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सिसोदिया पर विपक्षी एकता से दूर कांग्रेस, राहुल को सोनिया गांधी से सीखना चाहिए

2024 के आम चुनाव के लिए PM मोदी-BJP की रणनीति का एक बड़ा जोर विपक्ष को बांटने पर रहा है. विपक्ष यह काम खुद कर रहा.

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सिसोदिया पर विपक्षी एकता से दूर कांग्रेस, राहुल को सोनिया गांधी से सीखना चाहिए
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दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी (Manish Sisodia’s arrest) के खिलाफ विपक्ष ने एकजुट होकर विरोध किया, लेकिन इसमें कांग्रेस (Congress) की गैरमौजूदगी स्पष्ट थी. चाहें संयुक्त रूप से या फिर अलग-अलग, कांग्रेस को छोड़ सभी बीजेपी विरोधी दलों ने सिसोदिया की गिरफ्तारी पर मोर्चा संभाल लिया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर गिरफ्तारी की निंदा करते हुए इसे "विच हंट" करार दिया.

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दिलचस्प बात यह है कि इनमें से तीन पार्टियां- RJD, शिवसेना और एनसीपी- कांग्रेस की सहयोगी पार्टी हैं, जबकि दो अन्य- सीपीआई (एम) और डीएमके- 2024 के आम चुनाव में PM मोदी से लड़ने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी मोर्चे के साथी हैं. इसके बावजूद, उन्होंने सिसोदिया का बचाव करने के लिए कांग्रेस से अलग रास्ता अपनाने का विकल्प चुना है. दूसरी तरफ कांग्रेस आम आदमी पार्टी और उसके सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की सरकार को भ्रष्टाचार के आरोप पर लगातार निशाना बना रही है.

इतना ही नहीं शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) ने राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक प्रगतिशील पार्टी (NDPP) के नेता के नेतृत्व वाली हाल ही में बनी नागालैंड सरकार को अपना समर्थन दिया है. जबकि नागालैंड में NDPP के साथ बीजेपी गठबंधन में है. शरद पवार ने इस कदम को सही ठहराते हुए कहा कि नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो NDPP का प्रतिनिधित्व करते हैं न कि बीजेपी का.

विपक्षी खेमे से कांग्रेस की दूरी क्या संकेत देती है?

जाहिर है कि विपक्षी खेमे में कांग्रेस पार्टी लगातार अलग-थलग होती जा रही है. ऐसा लगता है कि क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस के साथ या उसके बिना बीजेपी से लड़ने के लिए अपनी राह खुद तय करने का फैसला किया है. उनका धैर्य समाप्त होता जा रहा है क्योंकि कांग्रेस विपक्षी एकता के विचार पर जुबानी सेवा जरूर कर रही है लेकिन स्पष्ट एक्शन से कतराती है.

यह देख बीजेपी मुस्कुरा रही होगी. जब भी कांग्रेस और गैर-बीजेपी पार्टी के बीच तलवारें चलती हैं, विपक्षी एकता के ताबूत में एक और कील ठोंक दी जाती है.
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यह सही है कि पीएम मोदी लोकप्रियता के मामले में अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत आगे हैं, लेकिन वे एक चतुर राजनेता भी हैं. उन्हें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे समान रूप से करिश्माई प्रधानमंत्रियों का इतिहास याद होगा- विपक्षी एकता का किसी भी सूरत में एक खतरनाक विरोधी हो सकता है. विपक्ष के एकजुट होने पर ही ये तीनों नेता चुनाव हार गए.

यही कारण है कि, 2024 के आम चुनाव के लिए PM मोदी की रणनीति का एक बड़ा जोर विपक्षी खेमे को विभाजित रखने पर रहा है और आगे भी रहेगा- ताकि बीजेपी विरोधी वोट विभाजित हो जाएं.

और यह हर बार काम भी करता है. पिछले साल गुजरात विधानसभा चुनाव में AAP और कांग्रेस ने बीजेपी को अब तक की सबसे बड़ी जीत दिलाने में भूमिका निभाई और एक-दूसरे को बेअसर कर दिया था. त्रिपुरा में हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव के नतीजे के आंकड़े बताते हैं कि अगर वाम-कांग्रेस-टिपरा मोथा गठबंधन एक साथ आती तो बड़ी संभावना थी कि बीजेपी सत्ता से बाहर होती.

विडंबना यह है कि PM मोदी और बीजेपी को 543 लोकसभा क्षेत्रों में से अधिकांश में आमने-सामने की लड़ाई के लिए विपक्ष को एकजुट होने या सीट समायोजन पर पहुंचने से रोकने के लिए जोर नहीं लगाना पड़ा. ऐसा लगता है कि अपने आप विपक्ष उनके लिए काम कर रहा है.

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बंटा हुआ विपक्ष बीजेपी के लिए वरदान है

शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता है जब बिना कलह या तकरार के विपक्ष अपने इस घोषित उद्देश्य से न चूकता हो कि PM मोदी को सत्ता से हटाने के लिए बीजेपी के खिलाफ एकजुट होकर लड़ना है.

मेघालय में हालिया चुनाव प्रचार फोकस की कमी का एक स्पष्ट उदाहरण है, विशेष रूप से कांग्रेस की ओर से, जो अपने विपक्षी दोस्तों को यह याद दिलाते नहीं थकती कि उसे बीजेपी विरोधी मोर्चे से बाहर नहीं किया जा सकता है.

मेघालय एक ऐसा राज्य था जहां कांग्रेस 2018 में पिछले चुनाव तक एक ताकत थी. लेकिन खुद को मजबूत करने और पुनर्जीवित करने के लिए काम करने के बजाय, पार्टी टीएमसी और उसके नेता मुकुल संगमा को निशाना बनाने में अधिक रुचि रखती थी, जिन्होंने चुनाव से ठीक पहले पाला बदल लिया था.

कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता जयराम रमेश ने संगमा को आधुनिक युग का जूडस (घोखेबाज दोस्त का पर्याय) बताया. बीजेपी और क्षेत्रीय पार्टियां, जो उम्मीद के मुताबिक एक साथ मिलकर सरकार बनाएंगी, नतीजे सामने आने के बाद अपने विरोधियों की इस लड़ाई को उल्लास के साथ देखती रहीं.

पड़ोसी त्रिपुरा में, चुनावी नतीजों के आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस-वाम-टिपरा मोथा गठबंधन ने बीजेपी को सत्ता से बाहर रखा होता. लेकिन अहंकार के टकराव के कारण पार्टियां गठबंधन बनाने में नाकाम रहीं.

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कांग्रेस को निश्चित रूप से यह महसूस करना चाहिए कि यदि मोदी और बीजेपी लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटते हैं तो उसे ही सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ेगा. क्षेत्रीय दलों ने बार-बार दिखाया है कि यदि केंद्र में बीजेपी सत्ता में है तो वे भगवा पार्टी के साथ सहयोग कर सकते हैं. इसलिए उनकी बीजेपी विरोधी बयानबाजी के बावजूद, वे मोदी के साथ एक कामकाजी संबंध की तलाश कर सकते हैं. भले ही साथ-साथ बीजेपी की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं के खिलाफ अपनी पकड़ की रक्षा कर रहे हों.

मोदी को टक्कर देने के लिए राहुल गांधी को अतिरिक्त मेहनत करनी चाहिए

दूसरी ओर, कांग्रेस फिर से भारतीय राजनीति का केंद्रीय ध्रुव बनने के लिए बीजेपी के साथ सीधे मुकाबले में है. पहले तो ऐसा ही था. आज बीजेपी ने वह पोजीशन संभाल लिया है और कांग्रेस को पूरी तरह से खत्म नहीं भी करने तो हाशिये पर धकेलने के लिए दृढ़ संकल्पित है.

नतीजतन, विपक्षी एकता का पूरा दारोमदार कांग्रेस पर है. जैसे सोनिया गांधी ने 2004 में किया था, जब उन्होंने अपना अहंकार निगल लिया था और तमिलनाडु में डीएमके और बिहार में लालू यादव की RJD जैसी धूर विरोधी पार्टियों के साथ हाथ मिला लिया था. राहुल गांधी को एकजुट विपक्षी मोर्चे को आकार देने के लिए उसमें खुद की और अपनी पार्टी की तुलनात्मक रूप से छोटी भूमिका स्वीकार करनी होगी.

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दुर्भाग्य से, जहां सोनिया गांधी ने बीजेपी को हराने और अपने विरोधियों को साथ लाने के लिए अतिरिक्त मेहनत की (2004 में गठबंधन को सील करने के लिए दिवंगत LJP नेता रामविलास पासवान के घर के प्रसिद्ध 'दौरे' को याद करें), वहीं राहुल गांधी ने ऐसा कोई झुकाव नहीं दिखाया है.

वास्तव में, कांग्रेस के भीतर कई लोगों को डर है कि अगर पार्टी 2024 में लोकसभा में दो अंकों की संख्या से घटकर एक अंक में आ जाती है तो भी राहुल गांधी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इस बात को लेकर चिंता बढ़ रही है कि राहुल गांधी यह वहम पाल बैठे हैं कि उम्र उनके पक्ष में है. मोदी हमेशा शीर्ष पर नहीं रहेंगे. कांग्रेस का टाइम आएगा.

राहुल के सहयोगी और मित्र इस सोच के फैन हैं. तर्क दे रहे हैं कि: सोनिया गांधी ने भले ही गठबंधन सरकारों के माध्यम से पार्टी को दो कार्यकाल तक सत्ता में पहुंचाया हो, लेकिन इसके लिए महंगा राजनीतिक समझौता करना पड़ा था.

यह समूह आम आदमी पार्टी को एक खतरे के रूप में देखता है और अरविंद केजरीवाल बार-बार राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के स्थान पर कब्जा करने के अपने इरादे की घोषणा करके उनकी इसी घबराहट को हवा देते हैं.

द हिंदू में प्रकाशित एक नए सर्वे ने कांग्रेस की संवेदनशील नब्ज को दबाया होगा और पार्टी में खतरे की घंटी बजाई होगी. इसके निष्कर्षों से पता चला कि अधिक उत्तरदाताओं ने महसूस किया कि कांग्रेस की तुलना में AAP बीजेपी के सामने एक बेहतर राष्ट्रीय विकल्प है.

ऐसे में क्या यह कोई आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस सिसोदिया का बचाव नहीं करना चाहती, भले ही इसका मतलब 2024 के लिए विपक्षी एकता की संभावना को एक और झटका हो?

(आरती आर जेरथ दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @AratiJ है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं. द क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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