Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Business Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019पहले से भारी टैक्स झेलती जनता पर 'महंगाई टैक्स', RBI के उपाय नाकाफी

पहले से भारी टैक्स झेलती जनता पर 'महंगाई टैक्स', RBI के उपाय नाकाफी

महंगाई का एक कारण Russia-Ukraine युद्ध है लेकिन उत्पादन में कमी और बेरोजगारी ने और बढ़ाया है दर्द

दीपांशु मोहन
बिजनेस
Published:
सब्जी-फलों और कच्चे तेल के दाम खुदरा महंगाई दर बढ़ा रहे हैं
i
सब्जी-फलों और कच्चे तेल के दाम खुदरा महंगाई दर बढ़ा रहे हैं
फोटो - द क्विंट

advertisement

भारत में महंगाई के आंकड़े चिंताजनक बने हुए हैं. गुरुवार को जारी सरकारी आंकड़ों यानि कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स के हिसाब से अप्रैल महीने में महंगाई बढ़कर 7.79 प्रतिशत हो गई. इसी साल मार्च में महंगाई 6.95 प्रतिशत और अप्रैल 2021 में 4.23 प्रतिशत थी.

सबसे ज्यादा महंगाई खाने पीने की चीजों की कीमतों में है. खाद्य महंगाई अप्रैल में बढ़कर 8.38 प्रतिशत हो गई, जो पिछले महीने में 7.68 प्रतिशत और एक साल पहले इसी महीने में 1.96 प्रतिशत थी.

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) को सरकार ने न्यूनतम महंगाई दो फीसदी से कम, और अधिकतम महंगाई 4 फीसदी पर रखने का टार्गेट दिया हुआ है.

भारत में साल 2021 के मध्य से ही महंगाई में तेजी आई है. वो किसी तात्कालिक कारणों या सिर्फ कीमतें बढ़ने से नहीं आई हैं. जैसा कि पहले कुछ पॉलिसी बनाने वाले और सरकारी विश्लेषक मानकर चल रहे थे.

जैसा कि इस लेखक ने जून 2021 में तर्क दिया, एक महामारी के दौरान महंगाई मध्यम से लंबी अवधि में ना सिर्फ अमेरिका जैसी विकसित इकनॉमी के लिए परेशानी बढ़ा सकती है बल्कि कम आय वाले देश जैसे भारत के लिए उतनी ही दिक्कत ला सकती है. मैंने नीति आयोग के अमिताभ कांत को टेलीविजन पर बातचीत में समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उन्होंने नहीं माना.

क्या भारत ठीक से बीमारी पकड़ भी सकता है?

अभी कीमतों में तेजी का मुद्दा जटिल हो सकता है लेकिन ये बहुत उलझा हुआ नहीं है. दरअसल डेटा और सबूतों के माइक्रोलेंस से देखने की जरूरत है जिनके कई मैक्रो-इम्प्लीकेशंस होते हैं.

रिटेल या होल सेल महंगाई को जब हम आज ठीक से देखते हैं तो ये डिमांड और सप्लाई दोनों ही तरफ से है.

उदाहरण के लिए कई हफ्तों के लॉकडाउन के बाद, यदि लोग सैलून में बाल कटवाना चाहते हैं, तो बाल कटवाने के लिए कितने पैसे लगेंगे वो इस बात पर निर्भर है कि कितने सैलून मालिकों की दुकानें खुली हैं और कितने हेयर-ड्रेसर काम पर वापस आ गए हैं. अभी सभी कोविड प्रोटोकॉल के साथ ताकि कंज्यूमर सुरक्षित महसूस करें, दुकानें खोलने के लिए सैलून मालिकों को काफी वक्त लग सकता है. वो अभी कम क्षमता के साथ दुकानें खोलेंगे. अभी हेयरस्टाइलिस्ट को काम करने में हिचकिचाहट रहेगी या फिर काम के बदले अभी वो ज्यादा पैसे की मांग करेंगे. ऐसे में बाल कटवाना या सलून से दूसरी सेवाएं लेना महंगा पड़ सकता है.

इसी तरह अगर चाय वाला जो दिल्ली में धंधा करता है अगर लॉकडाउन खुलने के बाद उसकी सेवा की डिमांड बढ़ जाती है तो उसे पहले से ज्यादा दूध की जरूरत होगी. अगर डेयरी वाला किसी ऐसे राज्य में है जहां अभी भी कोविड की पाबंदियां लगी हुई हैं तो दूध की सप्लाई निश्चित तौर पर प्रभावित होगी. ऐसे हालात में चाय की कीमत निश्चित तौर पर बढ़ जाएगी.

ऐसे माइक्रो लेवल हालातों को समझने के बाद ही मैंने मई 2021 में भविष्यवाणी की थी कि CPI बढ़ने वाली है, जो कि अब हो रहा है. कुछ लोकल फैक्टर्स के मिल जाने से भारत में जिंदगी और आजीविका के लिए बहुत ज्यादा अनिश्चितताएं बढ़ गई हैं. ऐसा लगता है कि आने वाले वक्त में भी महंगाई का दबाव लगातार बढ़ा हुआ ही रहेगा. और RBI की पॉलिसी बहुत प्रभावी नहीं होगी.

कोविड ने कैसे सप्लाई चैन को तहस नहस किया?

ग्लोबली, COVID-19 ने गुड्स और सर्विस की सप्लाई बाधित की, जिससे सभी प्रमुख व्यापारिक क्षेत्रों में जरूरी वस्तुओं की सप्लाई प्रभावित हुई. इस प्रकार तैयार माल और फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट के वितरण में देरी हुई. इसमें चीन का ट्रांजिट प्वाईंट भी है जहां महामारी के कारण खासकर शंघाई में कोरोना से भारी दिक्कतें हुई हैं.

इस साल जनवरी-फरवरी में जब ओमिक्रॉन का व्यापक प्रभाव पड़ा खासकर जब भारत रिकवरी कर रहा था तो पूर्वी एशिया के सबसे सघन व्यापार वाले इलाके में हालात बेहद मुश्किल हो गए. इससे दुनिया में कारोबार पर विपरीत असर पड़ा.

ऐसे में रूस –यूक्रेन युद्ध ने पहले से ही खराब हालात को और भी बिगाड़ दिया. क्रूड ऑयल मंगाना और महंगा हो गया है. कोई दूसरा ऑप्शन खोजना होगा ताकि सस्ते में क्रूड ऑयल इंपोर्ट किया जा सके. भारत ने युद्ध पर निष्पक्ष रवैया रखने और युद्ध की आलोचना के बाद भी रूस से सस्ता तेल खरीदने का फैसला ऐसे ही हालात में किया.

महंगाई लोगों के लिए अनौपचारिक तौर पर एक अतिरिक्त टैक्स

शॉर्ट टर्म में महंगाई से सबको नुकसान ही है. प्रोड्यूसर्स के लिए सप्लाई ऐसे हालात में बहुत चुनौतीपूर्ण बन जाती है. वहीं प्रोडक्शन को बढ़ाना भी बहुत मुश्किल हो जाता है. महंगाई के चलते कंज्यूमर जिस किसी भी चीज को खरीद रहे हैं चाहे वो दूध हो, या फिर प्याज या खाद्य तेल, सबके लिए उन्हें ज्यादा जेब ढीली करनी पड़ रही है. यह अनौपचारिक तौर पर एक अतिरिक्त टैक्स की तरह है.

भारत जैसा देश जहां समाज कई स्तरों में बंटा हुआ है, कम आय वालों को बहुत ज्यादा संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है. उनके लिए ‘महंगाई टैक्स’ ज्यादा भारी पड़ रहा है. आपको ये भी समझना चाहिए कि भारत में टैक्स सिस्टम पहले से ही काफी कठिन है. भारत में इनडायरेक्ट टैक्स यानि GST, VAT से सरकार को ज्यादा कमाई होती है और डायरेक्ट टैक्स यानि इनकम और संपत्ति कर से कम. वहीं महंगाई के नजरिए से देखें तो अमीर हो या गरीब सबको एक जैसे दाम पर सामान की खरीदारी करनी पड़ती है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन कितना कमाता है. उदाहरण के लिए 1 किलो प्याज के लिए अमीर जितने पैसे देते हैं उतने ही पैसे गरीब भी. ऐसे हालात में गरीबों के लिए ये एक्स्ट्रा महंगाई बहुत ज्यादा परेशानी वाली है.

कोविड के आने से पहले ही इकोनॉमी में डिमांड काफी कमजोर थी. बेरोजगारी काफी ज्यादा थी. प्रोडक्शन और निवेश की क्षमता में भारी उथलपुथल थी.

भारत का सेंट्रल बैंक RBI , इकलौता ऐसा संस्थान है, जिसे महंगाई कंट्रोल में करने का आदेश दिया गया है, वो बिगड़ते हालात से बेखबर जैसा था.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

इसलिए कुछ मायनों में आज जो महंगाई है उसके लिए सीधे RBI को कसूरवार ठहराया जा सकता है. संकट के संकेत मिलने और कई चेतावनियों के बाद भी RBI ने अपनी कर्ज नीति के जरिए महंगाई को कंट्रोल करने के लिए कुछ नहीं किया. इससे पहले जो मॉनेटरी पॉलिसी RBI ने जारी किया था उसमें किसी तरह के संकेत या कड़ाई की बात नहीं कही. महंगाई को तात्कालिक कारण बताकर खारिज कर दिया गया.

RBI का दरें बढ़ाना हताशा से भरा कदम

हाल में RBI ने जो दरें बढ़ाई हैं खासकर तब जब संकट विकराल हो चुका है तो इसे सिर्फ हड़बड़ी में उठाया गया उपाय ही कहा जा सकता है. सवाल ये है कि – क्या RBI के दरें बढ़ाने और कर्ज महंगा करके सिस्टम से लिक्विडिटी घटाने की कोशिश काफी है? क्या सिर्फ कर्ज नीति में बदलाव करके ही महंगाई पर लगाम लगाई जा सकती है ?

यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है. वो सवाल जिसे मैंने अपने इससे पहले के कॉलम में उठाया था और RBI के फैसलों के असर खासकर महामारी से शुरू हुई महंगाई के इलाज में कारगर होने या ना होने का विश्लेषण किया था.

यहां थोड़ा संक्षेप में कुछ बातें जाननी चाहिए. सिस्टम में एक्सेस लिक्विडिटी यानि जरूरत से ज्यादा पैसे को महामारी के दौरान उपलब्ध कराया गया. खासकर अमेरिका और यूरोप की इकनॉमी में ऐसा किया गया ताकि कंज्यूमर डिमांड बनी रहे और लेबर मार्केट यानि नौकरी की परेशानी लोगों को नहीं हो. क्योंकि ऐसा होने से प्रोडक्शन पर बुरा असर पड़ता. उस समय के हिसाब से ये कदम सही भी था.

कैसे भारत के कोविड पैकेज ने आधी आबादी यानि महिलाओं की अनदेखी की?

अमेरिका में अब स्थिति ऐसी है कि कंज्यूमर डिमांड बढ़ने से सप्लाई की परेशानी हो गई है, खासकर यूक्रेन युद्ध की वजह से तेल की कीमतें बढ़ने से. इसने रिटेल महंगाई को बहुत बढ़ा दिया है. न केवल अमेरिका में, बल्कि वैश्विक स्तर पर और भारत में भी गुड्स और सर्विस की कीमतें इस वजह से बढ़ी हैं.

भारत में लोगों की दोहरी मुश्किल

हालांकि भारत में हालात थोड़े जुदा हैं और उनको अलग से बताने की जरूरत है. हमारी सरकार ने महामारी के दौरान सब्सिडी बढ़ाने, गरीबों को अनाज मुहैया कराने, और MSME को कर्ज देने पर फोकस किया. हमने कंज्यूमर डिमांड बढ़ाने के लिए सीधा लोगों के खाते में पैसे ट्रांसफर नहीं किया.

COVID के दौरान और हाल में बजट में सरकार ने अपना ज्यादा पैसा सप्लाई साइड को दुरुस्त करने पर खर्च किया (पूंजी निवेश आकर्षित करने की उम्मीद में) जबकि डिमांड साइड की पूरी तरह से अनदेखी की गई थी.

और इसलिए, 'महंगाई टैक्स' से अब सभी कीमतें बढ़ रही हैं. कंज्यूमर और प्रॉड्यूसरों को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है. कम इनकम ग्रुप वालों को सबसे ज्यादा परेशानी हो रही है. अच्छी नौकरी की संभावनाओं की कमी, पहले से ही कम वेतन और भारी कर्ज से अब बस कोई सोचकर सिहर जा सकता है कि आने वाले हफ्तों में भारत में 'महंगाई टैक्स' किस हद तक कंज्यूमर सेंटीमेंट को ध्वस्त करेगा.

शहरों की तुलना में महंगाई टैक्स की मार सबसे ज्यादा ग्रामीण इलाकों में है. जहां खुदरा महंगाई दोगुना से ज्यादा, कम कमाई और कम नौकरी की समस्या ज्यादा गहरी है.

इसके अलावा, यदि खाने पीने के दाम बढ़ने से किसानों की कमाई बढ़ी होती तो फिर किसानों के लिए ज्यादा पैसा बचाना संभव होता और ये उन्हें ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करने के लिए प्रेरित करता. पर खाद्य महंगाई बढ़ने के बाद भी भारत के बिचौलियों से भरे कृषि नेटवर्क में पहले से मौजूद खामियों और शहरों में मूल्यों को लेकर पूर्वाग्रह' (जहां शहरी बाजार में बिकने वाले प्याज की 1 किलो कीमत वो नहीं होती जो किसानों को उत्पादन के लिए मिलती है) किसान और रूरल इकनॉमी की हालत और अधिक अनिश्चित बनाता है.

क्या अब RBI और सरकार कुछ कर सकती है?

महंगाई टैक्स से जो चिंताएं बढ़ रही हैं उस पर सरकार तुरंत क्या कदम उठा सकती है ?

सबसे पहले, आरबीआई को अपना पहला काम महंगाई कंट्रोल पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और इकनॉमी में मौजूद अतिरिक्त पैसे को सोखने के लिए वो जो कुछ भी कर सकता है उसे करने देना चाहिए. जैसा कि सी रंगराजन ने हाल में दलीलें दी हैं कि

"भारत में महंगाई को सिर्फ कॉस्टिंग बढ़ने से नहीं ठीक से समझा जा सकता. दरअसल लिक्विडिटी भी एक बड़ा कारण है. अगर हम महंगाई काबू में करना चाहते हैं तो, जमा और ऋण पर ब्याज दरें बढ़ाने के साथ लिक्विडिटी पर एक्शन बहुत जरूरी है."

दूसरा, कम आय वर्ग वालों को खासकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में हाई डिमांड बढ़ाने के लिए फिस्कल पॉलिसी के जरिए डायरेक्ट पैसे का ट्रांसफर करना चाहिए.

सिर्फ कर्ज नीति के जरिए रेट दरें बढ़ाकर महंगाई को कंट्रोल करने की नीति से बहुत कुछ हासिल नहीं होगा. ये सप्लाई को और प्रभावित कर सकता है. इस नीति से कंजम्पशन यानि खर्च करने की क्षमता और निवेश को गहरा धक्का लग सकता है और इससे गहरी मंदी होने की आशंका भी है.

केंद्र-राज्य में सहयोग बढ़ना जरूरी

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता मांग को बनाए रखने के लिए शॉर्ट टर्म में सरकार को अपना खर्च बढ़ाना है. केंद्र सरकार को राज्यों के साथ सहयोग भी बढ़ना पड़ेगा. अभी केंद्र और राज्य के रिश्तों में जो गड़बड़ी है उसको देखते हुए ऐसा करना आसान नहीं होगा.

यहां सबसे पहला सुझाव ये है कि मोदी सरकार RBI को एक स्वतंत्र और पब्लिक इंस्टीट्यूशन के तौर पर काम करने दे और RBI के निर्णय लेने की शक्ति का सम्मान करे. RBI को पूरी आजादी और स्पष्टता से काम करने दे.

दूसरा प्वाइंट है कि सरकार अपनी गलती सुधारे जो उसने वित्त वर्ष 2022-23 के लिए पैसे के आवंटन के वक्त किया और कमजोर आय वालों के लिए डायरेक्ट ट्रांसफर स्कीम लेकर आए.

शॉर्ट टर्म के लिए सरकार प्रधानमंत्री किसान योजना और MGNREGA के तहत थोड़ा ज्यादा पैसा भेजे. शहरों के लिए भी एक पायलट योजना के तौर पर MGNREGA लाए ताकि ‘अदृश्य महंगाई टैक्स’ से गरीबों का जो बजट बिगड़ा है वो कुछ ठीक हो पाए.

(दीपांशु मोहन एसोसिएट प्रोफेसर और डायरेक्टर, सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज, जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी हैं. वह अर्थशास्त्र विभाग, कार्लटन यूनिवर्सिटी, ओटावा, कनाडा में अर्थशास्त्र के विजिटिंग प्रोफेसर हैं. आशिका थॉमस सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज, जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में रिसर्च एनालिसट हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है, और व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT