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बजट में बहुत सारी बातें कही गई हैं. कुछ बड़े लुभावने. ईज ऑफ लिविंग मेरे हिसाब से सबसे लुभावना था. उसका मतलब समझाया गया कि हमारी जिंदगी में सरकारी दखल काफी कम होनी चाहिए. शायद वो पिछले चार साल की प्रक्रिया का करेक्शन है. अगर सचमुच ऐसा होता है, तो काफी स्वागत योग्य है.
पिछले कुछ सालों से हमारी जिंदगी में सरकार बहुत तेजी से एंट्री कर गई है- बैंक अकाउंट में, मोबाइल नंबर के जरिए, क्रेडिट कार्ड के जरिए.
सरकार की बढ़ती पहुंच को यह कहकर सही ठहराया गया कि कालेधन के खिलाफ लड़ाई में ऐसा करना जरूरी है. कालाधन तो मिला नहीं, लेकिन ऐसे करोड़ों लोग, जिनको कालेधन से कोई लेना-देना नहीं है, अब सरकार के बढ़ते दबदबे से घुटन महसूस करने लगे हैं.
इस पर कोर्स करेक्शन की बात काफी सराहनीय है. लेकिन सरकार को इस वादे पर अमल करना होगा. ईज ऑफ लिविंग का स्लोगन देने से काम नहीं चलेगा.
गौरतलब है कि पूरे पौने दो घंटे के बजट भाषण में वित्तमंत्री ने ब्लैकमनी की काफी कम चर्चा की. शायद इसकी बड़ी वजह यह रही होगी कि इतना तामझाम करने के बाद भी देश में इनकम टैक्स देने वालों में नौकरीपेशा वाले ही सबसे ज्यादा रेगुलर और ईमानदार हैं. शायद इसलिए सैलरीड क्लास को राहत की बात कही गई.
यह बात अलग है कि नौकरीपेशा वर्ग को राहत के रूप में झुनझुना ही मिला. और फाइनप्रिंट के हिसाब से कुछ लोगों को कुछ सौ रुपए की बचत होगी और थोड़ा ज्यादा कमाने वालों को पहले से ज्यादा ही टैक्स देना होगा.
दूसरा बड़ा ऐलान किसानों की उपज के बारे में किया गया. यह कहा गया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का अलग फॉर्मूला होगा. वो फॉर्मूला, जिसका वादा बीजेपी ने चुनाव से पहले किया था.
वादा था कि किसानों को उनकी उपज पर कम से कम 50 फीसदी का रिटर्न मिलेगा. किसानों के लिए इस फायदे को पहुंचाने का सबसे आसान तरीका था समर्थन मूल्य बढ़ाना. इस मामले में एनडीए सरकार ने पिछले करीब साल में काफी कंजूसी बरती है. यही वजह है कि किसानों की बदहाली लगातार बढ़ी है.
तो शहरी कंज्यूमर खाने-पीने के सामानों की महंगाई के लिए तैयार हो जाएं. महंगाई बढ़ेगी, तो ब्याज दर में कटौती की उम्मीद भी छोड़ दें. कुल मिलाकर टैक्स छूट में 40,000 रुपये का स्टैंडर्ड डिडक्शन वाला जो झुनझुना दिया गया है, उसे झुनझुना ही समझें. इससे शहरी कंज्यूमर की सेहत पर खास असर नहीं होगा.
इस बजट की सबसे खासियत रही है कि जितने ज्यादा डिटेल्स सामने आ रहे हैं, उससे लगता है कि बड़ी घोषणओं के अलावा किसी को कुछ खास मिला नहीं है. किसानों के लिए बड़े ऐलान तो हुए हैं, लेकिन वो ठीक तरीके से अमल होंगे?
वित्तमंत्री ने फील गुड का मैसेज देकर राजनीतिक मैसेजिंग सही रखी है. चुनावी साल में आर्थिक मैनेजमेंट की सुध वैसे भी कौन रखता है. वित्तमंत्री जी ने अपने आप को अपवाद होने से परहेज ही किया है.
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