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सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के हालिया रोजगार आंकड़ों के मुताबिक, भारत में जॉब क्रिएट न होने की वजह से नौकरियों का संकट विकराल रूप लेता जा रहा है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भारत में युवाओं की बढ़ती संख्या अब काम की तलाश भी नहीं कर रही है.
भारत की समग्र श्रम भागीदारी दर (labour participation rate) 2017 और 2022 के बीच 46% से गिरकर 40% पर आ गई है. महिलाओं के लिए आंकड़े और भी निराशाजनक हैं. लगभग 2.1 करोड़ लोग कार्यबल से बाहर हो गए, जिसकी वजह से महज 9% पात्र आबादी काम पर बची या काम की तलाश में रही. भारत के बिखरे लेबर मार्केट या श्रम बाजार को प्रभावित करने वाली जटिल रोजगार / बेरोजगारी की समस्या को समझने के लिए नीचे दिए गए आंकड़े देखें. पिछले पांच वर्षों में वेतनभोगी नौकरियों में गिरावट लगातार बनी हुई है, पिछले तीन साल खास तौर पर कुछ ज्यादा ही खराब रहे हैं.
जैसा कि भारत लगातार अपने 'युवाओं' पर दांव लगाता रहता है, हालिया रोजगार के आंकड़े एक पुराने संकट की ओर इशारा करते हैं- वह जिस पर पिछले कुछ समय से व्यापक रूप से चर्चा की गई है और जिसपर काफी कुछ लिखा गया है. हम में से कुछ लोगों ने इसे भारत में "रोजगार विहीन विकास" युग कहा है. महामारी की वजह से नहीं बल्कि कोविड महामारी के बहुत पहले से ही रोजगार के नए अवसर (job creation) का संकट भारत के व्यापक आर्थिक परिदृश्य को प्रभावित करता रहा है. कोविड (COVID) ने इस संकट को बढ़ा दिया है. वहीं यह स्वीकार किए बिना कि (बे) रोजगार की स्थिति कितनी खराब रही है, महामारी के प्रति सरकार की अपर्याप्त प्रतिक्रिया से भी कोई सरकारी मदद नहीं मिली है.
हालांकि आर्थिक मोर्चे पर बहुत कुछ हो रहा है लेकिन इस परिस्थिति को लेकर एक स्पष्ट क्लासिकल कीनेसियन व्याख्या Keynesian explanation है (मांग में कमी की वजह से उत्पादन में कमी और इसकी वजह से रोजगार में कमी). सरकार द्वारा अधिकांश वित्तीय विस्तारवादी उपायों का उद्देश्य प्रो-ग्रोथ प्रोजेक्शन के लिए आपूर्ति पक्ष में सुधार करना है या फिर बड़े पूंजीगत व्यय पर इस उम्मीद के साथ जोर दिया गया है कि निजी निवेश आकर्षित होंगे जिसकी वजह से 'नौकरियां' पैदा होंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है.
ठेका प्रथा (ad hoc contractualisation) और भारत के वर्क फोर्स के विसंघीकरण (de-unionisation) की समस्या ने सुरक्षित नौकरियों की गुणवत्ता को और बदतर कर दिया है. सीएमआईई के हालिया आंकड़ों के अनुसार, इसने अधिक भारतीय श्रमिकों को वर्तमान श्रम बाजार की स्थितियों में "सही रोजगार" खोजने को लेकर सचेत कर दिया है. जिसकी वजह से श्रमिक या तो वर्क फोर्स से बाहर हो जाते हैं या काम की तलाश के प्रति उदासीन हो जाते हैं, या 'स्व-रोजगार' अपना लेते हैं, जिससे वेतनभोगी श्रमिकों की तुलना में अधिक उद्यमियों की संख्या बढ़ने लगती है. (नीचे चित्र देखें)
इस वर्ष की शुरुआत में जारी आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के आंकड़ों के अनुसार जनवरी-मार्च 2021 के लिए बेरोजगारी दर कोविड-19 पूर्व 2020 के आंकड़ों के काफी नजदीक थी. जैसा कि एक लेखक ने 2020 में बताया, महिलाओं को आर्थिक गिरावट के संदर्भ में महामारी का खामियाजा भुगतना पड़ा है. पुरुषों की बात करें तो जनवरी-मार्च 2021 तिमाही और पिछले वर्ष की समान तिमाही दोनों में पुरुषों के लिए बेरोजगारी दर 8.6% थी. वहीं महिलाओं के मामले में जनवरी-मार्च 2021 की अवधि में यह दर 11.8% थी, जबकि पिछले वर्ष की समान तिमाही में यह दर 10.6% के आंकड़े पर थी.
श्रम बल की भागीदारी दर या काम करने वाले लोगों, काम की तलाश करने वालों का प्रतिशत या काम के लिए उपलब्ध लोगों का प्रतिशत 47.5 फीसदी था. पिछले कुछ दशकों से महिलाओं के लिए श्रम बल की भागीदारी दर औसतन 18% रही है. वहीं श्रमिक-जनसंख्या अनुपात (worker-population ratio), या आबादी में कार्यरत लोगों का प्रतिशत 43.1% था.
निस्संदेह इन सभी ने बढ़ती असमानता के बारे में चिंताओं को बढ़ा दिया है. महामारी की दूसरी लहर के दौरान भी भारत में केवल कुछ क्षेत्रों (जैसे निर्माण) में ही नौकरियां बढ़ी है, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सर्विस सेक्टर संघर्ष कर रहा था.
2020 के पीएलएफएस आंकड़ों के अनुसार भारत के संगठित कार्यबल में सभी रोजगार कॉन्ट्रैक्ट्स में से 43% से भी कम कॉन्ट्रैक्ट्स बुनियादी सामाजिक सुरक्षा जैसे भविष्य निधि (PF) कवरेज, ग्रेच्युटी, हेल्थकेयर और मातृत्व लाभ जैसी सुविधाएं सुनिश्चित करते हैं. केवल 40% रेग्युलर वेतनभोगी कर्मचारियों के पास कम से कम एक सामाजिक सुरक्षा लाभ (2019-20 के आंकड़ों के अनुसार) तक पहुंच है.
हेल्थ, एजुकेशल और यूटिलिटी जैसे क्षेत्र में भारतीय कामगारों को ज्यादातर ठेके पर रखा जाता है. जबकि कम वेतन वाली श्रेणियों (यहां तक कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में निचले स्तर पर भी) में काम करने वाले वर्कर्स लगातार असंगठित क्षेत्र की ओर धकेले जा रहे हैं, जोकि तेजी से बढ़ रहा और कमजोर है. अनौपचारिक श्रमिकों की तुलना में पूंजी और अधिक विशेषाधिकार वाले लोग "स्व-रोजगार" से जुड़ना ज्यादा पसंद कर सकते हैं. लेकिन 'वेतनभोगी श्रमिकों' की तुलना में 'उद्यमियों' के बढ़ जाने से नए उद्यम की विफलता की दर अधिक होने की आशंका है और इसकी वजह से भविष्य में अन्य जटिल परिणाम देखने को मिल सकते हैं.
मैक्रो-वित्तीय और आर्थिक मोर्चे पर इस समय सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण चिंता का मुद्दा अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियां पैदा करना है. लेकिन सरकार सार्वजनिक रूप से इस मुद्दे को स्वीकार करने से इनकार कर रही है. अपने हाल के किसी भी संबोधन (पिछले तीन वर्षों के बजट भाषणों सहित) में वित्त मंत्री या उस मामले के लिए कोई केंद्रीय मंत्री 'रोजगार संकट' का उल्लेख करने में विफल रहे हैं.
जो समस्या सामने हैं उसकी सही पहचान करना भी महत्वपूर्ण है. जैसा कि हाल ही में महेश व्यास ने उल्लेख किया है :
भारत में असंबद्ध श्रम बाजार ढांचे के साथ कई चिंताओं में से एक यह है कि अधिकांश व्यक्ति वेतन या लाभ कमाने के लिए काम करने की अपनी इच्छा स्पष्ट रूप से प्रदर्शित नहीं करते हैं. जिसके परिणाम स्वरूप समस्या की व्याख्या करने और उसके अध्ययन के लिए पारंपरिक मापने के पैटर्न कम महत्वपूर्ण साबित होते हैं. जैसा कि पहले इस पर बात की गई है, रोजगार-जनसंख्या अनुपात वृहद स्तर पर एक अधिक उपयोगी संकेतक बन जाता है, जो कुल कामकाजी आबादी तथा कार्यशील आयु जनसंख्या के अनुपात को मापता है.
विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारत का महामारी पूर्व रोजगार-जनसंख्या अनुपात 43% वैश्विक दर (55%) से कम था. बांग्लादेश में रोजगार दर 53% है और चीन में लगभग 63% है.
CMIE के अनुमानों के मुताबिक भारत की रोजगार-जनसंख्या दर 38% से कम है. जो यह इंगित करती है कि पूरे भारत में कामकाजी उम्र की आबादी जो हर साल श्रम बल में प्रवेश कर रहा है के लिए 'अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियों' का संकट पुराना है. (जिसकी दर महामारी के दौरान भी उच्च बनी हुई है)
इसके साथ ही 2021 की दूसरी छमाही में आर्थिक गतिविधियों के पुनरुद्धार के बावजूद ग्रामीण भारत में मनरेगा के काम (जिसे फॉलबैक विकल्प या सुरक्षा जाल के तौर पर देखा जाता है) की मांग अधिक बनी हुई है. अपर्याप्त मनरेगा बजट ने राज्यों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में उन लोगों को पर्याप्त रोजगार प्रदान करना मुश्किल बना दिया है जिनके पास रोजगार के कम या कोई वैकल्पिक अवसर नहीं हैं. (नीचे आंकड़े प्रस्तुत हैं)
वित्त मंत्री और मोदी सरकार को जहां अपने काम को सही करने की जरूरत है, वह दो चीजें हैं
वित्तीय नीति के निर्माण पर, जिसका लक्ष्य विभिन्न क्षेत्रों (निर्माण से लेकर नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन तक) के प्रोत्साहन के माध्यम से अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियां पैदा करने की दिशा में होना चाहिए और इसकी शुरुआत तीन से पांच साल की योजना के साथ होनी चाहिए.
और
ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के लिए बढ़े हुए व्यय का समर्थन करने के अलावा नौकरी-आधारित सामाजिक सुरक्षा जाल के जरिए जल्द ही वित्तीय नीति में स्वचालित स्थिरता लाना.
इसके बाद जिस मुद्दे पर बात की जा सकती है वह है मनरेगा का शहरी संस्करण. ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में काम की तलाश करने वालों को अस्थायी राहत प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना का शहरी संस्करण स्थापित करके पूरा किया जा सकता है. यदि सरकार सुरक्षित रोजगार पैदा करने के लिए अपनी वचनबद्धता के प्रति गंभीर है तो मैंने इसकी फंडिंग के लिए एक वित्तीय योजना प्रस्तुत की है.
बड़े पैमाने पर यदि भारत में केवल 38% कामकाजी उम्र की आबादी कार्यरत है और केवल 3% अन्य काम करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें काम मिल नहीं रहा है (जनसंख्या के प्रतिशत के रूप में बेरोजगार). तो जाहिर तौर पर जैसा कि CMIE इंगित करती है कि भारत में कामकाजी उम्र की आबादी का 59 फीसदी काम नहीं करना चाहता है. यह उस देश के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है, जिसकी अर्थव्यवस्था बड़े पैमाने पर "वर्कर-सरप्लस" संपन्न है और जिसका आर्थिक भविष्य लोगों से काम करवाने पर निर्भर है.
2020 और 2021 के केंद्रीय बजट में निहित सरकार का 'प्रो-ग्रोथ' आउटलुक और 'आत्मनिर्भरता' का दृष्टिकोण तब तक खोखला रहेगा, जब तक कि सरकार यह पहचानने का एक सचेत प्रयास नहीं करती है कि रोजगार के लिए इच्छुक लोगों के लिए नौकरी पैदा करना बची हुई 59 फीसदी आबादी की अवहेलना करना है, जो काम के प्रति अनिच्छुक होती जा रही है. वैश्विक रोजगार दर मानकों तक पहुंचने के लिए, भारत को हर साल अतिरिक्त 187.5 मिलियन लोगों को रोजगार देने की जरूरत है. 406 मिलियन के मौजूदा रोजगार को देखते हुए यह एक लंबा शॉट है.
(लेखक, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वर्तमान में कार्लटन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर हैं. ये ट्विटर पर @Deepanshu_1810 पर उपलब्ध हैं. यह लेख एक ओपिनियन है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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