एक दशक पहले तक उत्तर भारत के लोग सावित्रीबाई फुले को नहीं जानते थे. सावित्रीबाई ने क्या किया, क्यों किया, उनके काम का क्या महत्व है, उनकी जयंती कब है, ये सब बातें ज्यादातर लोग नहीं जानते थे. महिला नायिका के नाम पर स्कूल की किताबें रजिया सुल्तान और रानी लक्ष्मीबाई से शुरू होती थीं और सरोजिनी नायडू पर आकर रुक जाती थीं. समाज सुधारकों की लिस्ट राजा राममोहन राय, विद्यासागर, दयानंद और विवेकानंद पर अटक जाती थी.
हालांकि बहुजन समाज पार्टी और कांशीराम के बनाए सरकारी कर्मचारियों के संगठन- बामसेफ के बैनरों और पोस्टरों पर सावित्रीबाई फुले का चेहरा लगा होता था, लेकिन उनकी अन्यथा कोई चर्चा नहीं होती थी. बामसेफ की प्रचार सामग्री में भी वे इसलिए होती थीं, क्योंकि ये संगठन सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में चर्चा में था और महाराष्ट्र के दलित इस नाम को जानते थे. उस दौर में सावित्रीबाई या तो उत्तर भारतीय जनमानस में नहीं थीं या फिर ‘दलितों की कोई नेता होंगी’ के तौर पर जानी जाती थीं.
लेकिन देखते ही देखते हालात बदल गए हैं...
3 जनवरी, 2018 को गूगल ने सावित्रीबाई फुले का डूडल बनाया. गूगल ने लिखा कि सावित्रीबाई भारत में समाज सुधार की हीरोईन यानी नायिका हैं.सावित्रीबाई फुले की जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्विट करके देश को बधाई दी और उनके योगदान को याद किया. उन्होंने ट्विटर पर लिखा- सावित्रीबाई फुले का जीवन गरीबों और वंचितों के सशक्तिकरण के लिए समर्पित था. उन्होंने शिक्षा और सामाजिक सुधार को सर्वाधिक महत्व दिया. हम उनके विजन को पूरा करने के लिए समर्पित हैं.
दो साल पहले तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने अपने मंत्रालय में प्रस्ताव रखा कि सावित्रीबाई फुले की जयंती को देश भर में शिक्षिका दिवस के रूप में मनाया जाए. देश की सबसे पुरानी और बड़ी यूनिवर्सिटी में से एक पुणे यूनिवर्सिटी का नाम अब सावित्रीबाई फुले पुणे यूनिवर्सिटी हो गया है. महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र सरकार के पास एक प्रस्ताव भेजा है कि सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिबा फुले को भारत रत्न दिया जाए.
सावित्रीबाई फुले के जीवन और उनकी उपलब्धियों को देखें तो ये सब मान-सम्मान बहुत छोटी और मामूली बातें हैं. आज से 187 साल पहले महाराष्ट्र के सातारा जिले के एक गांव में पिछड़े माली परिवार में जन्मी एक बच्ची ने अपने जीवनकाल में जितना काम किया था, उसके लिए राष्ट्र को यह सब बहुत पहले कर देना चाहिए था.
9 साल की उम्र में सावित्रीबाई की शादी अपने से चार साल बड़े ज्योति राव के साथ कर दी जाती थी. ज्योतिराव ने चूंकि शिक्षा हासिल की थी, इसलिए वे अपनी पत्नी को भी घर में ही पढ़ना-लिखाना सिखाते हैं. बाद में सावित्रीबाई अहमदनगर के एक स्कूल में पढ़ने जाती हैं. उनके साथ एक और लड़की फातिमा शेख भी होती हैं. इस दौर में लड़कियों का पढ़ना और स्कूल जाना बेहद दुर्लभ बात थी. और फिर शूद्र माली परिवार की लड़की पढ़ने जाए, यह तो सोचने वाली बात ही नहीं थी. लेकिन युवा ज्योति राव की जिद के कारण ये संभव हो पाया.
सावित्रीबाई फुले के जीवन की मुख्य उपलब्धियां इस प्रकार हैं-
- उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर 1848 में पुणे में लड़कियों का स्कूल खोला. इसे देश में लड़कियों का पहला स्कूल माना जाता है. उस समय तक लड़कियों के स्कूल नहीं होते थे. मिशनिरियों के स्कूल में लड़कियां भी कहीं-कहीं जाती थीं. लेकिन लड़कियों के अलग स्कूल नहीं होते थे.
- अपने जीवन काल में फुले दंपति ने 18 स्कूल खोले. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने शिक्षा के क्षेत्र में फुले दंपति के योगदान को स्वीकार करते हुए उन्हें सम्मानित भी किया.
- इस स्कूल में सावित्रीबाई फुले प्रधानाध्यापिका थीं. फातिमा शेख भी इस स्कूल में पढ़ाती थीं. ये स्कूल सभी जातियों की लड़कियों के लिए खुला था. दलित लड़कियों के लिए स्कूल जाने का ये पहला अवसर था.
- जब सावित्रीबाई फुले स्कूल पढ़ाने जाती थीं तो पुणे की महिलाएं उन पर गोबर और पत्थर फेंकती थीं क्योंकि उन्हें लगता था कि लड़कियों को पढ़ाकर सावित्रीबाई धर्मविरुद्ध काम कर रही हैं. सावित्रीबाई अपने साथ एक जोड़ी कपड़ा साथ लेकर जाती थीं और स्कूल पहुंचकर पुराने कपड़े बदल लेती थीं.
- सावित्रीबाई ने अपने घर का कुआं दलितों के लिए भी खोल दिया. उस दौर में यह बहुत बड़ी बात थी.
- सावित्रीबाई ने गर्भवती विधवाओं के लिए एक आश्रयगृह खोला, जहां वे अपना बच्चा पैदा कर सकती थीं. ये उन पर था कि वे उन बच्चों को पाले या न पालें. उस समय तक खासकर ऊंची जातियों की विधवाओं का गर्भवती हो जाना बहुत बड़ा कलंक था और इसलिए वे अपना बच्चा अक्सर फेंक देती थीं. सावित्रीबाई फुले ने उन बच्चों के लालन-पालन की व्यवस्था की. ऐसा ही एक बच्चा यशवंत फुले परिवार का वारिस बना.
- उस समय तक विधवा महिलाओं के सिर के बाल मुंड़ने की व्यवस्था थी. सावित्रीबाई ने इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और नाई बिरादरी के लोगों को संगठित करके पुणे में इस मुद्दे पर उनकी हड़ताल कराई कि वे विधवाओं का मुंडन नहीं करेंगे.
- अपने पति ज्योतिबा फुले, जो तब तक महात्मा फुले कहलाने लगे थे, की मृत्यु के बाद उनके संगठन सत्यशोधक समाज का काम सावित्रीफुले ने संभाल लिया और सामाजिक चेतना का काम करती रहीं.
- जाति और पितृसत्ता से संघर्ष करते उनके कविता संग्रह छपे. उनकी कुल चार किताबें हैं.
- पुणे में प्लेग फैला तो सावित्रीबाई फुले मरीजों की सेवा में जुट गईं. इसी दौरान उन्हें प्लेग हो गया और 1897 में उनकी मृत्य हो गई.
यह आश्चर्यजनक है कि इस महानायिका को इतिहास में अपना वाजिब स्थान पाने के लिए पौने दो सौ साल से भी ज्यादा इंतजार करना पड़ा. यह भारतीय इतिहास लेखन और टेक्स्ट बुक तैयार करने वालों की पुरुषवादी और जातिवादी मानसिकता पर एक तीखी टिप्पणी है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया?
सावित्रीबाई फुले भारतीय इतिहास की अप्रतिम नायिका हैं. उनकी उपलब्धियां उनको महानायिका का दर्जा दिलाने के लिए हमेशा पर्याप्त थीं. उनकी उपलब्धियां इसलिए भी महान है कि उनके जन्म का संयोग कई कमजोरियों के साथ था. वे ग्रामीण परिवार की थीं. माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं थे. वो लड़की पैदा हुईं. उनका बाल विवाह हुआ और उनकी जाति शूद्र (अब ओबीसी) थी. इतने बंधनों को सावित्रीबाई फुले ने तोड़ कर अपना मुकाम हासिल किया.
सवाल ये भी है कि जो महानायिका इतिहास के किसी कोने में पड़ी थीं, उनका आज अचानक इतना सम्मान कैसे होने लगा है. इसके पीछे सूचना और संचार तकनीक का बड़ा योगदान है. सावित्रीबाई फुले की जीवन गाथा अगर आज देश भर में चर्चा में है, तो ये काम इंटरनेट पर चल रहे बेशुमार साइट्स और सोशल मीडिया की वजह से है. सावित्रीबाई के जीवन की चमक बहुत ज्यादा है. जब लोगों ने सोशल मीडिया पर उनके बारे में जाना तो बात फैलती चली गई.
शुक्रिया सावित्रीबाई कि आपने देश की लड़कियों की पढ़ाई का रास्ता खोला!
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