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फिर जाड़ा आया फिर गर्मी आई
फिर आदमियों के पाले से लू से मरने की खबर आई
न जाड़ा ज्यादा था न लू ज्यादा
तब कैसे मरे आदमी
वे खड़े रहते हैं तब नहीं दिखते
मर जाते हैं तब लोग जाड़े और लू की मौत बताते हैं
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित किताब 'रघुवीर सहाय की प्रतिनिधि कविताएं' के संपादक सुरेश शर्मा लिखते हैं, "उनका काव्य उनके पत्रकार व्यक्तित्व से पैदा होता है. सहाय जी का सौंदर्यशास्त्र खबर का सौंदर्यशास्त्र है. इसलिए उनकी भाषा खबर की भाषा है और ज्यादातर कविताओं की विषयवस्तु खबरधर्मी. वे अपनी कविताओं के विषय समाज में मुनष्य की बदलती जीव-स्थितियों में तलाशते हैं. भारतीय लोकतंत्र पद्धति में मतदाताओं की अरक्षित-असहाय जिंदगी की खबरें उन्होंने अपनी कविताओं में लिखी हैं."
प्रगतिशील काव्यधारा के अंतर्गत आने वाली 'नई कविता' शैली के प्रतिनिधि कवि हैं रघुवीर सहाय. उनकी कविताओं में समाज की विसंगतियों का चेहरा यथार्थ स्वर में देखने को मिलता है, जो मूल रूप से आजादी के बाद के भारत के शुरुआती दशकों का यथार्थ है.
रघुवीर सहाय ने लंबे समय तक संवाददाता, संपादक, समीक्षक, कथाकार और कवि के तौर पर उन विषयों को छुआ, जिन पर तब तक साहित्य जगत में बहुत कम लिखा गया था. उन्होंने अपने पत्रकारिता संस्कारों के साथ आम आदमी से जुड़े मुद्दों का सौंदर्य शास्त्र उसी की भाषा में पेश कर एकदम नया काव्य शिल्प गढ़ा और आधुनिक हिंदी साहित्य को एक नए मायने देने की कोशिश की.
अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित 'दूसरा सप्तक' के कवियों में शुमार रघुवीर सहाय समकालीन हिन्दी कविता के एक अहम स्तंभ माने जाते हैं. उन्होंने साहित्य के जरिये आम घटनाओं और सामाजिक तथ्यों के भीतर छिपी संवेदनाओं को सामने लाने की कोशिश की. उनकी कविता समाज के मध्य में रहते हुए उसके मुद्दों को उठाने और मानवीय खबरों के अधूरेपन को दूर करने की पक्षधर हैं. उनके साहित्य में पत्रकारिता का और उनकी पत्रकारिता पर साहित्य का गहरा असर रहा है.
सहाय की कविताएं आजादी के बाद, खासतौर से सन 60 के बाद के वर्षों में भारत की तस्वीर को पेश करती हैं. ये एक ऐसा भारत था, जो समय के साथ तरक्की तो कर रहा था, लेकिन इसके साथ ही देश अन्याय, गैर बराबरी, और सबल वर्ग द्वारा निर्बल वर्ग के शोषण जैसी कई सामाजिक समस्याओं से भी जूझ रहा था. जिन अरमानों और सपनों से आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी उन्हें साकार करने में जो बाधाएं आ रही हों, उनका लगातार विरोध करना उनकी लेखनी का रचनात्मक लक्ष्य रहा है.
9 दिसंबर 1929 को लखनऊ में जन्में रघुवीर सहाय ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से 1951 में इंग्लिश लिटरेचर से एमए किया. उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित अखबार 'नवजीवन' से 1949 में पत्रकारिता के सफर की शुरुआत की. 1951 में वे दिल्ली आ गए और एक साल तक 'प्रतीक' में बतौर सहायक संपादक काम किया. इसके बाद 1957 तक वे आकाशवाणी के समाचार विभाग में उपसंपादक रहे. इसके बाद वे 'नवभारत टाइम्स' में विशेष संवाददाता रहे. 1969 से 1982 तक वे 'दिनमान' के प्रधान संपादक रहे. उन्होंने 1982 से 1990 तक स्वतंत्र लेखन किया. यही वजह है कि उनकी कविताओं में पत्रकारिता का तेवर और तजुर्बा दिखाई देता है.
हंसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है
हंसो अपने पर न हंसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे
दूसरा सप्तक, सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हंसो हंसो जल्दी हंसो, कुछ पते कुछ चिट्ठियां, एक समय था उनके कविता संग्रह है. कविता संग्रह 'लोग भूल गए हैं' के लिए रघुवीर सहाय को 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. दिल्ली मेरा परदेस, लिखने का कारण, ऊबे हुए सुखी, वे और नहीं होंगे जो मारे जाएंगे, भंवर लहरें और तरंग, अर्थात उनके निबंध संग्रह है. इसके अलावा, रास्ता इधर से है, जो आदमी हम बना रहे हैं उनके लिखे हुए कहानी संग्रह है. 30 दिसंबर, 1990 को दिल्ली में रघुवीर सहाय ने दुनिया को अलविदा कहा.
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