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यशपाल को नमन | समाज का ‘झूठा सच’ उजागर करने वाले यशस्वी साहित्यकार

सुनिए, यशपाल की जिंदगी का सफर और उनकी कहानी ‘अखबार में नाम’

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यशपाल देश के उन चुनिंदा यशस्‍वी साहित्‍यकारों में गिने जाते हैं, जिन्‍होंने बंदूक से क्रांति की आवाज बुलंद करने के साथ-साथ कलम चलाकर भी समाज को झकझोरा. 26 दिसंबर को यशपाल की पुण्‍यतिथि‍‍ है. इसी बहाने उनके जीवन और कृतियों पर डालते हैं एक नजर.

यशपाल का जन्‍म 3 दिसंबर, 1903 को पंजाब के फिरोजपुर छावनी में हुआ था. छात्र जीवन में ही उनके मन में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चिंगारी भड़क चुकी थी.

लाहौर में नेशनल कॉलेज में वे भगतसिंह, सुखदेव और भगवतीचरण बोहरा के संपर्क में आए और 'नौजवान भारत सभा' से जुड़े.

यशपाल क्रांतिकारी जीवन के दौरान 1932 में गिरफ्तारी के बाद जेल भेज दिए गए. उन्हें 14 साल की सजा हुई, लेकिन 1938 में यूपी में कांग्रेस मंत्रिमंडल बनने पर रिहा कर दिए गए. जेल से आने के बाद उन्‍होंने 'विप्लव' मासिक का प्रकाशन और संपादन किया. इस पत्र‍िका को लोगों ने हाथों-हाथ लपक लिया. 1941 में इनकी फिर गिरफ्तारी के बाद 'विप्लव' बंद हो गया.

भारत के स्‍वाधीनता संघर्ष में बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लेने वाले यशपाल ने कलम के जरिए भी साहित्‍य की भरपूर सेवा की. 1970 में पद्मभूषण से नवाजा गया. ‘मेरी, तेरी, उसकी बात’ उपन्‍यास पर यशपाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया.

उन्‍होंने कथा-कहानियों, उपन्‍यास, व्‍यंग्‍य, संस्‍मरण आदि के जरिए समाज की हकीकत और मानव मन की परतों को सामने लाने की भरपूर कोशिश की. इनका उपन्‍यास 'झूठा-सच' बेहद चर्चित रहा है, जिसमें देश के विभाजन की त्रासदी की जीवंत तस्‍वीर खींची गई है.

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प्रमुख कृतियां

उपन्यास: झूठा सच, दिव्या, देशद्रोही, दादा कामरेड, अमिता, मनुष्य के रूप, मेरी तेरी उसकी बात, क्यों फंसें

कहानी संग्रह: धर्मयुद्ध, पिंजरे की उड़ान, सच बोलने की भूल, फूलो का कुर्ता, ज्ञानदान, भस्मावृत्त चिनगारी

व्यंग्य संग्रह: चक्कर क्लब

संस्मरण: सिंहावलोकन

वैचारिक साहित्य: गांधीवाद की शवपरीक्षा

प्रकाशन व संपादन: विप्लव

यशपाल की एक बेहद चर्चित कहानी है 'अखबार में नाम'. कहानी एक ऐसे युवक के इर्द-गिर्द घूमती है, जो किसी भी तरह चर्चित होने की चाहत तो रखता है, पर उसे इसका मौका नहीं मिलता. आखिरकार इस युवक का नाम एक बार अखबार में भी छपा...पर कब और किस वजह से??? ये कहानी शुरू से अंत तक पाठकों को बांधकर रखती है. आप भी इस बेजोड़ कहानी का आनंद लीजिए और कथाकार को शत-शत नमन कीजिए.

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अखबार में नाम

जून का महीना था, दोपहर का समय और धूप कड़ी थी. ड्रिल-मास्टर साहब ड्रिल करा रहे थे.

मास्टर साहब ने लड़कों को एक लाइन में खड़े होकर डबलमार्च करने का आर्डर दिया. लड़कों की लाइन ने मैदान का एक चक्कर पूरा कर दूसरा आरम्भ किया था कि अनन्तराम गिर पड़ा.

मास्टर साहब ने पुकारा, ‘हाल्ट!’ लड़के लाइन से बिखर गये.

मास्टर साहब और दो लड़कों ने मिलकर अनन्त को उठाया और बरामदे में ले गये. मास्टर साहब ने एक लड़के को दौड़कर पानी लाने का हुक्म दिया. दो-तीन लड़के स्कूल की कापियां लेकर अनन्त को हवा करने लगे. अनन्त के मुंह पर पानी के छींटे मारे गये. उसे होश आते-आते हेडमास्टर साहब भी आ गये और अनन्तराम के सिर पर हाथ फेरकर, पुचकारकर उन्होंने उसे तसल्ली दी.

स्कूल का चपरासी एक तांगा ले आया. दो लड़कों के साथ ड्रिल मास्टर अनन्तराम को उसके घर पहुंचाने गये. स्कूल-भर में अनन्तराम के बेहोश हो जाने की खबर फैल गयी. स्कूल में सब उसे जान गये.

लड़कों के धूप में दौड़ते समय गुरदास लाइन में अनन्तराम से दो लड़कों के बाद था. यह घटना और काण्ड हो जाने के बाद वह सोचता रहा, ‘अगर अनन्तराम की जगह वही बेहोश होकर गिर पड़ता, वैसे ही उसे चोट आ जाती तो कितना अच्छा होता?’ आह भरकर उसने सोचा, ‘सब लोग उसे जान जाते और उसकी खातिर होती.’

श्रेणी में भी गुरदास की कुछ ऐसी ही हालत थी. गणित के मास्टर साहब सवाल लिखाकर बेंचों के बीच में घूमते हुए नजर डालते रहते थे कि कोई लड़का नकल या कोई दूसरी बेजा हरकत तो नहीं कर रहा. लड़कों के मन में यह होड़ चल रही होती कि सबसे पहले सवाल पूरा करके कौन खड़ा हो जाता है.

गुरदास बड़े यत्न से अपना मस्तिष्क कापी में गड़ा देता. उंगलियों पर गुणा और योग करके उत्तर तक पहुंच ही रहा होता कि बनवारी सवाल पूरा करके खड़ा हो जाता. गुरदास का उत्साह भंग हो जाता और दो-तीन पल की देर यों भी हो जाती.

कभी-कभी सबसे पहले सवाल कर सकने की उलझन के कारण कहीं भूल भी हो जाती. मास्टर साहब शाबाशी देते तो बनवारी और खन्ना को और डांटते तो खलीक और महेश का ही नाम लेकर. महेश और खलीक न केवल कभी सवाल पूरा करने की चिन्ता करते, बल्कि उसके लिए लज्जित भी न होते.

नाम जब कभी लिया जाता तो बनवारी, खन्ना, खलीक और महेश का ही, गुरदास बेचारे का कभी नहीं. ऐसी ही हालत व्याकरण और अंग्रेजी की क्लास में भी होती. कुछ लड़के पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज होने की प्रशंसा पाते और कोई डांट-डपट के प्रति निर्द्वन्द्व होने के कारण बेंच पर खड़े कर दिये जाने से लोगों की नजर में चढ़कर नाम कमा लेते. गुरदास बेचारा दोनों तरफ से बीच में रह जाता.

इतिहास में गुरदास की विशेष रुचि थी. शेरशाह सूरी और खिलजी की चढ़ाइयों और अकबर के शासन के वर्णन उसके मस्तिष्क में सचित्र होकर चक्कर काटते रहते, वैसे ही शिवाजी के अनेक किले जीतने के वर्णन भी. वह अपनी कल्पना में अपने-आपको शिवाजी की तरह ऊंची, नोकदार पगड़ी पहने, छोटी दाढ़ी रखे और वैसा ही चोगा पहने, तलवार लिये सेना के आगे घोड़े पर सरपट दौड़ता चला जाता देखता.

इतिहास को यों मनस्थ कर लेने या इतिहास में स्वयं समा जाने पर भी गुरदास को इन महत्वपूर्ण घटनाओं की तारीखें और सन् याद न रहते थे क्योंकि गुरुदास के काल्पनिक ऐतिहासिक चित्रों में तारीखों और सनों का कोई स्थान न था. परिणाम यह होता कि इतिहास की क्लास में भी गुरदास को शाबाशी मिलने या उसके नाम पुकारे जाने का समय न आता.

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सबके सामने अपना नाम पुकारा जाता सुनने की गुरदास की महत्वाकांक्षा उसके छोटे-से हृदय में इतिहास के अतीत के बोझ के नीचे दबकर सिसकती रह जाती. तिस पर इतिहास के मास्टर साहब का प्राय: कहते रहना कि दुनिया में लाखों लोग मरते जाते हैं परन्तु जीवन वास्तव में उन्हीं लोगों का होता है जो मरकर भी अपना नाम जिन्दा छोड़ जाते हैं, गुरदास के सिसकते हृदय को एक और चोट पहुंचा देता.

गुरदास अपने माता-पिता की सन्तानों में तीन बहनों का अकेला भाई था. उसकी मां उसे राजा बेटा कहकर पुकारती थी. स्वयं पिता रेलवे के दफ्तर में साधारण क्लर्की करते थे. कभी कह देते कि उनका पुत्र ही उनका और अपना नाम कर जायेगा. ख्याति और नाम की कमाई के लिए इस प्रकार निरन्तर दी जाती रहने वाली उत्तेजनाओं के बावजूद गुरदास श्रेणी और समाज में अपने-आप को किसी अनाज की बोरी के करोड़ों एक ही से दानों में से एक साधारण दाने से अधिक अनुभव न कर पाता था.

ऐसा दाना कि बोरी को उठाते समय वह गिर जाये तो कोई ध्यान नहीं देता. ऐसे समय उसकी नित्य कुचली जाती महत्वाकांक्षा चीख उठती कि बोरी के छेद से सड़क पर उसके गिर जाने की घटना ही ऐसी क्यों न हो जाए कि दुनिया जान ले कि वह वास्तव में कितना बड़ा आदमी है और उसका नाम मोटे अक्षरों में अखबारों में छप जाए. गुरदास कल्पना करने लगता कि वह मर गया है परन्तु अखबारों में मोटे अक्षरों में छपे अपने नाम को देखकर, मृत्यु के प्रति विद्रूप से मुस्करा रहा है, मृत्यु उसे समाप्त न कर सकी.

आयु बढ़ने के साथ-साथ गुरदास की नाम कमाने की महत्वाकांक्षा उग्र होती जा रही थी, परन्तु उस स्वप्न की पूर्ति की आशा उतनी ही दूर भागती जान पड़ रही थी. बहुत बड़ी-बड़ी कल्पनाओं के बावजूद वह अपने पिता पर कृपा-दृष्टि रखनेवाले एक बड़े साहब की कृपा से दफ्तर में केवल क्लर्क ही बन पाया.

जिन दिनों गुरदास अपने मन को समझाकर यह सन्तोष दे रहा था कि उसके मुहल्ले के हजार से अधिक लोगों में से किसी का भी तो नाम कभी अखबार में नहीं छपा, तभी उसके मुहल्ले के एक नि:सन्तान लाला ने अपनी आयु भर का संचित गुप्तधन प्रकट करके अपने नाम से एक स्कूल स्थापित करने की घोषणा कर दी.

लालाजी का अखबार में केवल नाम ही प्रशंसा-सहित नहीं छपा, उनका चित्र भी छपा. गुरदास आह भरकर रह गया. साथ ही अखबार में नाम छपवाकर, नाम कमाने की आशा बुझती हुई चिनगारियों पर राख की एक और तह पड़ गयी. गुरदास ने मन को समझाया कि इतना धन और यश तो केवल पूर्वजन्म के कर्मों के फल से ही पाया जा सकता है. इस जन्म में तो ऐसे अवसर और साधन की कोई आशा उस जैसों के लिए हो ही नहीं सकती थी.

उस साल वसन्त के आरम्भ में शहर में प्लेग फूट निकला था. दुर्भाग्य से गुरदास के गरीब मुहल्ले में गलियां कच्ची और तंग होने के कारण, बीमारी का पहला शिकार, उसी मुहल्ले में दुलारे नाम का व्यक्ति हुआ.

मुहल्ले की गली के मुहाने पर रहमान साहब का मकान था. रहमान साहब ने आत्म-रक्षा और मुहल्ले की रक्षा के विचार से छूत की बीमारी के हस्पताल को फोन करके एम्बुलेंस गाड़ी मंगवा दी. बहुत लोग इकट्ठे हो गये. दुलारे को स्ट्रेचर पर उठाकर मोटर पर रखा गया और हस्पताल पहुंचा दिया गया. म्युनिसिपैलिटी ने उसके घर की बहुत जोर से सफाई की. मुहल्ले के हर घर में दुलारे की चर्चा होती रही.

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गुरदास संध्या समय थका-मांदा और झुंझलाया हुआ दफ्तर से लौट रहा था. भीड़ में से अखबारवाले ने पुकारा, ‘आज शाम की ताजा अखबार. नाहर मुहल्ले में प्लेग फूट निकला. आज की खबरें पढ़िये.’

अखबार में अपने मुहल्ले का नाम छपने की बात से गुरदास सिहर उठा. उसके मस्तिष्क में चमक गया… ओह, दुलारे की खबर छपी होगी. अखबार प्राय: वह नहीं खरीदता था, परन्तु अपने मुहल्ले की खबर छपी होने के कारण उसने चार पैसे खर्च कर अखबार ले लिया. सचमुच दुलारे की खबर पहले पृष्ठ पर ही थी. लिखा था, ‘बीमारी की रोक-थाम के लिए सावधान.’ और फिर दुलारे का नाम और उसकी खबर ही नहीं, स्ट्रेचर पर लेटे हुए, घबराहट में मुंह खोले हुए दुलारे की तस्वीर भी थी.

गुरदास ने पढ़ा कि बीमारी का इलाज देर से आरम्भ होने के कारण दुलारे की अवस्था चिन्ताजनक है. पढ़कर दुख हुआ. फिर ख्याल आया इस आदमी का नाम अखबार में छप जाने की क्या आशा थी? पर छप ही गया.

अपना-अपना भाग्य है, एक गहरी सांस लेकर गुरदास ने सोचा. दुलारे की अवस्था चिन्ताजनक होने की बात से दुख भी हुआ. फिर ख्याल आया देखो, मरते-मरते नाम कर ही गया. मरते तो सभी हैं पर यह बीमारी की मौत फिर भी अच्छी! ख्याल आया, कहीं बीमारी मुझे भी न हो जाये. भय तो लगा पर यह भी ख्याल आया कि नाम तो जिसका छपना था, छप गया. अब सबका नाम थोड़े ही छप सकता है.

खैर, दुलारे अगर बच न पाया तो अखबार में नाम छप जाने का फायदा उसे क्या हुआ? मजा तो तब है कि बेचारा बच जाए और अपनी तस्वीर वाले अखबार को अपनी कोठरी में लटका ले…!

गुरदास को होश आया तो उसने सुना, ‘इधर से सम्भालो! ऊपर से उठाओ!’ कूल्हे में बहुत जोर से दरद हो रहा था. वह स्वयं उठ न पा रहा था. लोग उसे उठा रहे थे.

‘हाय! हाय मां!’ उसकी चीखें निकली जा रही थी. लोगों ने उठा कर उसे एक मोटर में डाल दिया.

हस्पताल पहुंचकर उसे समझ में आया कि वह बाजार में एक मोटर के धक्के से गिर पड़ा था. मोटर के मालिक एक शरीफ वकील साहब थे. उस घटना के लिए बहुत दुख प्रकट कर रहे थे. एक बच्चे को बचाने के प्रयत्न में मोटर को दायीं तरफ जल्दी से मोड़ना पड़ा. उन्होंने बहुत जोर से हार्न भी बजाया और ब्रेक भी लगाया पर ये आदमी चलता-चलता अखबार पढ़ने में इतना मगन था कि उसने सुना ही नहीं.

गुरदास कूल्हे और घुटने के दरद के मारे कराह रहा था. कुछ सोचना समझना उसके बस की बात ही न थी.

डाक्टर ने गुरदास को नींद आने की दवाई दे दी. वह भयंकर दरद से बचकर सो गया. रात में जब नींद टूटी तो दरद फिर होने लगा और साथ ही ख्याल भी आया कि अब शायद अखबार में उसका नाम छप ही जाये. दरद में भी एक उत्साह-सा अनुभव हुआ और दरद भी कम लगने लगा. कल्पना में गुरदास को अखबार के पन्ने पर अपना नाम छपा दिखायी देने लगा.

सुबह जब हस्पताल की नर्स गुरदास के हाथ-मुंह धुलाकर उसका बिस्तर ठीक कर रही थी, मोटर के मालिक वकील साहब उसका हाल-चाल पूछने आ गये.

वकील साहब एक स्टूल खींचकर गुरदास के लोहे के पलंग के पास बैठ गये और समझाने लगे, ‘देखो भाई, ड्राइवर बेचारे की कोई गलती नहीं थी. उसने तो इतने जोर से ब्रेक लगाया कि मोटर को भी नुकसान पहुंच गया. उस बेचारे को सजा भी हो जायेगी तो तुम्हारा भला हो जायेगा? तुम्हारी चोट के लिए बहुत अफसोस है. हम तुम्हारे लिये दो-चार सौ रुपये का भी प्रबन्ध कर देंगे. कचहरी में तो मामला पेश होगा ही, जैसे हम कहें, तुम बयान दे देना; समझे…!’

गुरदास वकील साहब की बात सुन रहा था पर ध्यान उसका वकील साहब के हाथ में गोल-मोल लिपटे अखबार की ओर था. रह न सका तो पूछ बैठा, ‘वकील साहब, अखबार में हमारा नाम छपा है? हमारा नाम गुरदास है. मकान नाहर मुहल्ले में है.’

वकील साहब की सहानुभूति में झुकी आंखें सहसा पूरी खुल गयीं, ‘अखबार में नाम?’ उन्होंने पूछा, ‘चाहते हो? छपवा दें?’

‘हां साहब, अखबार में तो जरूर छपना चाहिए.’ आग्रह और विनय से गुरदास बोला.

‘अच्छा, एक कागज पर नाम-पता लिख दो.’ वकील साहब ने कलम और एक कागज गुरदास की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘अभी नहीं छपा तो कचहरी में मामला पेश होने के दिन छप जायेगा, ऐसी बात है.’

गुरदास को लंगड़ाते हुए ही कचहरी जाना पड़ा. वकील साहब की टेढ़ी जिरह का उत्तर देना सहज न था, आरम्भ में ही उन्होंने पूछा- ‘तुम अखबार में नाम छपवाना चाहते थे?’

‘जी हां.’ गुरदास को स्वीकार करना पड़ा.

‘तुम्हें उम्मीद थी कि मोटर के नीचे दब जानेवाले आदमी का नाम अखबार में छप जायेगा?’ वकील साहब ने फिर प्रश्न किया.

‘जी हां!’ गुरदास कुछ झिझका पर उसने स्वीकार कर लिया.

अगले दिन अखबार में छपा, ‘मोटर दुर्घटना में आहत गुरदास को अदालत ने हर्जाना दिलाने से इनकार कर दिया. आहत के बयान से साबित हुआ कि अखबार में नाम छपाने के लिए ही वह जान-बूझकर मोटर के सामने आ गया था…’

गुरदास ने अखबार से अपना मुंह ढांप लिया, किसी को अपना मुंह कैसे दिखाता…

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