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लोकसभा चुनाव 2019 से ठीक पहले चुनावी बॉन्ड का मसला गरमा गया है. भारत के निर्वाचन आयोग की चुनावी बॉन्ड पर की गई आपत्तियों पर सरकार ने अपनी प्रतिक्रिया दी है. केंद्र सरकार ने इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में एक नया हलफनामा दायर किया है. इसमें सरकार ने चुनाव आयोग की चिंता को बगैर किसी 'कानूनी या तथ्यात्मक योग्यता' का बताया है.
इससे पहले 27 मार्च को चुनाव आयोग ने एक हलफनामा दायर कर अपनी चिंता जाहिर की थी. आयोग ने कहा था कि चुनावी बॉन्ड और कॉरपोरेट फंडिंग पर कैप हटाने से राजनीतिक दलों की फंडिंग की पारदर्शिता पर "गंभीर प्रभाव" पड़ेगा.
इसमें यह भी आशंका जताई गई थी कि चुनावी बॉन्ड से 'बेनामी' फंडिंग का रास्ता खुल जाएगा और राजनीतिक दलों को अनलिमिटेड कॉर्पोरेट फंडिंग की बाढ़ आ जाएगी.
हालांकि, वित्त मंत्रालय ने चुनाव आयोग के इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि चुनावी बॉन्ड से पहले की तुलना में नई प्रणाली के जरिए फंडिंग में पारदर्शिता लाने का प्रयास किया गया है.
हलफनामे में आगे कहा गया है कि "खरीदार की पहचान अधिकृत बैंक को मालूम होनी चाहिए, क्योंकि बॉन्ड के खरीदारों के लिए केवाईसी मानदंडों के बारे में RBI के निर्देश लागू होते हैं."
इसमें कहा गया है कि दानदाताओं की पहचान गुप्त रखी जाती है, जिससे कि वह राजनीतिक शिकार न बनें.
सरकार ने जोर देते हुए कहा कि "बॉन्ड के से मिलने वाली राशि को किसी एक राजनीतिक पार्टी के सिंगल पंजीकृत बैंक अकाउंट में जमा किया जा सकता है."
इससे पहले, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के याचिकाकर्ता, एडवोकेट प्रशांत भूषण ने अदालत को बताया था कि अब तक बेचे गए 95 प्रतिशत चुनावी बॉन्ड सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के पक्ष में हैं. भूषण ने इसे चुनाव से पहले का किकबैक कहा था. सरकार द्वारा जारी इलेक्टोरल बॉन्ड को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट 5 अप्रैल को सुनवाई कर सकता है.
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