advertisement
अक्टूबर/नवम्बर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Election 2020) इस बार काफी रोचक हो गए हैं. पिछली बार से अलग इस बार ऐसा इसलिए क्योंकि इस चुनाव में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की भरमार है. पिछले चुनाव तक एकमात्र नीतीश कुमार ही बिहार का मुख्यमंत्री चेहरा थे और जानकर बताते हैं कि यही चीज उनके पक्ष में गई. पर इस बार तो बात ही अलग है. नीतीश को तेजश्वी यादव से कड़ी टक्कर मिल रही है. ऐसे में दोनों दावेदारों की क्या रणनीति, कमजोरियां और ताकत हैं, उनके चुनाव कैंपेन से पता लगता है.
आश्चर्य की बात यह है कि लम्बे राजनितिक अनुभव और लम्बे समय तक सत्ता में रहने के वाबजूद नीतीश का फोकस इस बार नेगेटिव कैम्पेन पर ज्यादा है. एक नजर जरा नीतीश की पार्टी JDU के नारों पर डालिए, जो यह बताने के लिए काफी हैं कि बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री कितने दबाव में हैं.
यही नहीं, नीतीश ने अपने 7 सितम्बर की रैली में भी लालू और उनके पिछले 15 साल के शासन पर जम कर निशाना साधा और लोगों को राजद के कथित जंगलराज की याद दिलाई.
इतना ही नहीं, नीतीश अभी अपने कामों से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी की तारीफों पर ध्यान दे रहें हैं. अपनी एक वर्चुअल रैली में मोदी ने नीतीश की तारीफ क्या कर दी, JDU ने तो एक बड़ा होर्डिंग ही तैयार कर लिया और पटना में कई जगहों पर लगा दिया है. होर्डिंग पर लिखा है: "नीतीश जैसे सहयोगी हों तो कुछ भी संभव है"- प्रधानमंत्री मोदी.
दरअसल नीतीश अपने कामों के बारे में बात करने के बजाय ज्यादा ध्यान लालू शासन को खराब बताने में लगा रहे हैं तो इसकी एक वजह ये है कि इस बार उनकी विश्वसनीयता भी एक मुद्दा है. जून 2013 में बीजेपी से अपने 17 साल का गठबंधन तोड़ने के बाद नीतीश केवल भागते रहे हैं--कभी इधर, कभी उधर. केवल नहीं बदली तो उनकी कुर्सी.
नीतीश ने चुनाव जीतने के लिए घोषणाओं की बाढ़ ला दी है. उनमें से कुछ घोषणाएं काफी अजीबोगरीब हैं. जैसे कि यदि किसी दलित की हत्या होती है तो राज्य सरकार पीड़ित परिवार के एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी देगी. इसके पहले दलितों को लुभाने के लिए नीतीश ने महादलित आयोग बनाया था जिसमें 22 जातियों को शामिल किया गया था लेकिन इसमें दुसाध जाति (पासवान) को शामिल नहीं किया गया.
यह जाति महादलित कैटेगरी में तब शामिल हुई जब नीतीश ने महागठबंधन से नाता तोड़कर एनडीए के सहयोग से बिहार में सरकार बनाई. राम विलास पासवान की पार्टी लोजपा अभी एनडीए का ही अंग है. उसी तरह नीतीश ने 3.5 लाख कॉन्ट्रैक्ट शिक्षकों के वेतन में 15 % बढ़ोतरी की घोषणा की है लेकिन शिक्षकों को बढ़ी हुई सैलरी अगले साल अप्रैल से मिलेगी. राजपूत वोटरों को लुभाने के लिए उनके द्वारा की गई घोषण तो और भी विचित्र है. उनकी पार्टी ने राजद के पूर्व नेता स्वर्गीय रघुवंश प्रसाद सिंह के अधूरे सपनों को पूरा करने की घोषणा की है. सिंह की मौत इसी महीने कोरोना से हुई है.
महागठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार तेजश्वी यादव की कैम्पेनिंग भी लगभग नीतीश की तरह ही है. वो नीतीश की कमियों को उजागर कर जनता का साथ चाहते हैं.
यही नहीं, तेजश्वी की पार्टी ने नीतीश के पलटने को भी मुद्दा बनाया है. राजद आज नीतीश कुमार से पूछ रहा है कि पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री ने उनके डीएनए पर सवाल खड़े किए थे जिसको उन्होंने बिहार की अस्मिता से जोड़ा था. राजद अब यह सवाल पूछ रहा है कि क्या आज सब कुछ ठीक हो गया है? "मारते रहे पलटी, नीतीश की हर बात कच्ची" के नारे साथ आज कई होर्डिंग पटना में लगाए जा चुके हैं. राजद ने नीतीश के बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने और विशेष पैकेज की मांग से भी पलटी मारने को भी मुद्दा बना रहा है
RJD की चुनावी रणनीति भी आज पूरी तरह से बदल चुकी है. लालू के चुटीले भाषणों पर आधारित रहने वाली पार्टी अपने संदेशों का प्रचार प्रसार करने के लिए आज टेक्नोलॉजी का भरपूर इस्तेमाल कर रही है. दूसरी, राजद आज "एम -वाई" (मुस्लिम और यादव) के वोटबैंक से आगे निकलकर "ए टू जेड" की पार्टी बनने की कोशिश कर रही है. एक ऐसी पार्टी जिसमे सभी जातियों का सहयोग हो. विकास एक नया मुद्दा है राजद के लिए. वैसे तेजश्वी आरक्षण के मुद्दे को किसी भी तरह से छोड़ना नहीं चाहते. पिछले चुनाव में यही मुद्दा महागठबंधन को जिताने में रामबाण साबित हुआ था.
एक तीसरी कैंडिडेट भी है पुष्पम प्रिया चौधरी जो अपने आप को मुख्यमंत्री कैंडिडेट घोषित कर चुकी है और बिहार का लगातार दौरा कर रही हैं. लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस से एमए कर चुकी पुष्पम ने 'प्लुरल्स' नाम क' की एक पार्टी का गठन किया है और वो युवाओं के दम पर बिहार को बदलना चाहती हैं. पिछले साल एकाएक उन्होंने बड़े-बड़े अखबारों में फुल-पेज विज्ञापन देकर खुद को बिहार का मुख्यमंत्री कैंडिडेट घोषित किया था.
राजनीतिक विश्लेषक और इंडियन एक्सप्रेस के असिस्टेंट एडिटर संतोष सिंह कहते हैं-
वो फिर कहते हैं, "वैसे नीतीश के लिए एक अच्छी बात यह है कि विपक्ष कमजोर और बिखरा हुआ है और तेजश्वी के पास भी बताने को कुछ खास नहीं हैं. वो वंशवाद की राजनीति की उपज हैं, किसी आंदोलन की उपज नहीं."
इन सबके बीच एक अहम बात यह भी है कि आज आम आदमी चुनाव में कोई रूचि नहीं ले रहा है. कहने को तो चुनाव की तारीखों का आज ऐलान हो चुका है लेकिन मतदाताओं के बीच अभी भी इस पर कोई खास चर्चा नहीं हो रही. लोगों में इस बात का भय है कि यदि वो कोरोना की चपेट में आ गए तो उनका क्या होगा, उनके परिवार का क्या होगा. अस्पतालों की लचर व्यवस्था से तो वो वाकिफ हैं ही.
औरंगाबाद के ग्रामीण पंकज श्रीवास्तव कहते हैं-
मतदाताओं की चुनाव में अरुचि का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि किसी भी राजनीतिक पार्टी ने आज तक कोई चुनावी रैली नहीं की है. आखिर क्या वजह है कि सारे मंदिर, माल, स्कूल, दुकानें खुल गईं बसें और ट्रेन क्यों चल रही हैं, लेकिन चुनाव के इतने करीब आकर भी कोई रैली नहीं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)