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सआदत हसन अली 'मंटो' ने एक बार खुद के बारे में कहा था, "ऐसा होना मुमकिन है कि सआदत हसन मर जाए और मंटो जिंदा रहे." और इत्तेफाक देखिए कि ऐसा हो गया. मंटों की हजारों छवियां हैं. सकीना की खुली सलवार के जरिए हमारी तहजीब की धज्जियां उड़ा मंटों जो बड़ी अकड़ के साथ कहता था, "मैं सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्जियों का काम है.” या फिर टोबा टेक सिंह की तरह नो मैंस लैंड पर खड़ा होकर बदहवासी की हालत में विभाजन के कत्ल-ओ-गारत को देखता मंटो.
जिस मंटो पर फिल्म बन रही है, किसी दौर में मंटो इसी शहर की गलियों में आवारा की तरह भटका करते थे. वो खुद को 'चलता-फिरता बॉम्बे' कहते थे. विभाजन के बाद उन्हें बॉम्बे छोड़ना पड़ा. मंटो की कलम ने इतिहास के इस नाजुक मौके को कुछ इस तरह दर्ज किया-
मंटो पाकिस्तान छोड़कर चले तो गए थे लेकिन उनका बॉम्बे उनके साथ ही नत्थी होकर चला गया था. बॉम्बे छोड़ने के करीब पौने चार साल बाद उन्होंने लाहौर की एक साहित्यिक महफिल में मंटो अपने बारे यह कहते हुए पाए गए कि वो खुद चलता-फिरता बॉम्बे हैं. बाद में उन्होंने मीना बाजार नाम से एक किताब लिखी. इसमें उन्होंने अशोक कुमार, नूरजहां, नरगिस जैसे चोटी के सितारों के साथ बिताए वक्त का जिक्र किया है.
किस्सा तब का है जब मंटो फिल्मिस्तान स्टूडियो में काम किया करते थे और अपनी बीवी साफिया और दो सालियों के साथ बायकला चौक के पास रहा करते थे. जिस समय वो अपने दफ्तर में हुआ करते थे पीछे से उनकी बीवी और दोनों सालियां मजे के लिए अलग-अलग फिल्मी हस्तियों के घर फोन लगाकर खूब बातें किया करतीं. इस दौरान वो अपनी पहचान छुपाए रहतीं. ऐसे ही मजे-मजे में उन्होंने एक बार नरगिस के यहां फोन मिला दिया. मंटो की सालियां और नरगिस हमउम्र थीं. तीनों में खूब पटरी बैठने लगी. बातचीत का सिलसिला मुलाकात के नुक्ते पर आकर ठहर गया . मंटो की सालियों ने नरगिस को घर आने का न्योता दिया.
इत्तफाकन मंटो उसी रोज फिल्मिस्तान से दोपहर में ही घर लौट आए. इधर नरगिसस अपनी मां के साथ एक लंबी सी कार में बायकला चौक पर खड़ी थीं, उधर मंटो की आमद की वजह से साफिया अपने घर में घबराई सी खड़ी थीं. मंटो को जब पूरे मामले की जानकारी मिली तो खुद नरगिस को लेने बायकाला चौक पहुंच गए. यह नरगिस की उनके घर में पहली आमद थी. इसके बाद वो कभी भी उनके घर आ धमकतीं.
अब तक नरगिस तकदीर, हुमायूं और रामायणी जैसी फिल्मों की वजह से काफी नाम कमा चुकी थीं वो मंटो की नजर में कच्ची अदाकारा थीं. उनकी अदाकारी का जिक्र करते हुए मंटो लिखते हैं-
हिंदी सिनेमा के शुरुआती दिनों में ज्यादातर अदाकारा कोठे या पारसी थियेटर से होते हुए सिनेमा के परदे पर पहुंचा करती. नूरजहां भी उसी पीढ़ी की अदाकारा थीं, जिन्होंने अपनी एक्टिंग की बजाय आवाज के लिए नाम कमाया था. मंटो के शब्दों में कहा जाए तो उनकी आवाज कयामतखेज थी. मंटो अपनी किताब में नूरजहां के साथ एक ऐसी महफिल का जिक्र करते हैं, जब नूरजहां शूटिंग के पहले ही दिन सेट पर जाने की बजाय उनके साथ बैठकर व्हिस्की के घूंट भर रही थीं. हालांकि मंटो इस महफिल में इत्तेफाक से पहुंचे थे, लेकिन इसके बाद जो वाकया उस महफिल में पेश आया वो बहुत दिलचस्प था.
इधर मंटो किसी काम से अपने दोस्त रफीक गजनवी के घर पहुंचे. वहां पहले महफिल चल रही थी. गजनवी के अलावा इस महफिल में मौजूद थे नूरजहां के मैनेजर निजामी, अनुराधा और नूरजहां. चारों लोग बैठकर व्हिस्की पी रहे थे कि फोन की घंटी बजी. दूसरी तरफ थे परेशान हाल श्रीमान व्यास. उन्होंने फोन पर नूरजहां के बारे में पूछा तो निजामी के इशारे पर अनुराधा ने साफ मना कर दिया.
हारमोनियम लेकर ठुमरी गाने लगीं. बोल थे, "मेरे नैन काजर बिन कारे". वो गाने में मशगूल थीं और इधर व्यास की कार घर के पोर्च में दाखिल हो चुकी थी. व्यास की आमद के बारे में जानकर एक बार सबके हलक सूख गए. निजामी ने धीरे से नूरजहां से कहा कि वो पेट पकड़कर लेट जाएं.
व्यास जब कमरे में दाखिल हुए तो उन्होंने नूरजहां को दर्द से कराहते पाया. नूरजहां के मैनेजर निजामी ने बड़ी बेचारगी के साथ व्यास को बताया कि नूरजहां 'औरतों वाली तकलीफ" झेल रही हैं. यह बात चल ही रही थी कि तभी अनुराधा किचन से गर्म पानी की बोतल ले आईं. व्यास के पास कोई चारा नहीं बचा और वो भन्नाते हुए वहां से चले गए. मंटो लिखते हैं-
अपनी किताब में अशोक कुमार को अपना जिगरी दोस्त बताते हैं. अशोक कुमार के हवाले से उनके पास दर्जनों किस्से हैं, जिसमें उनके असफल प्रेम और फैंस के बीच घिर जाने के ब्योरे मौजूद हैं. मंटों एक जगह जिक्र करते हैं कि अशोक कुमार और मंटो 'उम्र में कौन बड़ा है?' के सवाल पर बच्चों की तरह झगड़ पड़े थे. मंटो के मुताबिक एक बार अशोक कुमार ने उन्हें हिदायत दी कि वो उन्हें "दादा मुनि" कह कर बुलाया करें. इस पर मंटो ने एतराज जताते हुए कि वो अशोक कुमार से ज्यादा उम्रदराज हैं. मंटो लिखते हैं-
यह अजीब बात है कि मंटो किताब में जहां अशोक कुमार को अपना अजीज दोस्त बताते हैं वहीं अशोक कुमार एक मौके पर उनको पहचानने से भी इनकार कर चुके हैं. मंटो को लेकर अशोक कुमार के इस भुल्लकड़पने का जिक्र हमें मिलता है दूरदर्शन के पत्रकार रहे शरद दत्त के लेख में. बीबीसी पर छपे इस लेख में शरद कहते कि मंटो के गुजरने के सालों बाद उन्होंने अशोक कुमार का इंटरव्यू किया था. जब उनसे मंटो के साथ उनके रिश्तों के हवाले से सवाल पूछा गया तो पहली बार में उन्होंने किसी मंटो को पहचानने से ही इनकार कर दिया. फिल्मिस्तान और बॉम्बे टॉकीज के दिनों की याद दिलाने पर उन्होंने सपाट लहजे में कहा, " वो शराब बहुत पीते थे और अश्लील कहानियां लिखते थे."
अशोक कुमार ने मंटो के बारे में जो कहा वो उनके बारे में सबसे ज्यादा दोहराया जाने वाले बयान है. हालांकि यह इंटरव्यू मंटो के जाने के काई साल बाद हुआ था लेकिन मंटो ने अपने जीते-जी इस किस्म के इल्जामों को झेला था. वो कहा करते थे-
फिर भी अशोक कुमार ने मंटो की याद को जिस तरह से बोदा किया उससे बेहतर था कि वो उन्हें भूल ही गए होते.
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