बिहार चुनाव: ताजा सर्वे बताता है सीटों का अनुमान इतना कठिन क्यों?
सी-वोटर ट्रैकर में बीजेपी और जेडीयू के वोटों में बड़ा अंतर, जिससे अब सीटों का अंदाजा लगाना मुश्किल हो गया है
आदित्य मेनन
बिहार चुनाव
Updated:
i
सी-वोटर ट्रैकर में बीजेपी और जेडीयू के वोटों में बड़ा अंतर
(फोटो: PTI/Altered by QuintHindi)
✕
advertisement
बिहार विधानसभा चुनाव को अब कुछ ही दिन बाकी हैं. ऐसे में अब जीत-हार और सीटों को लेकर कयास लगाए जाने शुरू हो चुके हैं. ऐसे में अगर सी-वोटर ट्रैकर के ताजा आंकड़ों को देखें तो इससे पता चलता है कि कैसे इसने चुनावी पंडितों के सीटों के आंदाजे को किसी सपने की तरह बना दिया है. ये आर्टिकल ओपिनियन पोल के सीटों को लेकर लगाए गए अंदाजे पर नहीं है, बल्कि इसमें हम दो फैक्टर्स पर बात करेंगे.
पहले ये जानेंगे कि वो क्या फैक्टर हैं जिनकी वजह से इस चुनाव में सीटों का अंदाजा लगाना काफी मुश्किल हो गया है.
इन सभी विरोधाभासों को स्वीकार करते हुए हम सर्वे के कौन से ट्रेंड्स पर भरोसा कर सकते हैं?
लेकिन पहले सीटों का क्या अंदाजा लगाया गया है, उस पर बात कर लेते हैं.
सी-वोटर ट्रैकर के ताजा आंकड़े
ट्रैकर के मुताबिक जब लोगों से पूछा गया कि वो इस बार कौन सी पार्टी को चुनने जा रहे हैं तो उन्होंने जो जवाब दिया उसके मुताबिक,
बीजेपी को 33.8 फीसदी, आरजेडी को 24.3 फीसदी, जेडीयू को 14.4 फीसदी, कांग्रेस को 11.7 फीसदी, एलजेपी को 6.7 फीसदी और अन्य को 9.1 फीसदी वोट शेयर मिल सकता है.
ये सभी आंकड़े हर पार्टी के चुनाव से पहले हुए गठबंधन के बाद के हैं. टाइम्स नाउ ने भी अपने सर्वे के नतीजे दिखाए हैं, जिसमें उन्होंने सीटों का अंदाजा लगाया है. इसके मुताबिक,
बीजेपी को 85, जेडीयू को 70, एनडीए सहयोगी दलों को 5, आरजेडी को 56, कांग्रेस को 15, लेफ्ट को 5 और एलजेपी को 5 सीटों का अनुमान लगाया गया है.
सी-वोटर के अलावा तमाम सर्वे करने वाली एजेंसी आमतौर पर सीटों की भविष्यवाणी को लेकर काफी सतर्क रहते हैं. यहां तक कि कुछ चैनल पोलिंग एजेंसी के डेटा से सीटों का सटीक अंदाजा लगाने के लिए किसी तीसरी कंपनी को हायर करते हैं. यानी उनके लिए ये तीसरी कंपनी पूरा विश्लेषण कर हर पार्टी को मिलने वाली सीटों के नजदीक का आंकड़ा निकालती है.
यहां पर सतर्क रहना जरूरी है, खासतौर पर जब बिहार में होने वाले चुनाव जैसी कोई स्थिति बनी हो. जानिए क्या वो एक्स फैक्टर्स हैं जो चुनाव के नतीजों को बदल सकते हैं या फिर पेचीदा बना सकते हैं.
इस चुनाव में सबसे बड़ा जो एक्स-फैक्टर है वो बीजेपी-जेडीयू और एलजेपी का समीकरण है. जिसे कुछ छोटे-छोटे सवालों में तोड़कर समझा जा सकता है.
1. जेडीयू की सीटों में बीजेपी के वोटर्स का क्या होगा?
सी-वोटर ट्रैकर के मुताबिक बिहार के 33.8 फीसदी वोटर्स का कहना है कि वो बीजेपी को समर्थन करते हैं, वहीं 14.4 फीसदी वोटर जेडीयू के समर्थन में हैं. अब जैसा कि दोनों दल गठबंधन में हैं तो कुल वोट शेयर 48.2 फीसदी होता है. लेकिन ये दो अंकों को जोड़कर हल होने वाला समीकरण नहीं है.
बीजेपी और जेडीयू इस चुनाव में लगभग बराबर सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं. अब अगर जेडीयू की खुद की पॉपुलैरिटी सिर्फ 14.4 फीसदी है तो ऐसे में उन सीटों पर क्या होगा जहां जेडीयू ने अपने उम्मीदवार उतारे हैं? क्या बीजेपी अपने पूरे वोट जेडीयू उम्मीदवारों को ट्रांसफर करने में कामयाब रहेगी? क्या ऐसा चाहकर भी किया जा सकता है?
ये नहीं कहा जा सकता है कि बीजेपी के वोट पूरी तरह से जेडीयू की हर सीट पर ट्रांसफर हो सकते हैं. कुछ जगहों पर ये वोट एलजेपी के खाते में भी जा सकते हैं.
2. एलजेपी उम्मीदवारों और वोटर्स का क्या?
ऊपर जो समीकरण आपको बताए, वो एलजेपी की एंट्री के बाद और भी ज्यादा पेचीदा हो गई हैं. एलजेपी एक ऐसी पार्टी है, जो एनडीए का तो हिस्सा है, लेकिन एनडीए के सीएम उम्मीदवार नीतीश कुमार के ही खिलाफ चुनाव लड़ रही है.
अब एलजेपी बीजेपी के पूर्व नेताओं को उन सीटों पर उतार रही है, जिन्हें एनडीए सीट शेयरिंग में जेडीयू को दिया गया है. तो ऐसे में जेडीयू सीट पर जो बीजेपी वोटर्स हैं उनके पास दूसरी पार्टी को वोट करने का भी विकल्प होगा. ऐसा राज्य में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार बनाने के लिए भी हो सकता है, क्योंकि इन सीटों पर पूर्व बीजेपी नेताओं को ही एलजेपी ने उम्मीदवार बनाया है.
इसीलिए अब इस बात को ध्यान में रखते हुए ये नहीं कहा जा सकता है कि हर सीट पर बीजेपी के पूरे वोट जेडीयू को ही मिलेंगे.
एलजेपी फैक्टर उल्टा भी काम कर सकता है. क्योंकि पार्टी ने बीजेपी के खाते में आने वाली सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारे हैं, ऐसे में मुमकिन है कि एलजेपी के ज्यादातर वोट बीजेपी के खाते में आएं. क्योंकि चिराग पासवान की पार्टी इन सीटों पर चुनाव नहीं लड़ रही है.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
3. उन बीजेपी वोटर्स का क्या जो नीतीश कुमार से नाराज हैं?
अब फिर से अगर सी-वोटर ट्रैकर पर नजर डालें तो बड़ी संख्या में करीब 54.4 फीसदी लोगों ने कहा है कि वो नीतीश कुमार से नाराज और गुस्सा हैं. साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि वो बदलाव चाहते हैं. वहीं 29.5 फीसदी लोग ऐसे भी थे जिन्होंने कहा कि वो नीतीश कुमार से गुस्सा तो हैं, लेकिन बदलाव नहीं चाहते. जबकि 15.9 फीसदी लोगों ने कहा कि वो नाराज नहीं हैं और नीतीश को ही सीएम के तौर पर देखना चाहते हैं.
इससे साफ होता है कि बीजेपी के ज्यादातर वोटर्स नीतीश कुमार से नाराज हैं. तो क्या वो इस सूरत में नीतीश के लिए ही वोट करेंगे?
इसका मतलब है कि कुल 84 फीसदी वोटर्स नीतीश कुमार सरकार से नाराज हैं. वहीं करीब 16 फीसदी लोग संतुष्ट हैं. अब ऐसे में देखा जाए तो बीजेपी वोटर्स की एक बड़ी संख्या नीतीश कुमार से नाराज है. हालांकि इनमें से ज्यादातर लोग ऐसे हैं जो नीतीश कुमार से गुस्सा हैं, लेकिन बदलाव नहीं चाहते. इस पूरे वोट शेयर में से कुछ ही हिस्सा ऐसा होगा, जो नीतीश सरकार से नाराज भी है और बदलाव भी चाहता है.
तो क्या ये जो वोटर्स का कुछ फीसदी हिस्सा है, वो जेडीयू को वोट डालेगा या फिर एलजेपी को चुनेगा या नोटा का बटन दबाएगा या घरों से वोट डालने बाहर ही नहीं निकलेगा.
4. बीजेपी की सीटों पर जेडीयू वोटर्स का क्या?
अब ये नहीं कहा जा सकता है कि जेडीयू के जो कोर वोटर्स हैं, उन्हें इस चर्चा की जानकारी नहीं है कि बीजेपी इस बार एलजेपी का प्रचार कर रही है, जिससे नीतीश की ताकत को कम किया जा सके. तो क्या ऐसे में जेडीयू को वोटर्स बीजेपी को वोट डालेंगे जैसा कि उन्होंने 2010 और 2005 में किया था?
भले ही जेडीयू का वोट शेयर इन सीटों पर बीजेपी और आरजेडी के मुकाबले काफी कम हो, लेकिन अगर बीजेपी के खाते से ये कुछ वोट शेयर थोड़ा भी इधर-उधर होता है तो कई सीटों पर मुकाबला काफी कांटे का हो जाएगा.
इन सबके अलावा भी बिहार चुनाव के इतिहास को लेकर कुछ बातें ऐसी हैं. जिन्हें दिमाग में रखना काफी जरूरी है.
'अन्य' को कमतर न आंकें
मुख्य गठबंधन के अलावा जो भी पार्टियां या फिर कैंडिडेट हैं उन्हें 'अन्य' कहा जाता है. 2015 विधानसभा चुनाव को छोड़ दें तो अन्य को बिहार में 33% से कम वोट कभी नहीं मिले. लेकिन 2015 के चुनाव में भी अन्य को 24.2% वोट मिले थे, जबकि ट्रैकर का अनुमान था कि इन्हें सिर्फ 15.8% वोट ही मिलेंगे.
अन्य को बिहार में 33% से कम वोट कभी नहीं मिले, 2015 के चुनाव इसका अपवाद हैं. ओपिनियन पोल में इस अन्य को कम करके आंका जाता है. और ये भी ध्यान रखने की जरूरत है कि इसके पहले के चुनाव में LJP अन्य में शामिल नहीं थी लेकिन इस बार LJP के वोट भी अन्य में ही गिने जाएंगे.
हां ये भी है कि कई पार्टियां जैसे लेफ्ट की पार्टियां, वीआईपी जो पहले अन्य का हिस्सा थी वो इस बार गठबंधन में शामिल हो गई हैं. उपेंद्र कुश्वाहा की RLSP बड़े गठबंधन को छोड़कर छोटे गठबंधन का हिस्सा हो गई है.
इसलिए सर्वे में जो अनुमान लगया गया है, अन्य का वोट उससे ज्यादा हो सकता है. साफतौर से कहा जाए तो ज्यादातर पोल को ये चेतावनी देना चाहिए कि सर्वे में अन्य के वोट को नजरअंदाज किया. लेकिन सवाल ये है कि अगर अन्य को 15.8% से ज्यादा वोट मिलता है और ये मिलते हुए दिख भी रहा है, तो ये वोट उन्हें किस पार्टी के वोट की कीमत पर मिलेगा?
ऐसी कोई भी पार्टी या गठबंधन नहीं है जिसने बिहार में 45% वोट प्रतिशत पार किया हो
बिहार में 1951 से जितने भी चुनाव लड़े गए हैं, ऐसी कोई भी पार्टी या गठबंधन नहीं रहा है जिसने बिहार में कुल वोट का 45% पार किया हो. ये तब भी नहीं हुआ जब पूरे देश में कांग्रेस ही एक बड़ी पार्टी थी और ये तब भी नहीं हुआ जब इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की लहर सारे देश में छा गई थी. जब नीतीश कुमार के नेृत्वव वाले एनडीए ने 2010 में 243 में से 206 सीटें जीती थीं, तब भी इस गठबंधन को सिर्फ 39% वोट ही मिले थे.
अभी तक चुनाव पूर्व गठबंधन में सबसे ज्यादा वोट प्रतिशत 2015 के महागठबंधन को मिला था ये करीब 44% था.
लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि एनडीए 45% की सीमा को पार नहीं कर सकता. ये संभव है और ये हो भी सकता है. लेकिन अगर ये होता है तो एनडीए की सीटों का जितना अनुमान लगाया गया है, परिणाम उससे ज्यादा रह सकता है.
अगर ये बातें हम दिमाग में रखते हैं तो कुछ ही पहलू हैं जिनको सर्वे साफ करता है.
ये सर्वे साफ-साफ क्या बताता है?
इस चुनाव में सबसे अहम मुद्दा है नौकरियां. वो भी बड़े मार्जिक के साथ. 49 फीसदी लोगों का कहना है कि उनके लिए ये सबसे अहम चुनावी मुद्दा है. सड़क / पानी / बिजली का मुद्दा 12.9 फीसदी के साथ दूसरे स्थान पर था. खास बात ये है कि नौकरियों के मुद्दे को सबसे अहम बताने वाले लोगों में पिछले महीने के 25 फीसदी से करीब दोगुने का इजाफा हुआ है.
बिहार साफ तौर से बिहार की सबसे मजबूत पार्टी है. ऐसा दिख रहा है कि पार्टी की पकड़ 15 फीसदी 'अगड़ी जाति' के वोट बैंक पर कमजोर नहीं हुई है. साथ ही इसका विस्तार ओबीसी और दलितों के एक वर्ग में भी हो सकता है. ऐसा भी लगता है कि नीतीश कुमार के खिलाफ जो गुस्सा है उसका प्रभाव बीजेपी पर उतना नहीं होगा, जितना होना चाहिए था. ये इसलिए हो सकता है क्योंकि बिहार ने कभी बीजेपी के नेतृत्व में सरकार नहीं देखी है.
आरजेडी के नेतृत्व वाला महागठबंधन, NDA गठबंधन से ज्यादा स्थिर दिखता है. गठबंधन में लोकसभा में मिली बड़ी नाकामी के बाद काफी हद तक सुधार किया है. हालांकि, ये भी दिखता है कि एंटी-इनकंबेंसी वाले सभी वोटरों को ये महागठबंधन खींच पाने में नाकाम रह सकता है. वहीं, पड़ोंसी राज्य झारखंड का उदाहरण देखें तो पिछले साल चुनावों में हेमंत सोरेन ने इस मामले में काफी अच्छा प्रदर्शन किया था और सफल भी रहे थे.
COVID-19 महामारी, प्रवासी मजदूर संकट और खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के बावजूद पीएम मोदी की लोकप्रियता कमोबेश जस की तस है. अप्रैल के मुकाबले ये थोड़ा कम हुआ है जब अप्रैल के मध्य में लगभग 70 फीसदी जवाब देनवालों ने कहा था कि वो पीएम मोदी के प्रदर्शन से बहुत संतुष्ट हैं. जो अब घटकर 44 फीसदी हो गए हैं.
जैसे-जैसे कैंपेन आगे बढ़ा चिराग पासवान की लोकप्रियता बढ़ी है. पिछले महीने के सर्वे में वो टॉप सीएम चेहरों में शामिल नहीं थे. लेकिन ताजा ट्रैकर में, 8 फीसदी लोगों ने उन्हें सीएम के तौर पर पंसद किया है. नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, सुशील मोदी के बाद वो सीएम की पसंद के मामले में चौथे स्थान पर हैं.