (1981) एक पत्रकार के हाथों खुद बेचने वाली एक महिला की वास्तविक कहानी थी, जबकि कन्यादान (1983) ब्राह्मण परिवार की एक लड़की की कहानी थी, जो एक दलित के साथ विवाह करती है.  

एक नजर में आकलन की क्षमता

एक नजर में आकलन की क्षमता रखने वाली आंखों और पीछे की ओर बाल झाड़ने वाले चमत्कारिक व्यक्तित्व के मालिक विजय तेंदुलकर का चेहरा भावप्रण था. उनका चेहरा आसानी से पढ़ा जा सकता था, जो बाद में सफेद सन जैसी दाढ़ी में आधा छिप गया था.

(फोटो: Mitrapuran)

‘एक पागल का किरदार ‘ निभाने की तमन्ना

उनकी पत्नी निर्मला, पुत्र राजा और पुत्री प्रिया तेंदुलकर ने उनकी आंखों के सामने दम तोड़ा था. अस्सी साल की उम्र में उन्होंने भी इस जहान को अलविदा कह दिया. लेकिन अंत तक उनकी आंखों की आकलन करने की क्षमता स्पष्ट दिखती थी. प्रिंट और टेलिविजन में दिये उनके इंटरव्यू देखते हुए मैं उनके एक अजीबोगरीब बयान से रुबरु हुआ.

“मैं सपने नहीं देखता, लेकिन मेरी तमन्ना है कि मैं सपने देखूं. एक विदूषक की भूमिका में दिखूं, एक पागल का किरदार निभाऊं.”

तो क्या पागलपन उनकी शख्सियत का हिस्सा था? जवाब है नहीं. और नाइंसाफी के खिलाफ मोर्चा लेने वाला एक सिपाही? निश्चित रूप से जवाब है, हां.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 06 Jan 2019,10:43 AM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT