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चुनाव की प्रक्रिया खासतौर पर भारत जैसे बड़े देश में बेहद ही महंगी है. चुनावी अभियान, लंबी-लंबी यात्राएं, वोटरों को लुभाने के लिए तरह-तरह के पैंतरे इन सब की वजह से भारी खर्च होता है. इसकी वजह से इकनॉमी में एक झटके में बहुत सारा पैसा आता है, पैसा आने की वजह से बाजार में भारी डिमांड बढ़ती है और इकनॉमिक एक्टिविटी बढ़ जाती है. जिससे जीडीपी के आंकड़ों में तेजी देखने को मिलती है.
लेकिन आर्थिक मंदी इतनी मजबूत थी कि लेकिन इस बार के चुनाव के बाद इकनॉमिक ग्रोथ पर ये गणित नहीं चला.
2019 समेत पिछले 5 सालों के चुनावों के आंकड़े देखने पर पता चलता है कि इलेक्शन ईयर में इकनॉमिक ग्रोथ में तेजी देखने को मिलती है. ज्यादातर लोकसभा चुनाव अप्रैल मई के महीने में होते हैं, इसलिए जून तिमाही में तेजी देखने को मिलती है.
इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च के चीफ इकनॉमिस्ट देवेन्द्र पंत का कहना है -
हालांकि इस दौर में सरकारी खर्चों में अच्छी ग्रोथ देखने को मिली है. इस वजह से ग्रोथ को हल्का सपोर्ट देखने को मिला. FY20 की पहली तिमाही में सरकार का कंज्म्पशन खर्च 11.8 परसेंट की दर से बढ़ा. जबकि पिछले फाइनेंशियल ईयर की आखिरी तिमाही में ये 9.9 परसेंट था.
केयर रेटिंग्स के चीफ इकनॉमिस्ट मदन सबनवीस बताते हैं-
पहली तिमाही में GDP ग्रोथ घटकर 5 फीसदी के स्तर पर आ गई. पिछले वित्त वर्ष की आखिरी तिमाही में यह 5.8 फीसदी थी. दरअसल खपत में आई भारी गिरावट की वजह से GDP के आंकड़ों में इतनी भारी गिरावट आई है. आरबीआई ने वित्त वर्ष 2019-20 में भारत की GDP ग्रोथ 6.7 फीसद रहने का अनुमान लगाया था. हालांकि बाद में इसने इसे रिवाइज कर घटा दिया था. सरकार की ओर से कहा गया है कि अर्थव्यवस्था में यह गिरावट साइक्लिक है, स्ट्रक्चकरल नहीं है.
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