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भारतेंदु हरिश्‍चंद्र ने बरसों पहले ही देख ली थी आज की ‘अंधेर नगरी’

हिंदी के मीर तकी मीर हैं भारतेंदु

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कहीं अंधेर नगरी के मंच पर तो नहीं जी रहे हैं हम?

मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं, वजह सुनिए.

  • अगर हमारे जीवन में मौजूद उदासी को मंच के बैकड्रॉप में इस्तेमाल होने वाला काला पर्दा माना जाए
  • अगर हमारे होने को मंच पर मौजूद किरदार माना जाए
  • अगर माना जाए कि सदियों की मान्यताओं और संस्कारों से लदा भारतवर्ष एक स्टेज है
  • हम सब स्टेज पर अलग अलग स्पॉट में हैं. मंच के पीछे से आ रही आवाजें, संगीत और धुआं, उधेड़बुन का मिला-जुला माहौल बना रहे हैं

तो इस काल्पनिक/वास्तविक कालखंड में चल रहे जिस नाटक को दर्शक देख रहे हैं, हम उसे अंधेर नगरी चौपट राजा कह सकते हैं.

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भारत का चंद्रमा

6 दृश्यों का ये नाटक भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा था. इससे पहले कि हम नाटक की विवेचना करें और फिर ढूंढें कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं, भारतेंदु के बारे में कुछ बातें कर लेते हैं.

6 जनवरी 1885 को दुनिया छोड़ने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी भाषा के निर्माण में  योगदान का वही श्रेय दिया जाता है, जो मीर तकी मीर को उर्दू का.

भारतेंदु का जन्म 9 सितंबर, 1850 को काशी में हुआ, यानी महज 35 साल की उम्र में उनका निधन हो गया था. 15 साल की उम्र में लिखना शुरू कर भारतेंदु ने 18 साल की उम्र में कविवचन सुधा नाम की पत्रिका संपादित की. 23 साल की उम्र में हरिश्चन्द्र मैगजीन और  24 की उम्र में लड़कियों की पढ़ाई पर केंद्रित बाला बोधिनी निकाली.

ये उस वक्त की बात है, जब फेमिनिज्म नाम के शब्द का हल्ला नहीं था. तब लड़कियों की पढ़ाई को उसी नजर से देखा जाता था, जितना आज भी हरियाणा के कई इलाकों में लड़कियों के पैदा होने को माना जाता है. खैर....

उससे पहले भारतेंदु 20 साल की उम्र में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनाए जा चुके थे. महज 5 साल की उम्र में उनकी मां और 10 साल की उम्र में उनके पिता का देहांत हो चुका था. मूलतः उन्होंने नाटक और कविताएं लिखीं. उनके नाटकों का प्रभाव हिंदी फिल्मों की पटकथाओं में दिखता है. 1880 में उन्हें भारतेंदु की उपाधि मिली, जिसका अर्थ है भारत का चंद्रमा.

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अंधेर नगरी चौपट राजा

अब हम लौटते हैं भारतेंदु के कालजयी नाटक अंधेर नगरी चौपट राजा पर. लेकिन नाटक पर आने से पहले कुछ सवाल.

क्या आपको कभी महसूस हुआ है कि आपके इलाके का विधायक एक नाकाबिल व्यक्ति है, बेमतलब के आदेश देता है, उसमे तार्किकता की कमी है और मुद्दों को समझने, लागू करने की काबिलियत नहीं है.

ये बात किसी कंपनी के बॉस, स्कूल के प्रिंसिपल या किसी मंत्री पर भी लागू हो सकती है. ये हर उस व्यक्ति पर लागू होती है, जो एक ऐसी कुर्सी पर बैठा है, जिसके वो काबिल नहीं है. नाकाबिल व्यक्ति जब पावर में आता है, तो परेशानी दूसरों को उठानी पड़ती है.

‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ एक ऐसे ही राजा के बारे में है, जो तुनकमिजाज है, मूर्ख है, असंवेदनशील है और फैसले लेने में अक्षम है. उसकी प्रजा को इस कारण तकलीफ उठानी पड़ रही है.

नाटक के पांचवें दृश्य को पढ़िए और सोचिए कि कहीं आप गोवर्धन दास नाम के वो किरदार तो नहीं, जो कहता है:

गुरुजी ने हमको नाहक यहां रहने को मना किया था. माना कि देश बहुत बुरा है. पर अपना क्या? अपन किसी राजकाज में थोड़े हैं कि कुछ डर है. रोज मिठाई चाभना और मजे में आनन्द से राम-भजन करना.

कहीं आप ऐसा ही तो नहीं सोचते कि माना देश बुरा है लेकिन अपना क्या?

नाटक में आगे इसी गोवर्धन दास को दो सिपाही बिना किसी बात गिरफ्तार कर लेते हैं और फांसी के लिए ले जाने लगते हैं. जब वो इसकी वजह पूछता है, तो जवाब मिलता है:

बात ये है कि कल कोतवाल को फांसी का हुकुम हुआ था. जब फांसी देने को उसको ले गए, तो फांसी का फंदा बड़ा हुआ, क्योंकि कोतवाल साहब दुबले हैं. हम लोगों ने महाराज से अर्ज किया, इस पर हुक्म हुआ कि एक मोटा आदमी पकड़ कर फांसी दे दो, क्योंकि बकरी मारने के अपराध में किसी न किसी की सजा होनी जरूर है, नहीं तो न्याय न होगा. इसी वास्ते हम तुम को ले जाते हैं कि कोतवाल के बदले तुमको फांसी दें.

गोवर्धन दास पूछता है:

तो क्या और कोई मोटा आदमी इस नगर भर में नहीं मिलता, जो मुझ अनाथ फकीर को फांसी देते हो?

सिपाही का जवाब:

इसमें दो बात है. एक तो नगर भर में राजा के न्याय के डर से कोई मुटाता ही नहीं, दूसरे और किसी को पकड़ें, तो वह न जाने क्या बात बनावे कि हमीं लोगों के सिर कहीं न घहराय और फिर इस राज में साधु महात्मा इन्हीं लोगों की तो दुर्दशा है, इसलिए तुम्हीं को फांसी देंगे.

आगे बेगुनाह गोवर्धन दास मन ही मन स्वयं से कहता है:

हाय! मैं ने गुरुजी का कहना न माना, उसी का यह फल है. गुरुजी ने कहा था कि ऐसे नगर में नहीं रहना चाहिए, यह मैंने नहीं सुना. अरे, इस नगर का नाम ही अंधेर नगरी और राजा का नाम चौपट है, तब बचने की क्या आशा है. अरे, इस नगर में ऐसा कोई धर्मात्मा नहीं है, जो फकीर को बचावे. गुरु जी कहां हो? बचाओ गुरुजी... गुरुजी..

तो इस कारण मैं कह रहा था कि कहीं आप ही वो किरदार तो नहीं? और हां, मैं ये सब बातें नाटक के बारे में कह रहा हूं. अगर आप ये पढ़कर कुछ और सोचने लगे, आपका ध्यान कहीं और गया तो उसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं. ये सिर्फ आपकी अच्छी कल्पनाशक्ति और भारतेंदु हरीशचंद्र की कलम का जादू है.

(भोपाल के मानस भारद्वाज कवि और थियेटर आर्टिस्‍ट हैं. फिलहाल मुंबई में रहकर कला-संस्‍कृति के क्षेत्र में काम कर रहे हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति जरूरी नहीं है)

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