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'स्टैच्यू ऑफ यूनिटी 8 साल में बना, 60 साल में अच्छा स्कूल नहीं बना पाए'

Statue of unity की जगमग देश भर में है लेकिन आसपास के गांव बुनियादी सुविधाओं और रोजगार के लिए तरस रहे हैं

ईश्वर
गुजरात चुनाव
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<div class="paragraphs"><p>स्टैच्यूऑफ यूनिटी के पास लिमड़ी गांव की एक्टिविस्ट और निवासी दक्षाबेन ताडवी</p></div>
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स्टैच्यूऑफ यूनिटी के पास लिमड़ी गांव की एक्टिविस्ट और निवासी दक्षाबेन ताडवी

फोटो : ईश्वर  / द क्विंट

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28 वर्षीय राजेंद्र तडवी केवडिया गांव के उन चुनिंदा युवाओं में से एक हैं जो शिक्षित हैं, वे एक्टिविस्ट भी हैं. गुजरात का स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (SoU) जहां पर स्थापित है वहीं उनका गांव एकता नगर में स्थित है, जिसे पहले केवडिया कॉलोनी कहा जाता था. राजेंद्र तडवी कहते हैं कि "मैं आपको गांव की आंगनवाड़ी इमारत की स्थिति दिखाऊंगा. यह किसी भी वक्त गिर सकती है."

उनके घर से बमुश्किल 200 मीटर की दूरी पर एक स्थानीय आंगनवाड़ी थी, जिसकी इमारत की हालत काफी दयनीय थी. उसकी छत की टिन क्षतिग्रस्त थी, खिड़कियां टूटी हुई थीं, बाहर एक शौचालय और पीने के पानी का नल था, जिसमें पानी नहीं था. राजेंद्र आंगनवाड़ी की छत के छेद की ओर इशारा करते हुए बताते हैं कि "जब बारिश होती है तो बाढ़ आ जाती है."

राजेंद्र बताते हैं कि "यहां दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति (स्टैच्यू) बनाई गई है लेकिन स्कूल जर्जर अवस्था में है. यहां पहली से छठवीं कक्षा तक सिर्फ एक ही शिक्षक है. आंगनवाड़ी की हालात ऐसी है कि वे कभी भी गिर सकती है. पास ही एक माध्यमिक विद्यालय है, लेकिन उसकी भी स्थिति काफी बदहाल है."

जर्जर अवस्था में केवड़िया गांव की आंगनवाड़ी

फोटो : ईश्वर / द क्विंट

यहां से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के प्रवेश द्वार के ठीक सामने दक्षाबेन ताडवी एक ढाबा चलाती हैं.

दक्षाबेन बताती हैं कि "आप जाइए और जाकर लिमडी गांव को देखें, वहां शौचालय नहीं हैं. बच्चों के साथ-साथ अन्य लोगों को शौच के लिए पास के जंगल में जाना पड़ता है. उन्होंने 182 मीटर ऊंची मूर्ति बनाई और नर्मदा डैम बनाया, लेकिन वहां कोई 'विकास' नहीं है. उनके आसपास पर्यटक सुविधाएं तो हैं लेकिन गांवों में विकास नहीं है. आप ऐसे कई गांवों में खुद जाकर देख सकते हैं."

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के आसपास रहने वाले राजेंद्र, दक्षाबेन और कई अन्य लोग वर्षाें से चली आ रही सिस्टम की विफलता के बारे में बताते हुए कहते हैं कि 1960 के दशक में नमर्दा डैम प्रोजेक्ट के लिए जो आदिवासी विस्थापित किए गए थे,वे विस्थापन के परिणामों को भुगत रहे हैं.

लिमड़ी में रहने वाले मनीष ताडवी अपने गांव में आंशिक रूप से निर्मित शौचालय को दिखाते हुए

फोटो : ईश्वर / द क्विंट

कई गांव, पुनर्वासित कॉलोनियां और विस्थापित परिवार अभी भी बुनियादी सुविधाओं जैसे कि शौचालयों तक पहुंच, पूरी तरह से संचालित स्कूल, ढंग की आंगनवाड़ी, अस्पतालों से निकटता और नौकरियों की कमी के कारण संघर्ष कर रहे हैं.

कानूनी संघर्ष

इन आदिवासी गांवों में से छह गांव (केवड़िया, वघड़िया, नवागम, लिमडी, गोरा और कोठी) भूमि के अधिग्रहण को लेकर सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड (SSNNL) के साथ कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं. इन गांवों की जमीन स्टैच्यू के आसपास पर्यटन विकास (टूरिज्म डेवलवमेंट) के लिए अधिग्रहित की गई थी. SSNNL गुजरात सरकार के स्वामित्व वाली एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी है, जो सरदार सरोवर परियोजना का प्रबंधन देखती है. ये गांव किस कानूनी लड़ाई में उलझे हुए हैं, उसे क्विंट ने कवर किया.

हालांकि कानूनी झंझटों में उलझे हुए केवल यही छह गांव ही नहीं बल्कि पुनर्वासित कॉलोनियां भी जहां वर्षों से विस्थापित लोगों को स्थानांतरित किया गया है, बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

स्टैच्यू से लगभग 10 किलोमीटर दूर एक पुनर्वासित कॉलोनी सिरा गांव के निवासी दो महीने से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.

नर्मदा बांध पुनर्वास कॉलोनी, सिरा गांव के निवासी बुनियादी सुविधाओं और रोजगार की कमी के खिलाफ विरोध करते हुए.

फोटो : ईश्वर / क्विंट

जिकुभाई भील दावे के साथ कहते हैं कि "यहां काफी काम बचा हुआ है. जब हमारे गांव डूब गए, तब सरकार ने हमें यहां इस पुनर्वास कॉलोनी में स्थानांतरित कर दिया. उन्होंने हमें खेती करने के लिए जमीन दी और घर बनाने के लिए पैसे दिए, लेकिन यहां हमें सिंचाई के पानी की कोई सुविधा कभी नहीं मिली. उन्होंने कॉलोनी तो बना ली लेकिन जल निकासी (ड्रेनेज) की कोई उचित व्यवस्था नहीं की. हाल ही में बारिश के दौरान मेरे घर में पानी भर गया था. यहां कोई गटर या पाइपलाइन की समुचित व्यवस्था नहीं है. पहले तो उन्होंने आधा काम ही किया और फिर बाद में उन्होंने काम पूरी तरह बंद कर दिया."

वे आगे बताते हैं कि "यहां इस बस्ती को बसे हुए 20 साल हो गए हैं. यहां पानी और बिजली, लेकिन वाटर सप्लाई किसी भी समय बंद कर दी जाती है, इसी तरह बिजली भी बंद हो जाती है."

सिरी के पास ही कसुंदर गांव है, वहां उचित जलापूर्ति की कमी भी एक समस्या है.

कंशनभाई को इसी तरह के विस्थापन पैकेज में 60 के दशक में गांव में स्थानांतरित किया गया था. कंशनभाई बताते हैं कि उन्होंने नर्मदा के लिए अपनी जमीन कुर्बान कर दी, लेकिन अभी भी उन्हें ठीक ढंग से पीने के पानी नहीं मिल रहा है.

कंशनभाई भागुभाई एक किसान हैं जो 1960 के दशक में कसुंदर गांव में बांध के लिए विस्थापित हुए थे.

फोटो : ईश्वर / क्विंट

कंशनभाई बताते हैं कि "यहां एक पंचायत का बोरवेल है, जिससे हम पीने का पानी लेते हैं. इसमें हर दिन पानी नहीं आता है बल्कि हर तीसरे दिन आता है. यह पानी अन्य गांवों से आता है. हमें नर्मदा के पानी का लाभ कभी नहीं मिला. हमने अभी तक नहर के पानी का स्वाद नहीं चखा है."

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गांवों की सबसे बड़ी समस्या : बेरोजगारी 

कई लोगों ने दावा किया कि जब उन्हें स्थानांतरित किया गया था, तब उनसे कहा गया था कि घर के पुरुष सदस्यों को सरकारी नौकरी दी जाएगी, लेकिन उन्हें नौकरी कभी नहीं मिली.

जीकुभाई बताते हैं कि "उन्होंने वादा किया था कि हमारी जमीन लेने के बाद कम से कम एक बेटे को सरकारी नौकरी मिलेगी, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. कुछ महीने पहले ही हम गांधीनगर में मुख्यमंत्री से मिले और उन्हें अपनी मांगों की एक सूची सौंपी. सीएम ने हमसे कहा कि वह अगले 15 दिनों के भीतर हम लोगों से मिलेंगे, लेकिन वे नहीं मिले." इसके बाद से जीकुभाई ने गांववालों के साथ मिलकर विरोध प्रदर्शन शुरु कर दिया.

अधिकांश ग्रामीण रोजगार पर बोलना चाहते हैं, जिस पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अक्टूबर 2018 में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के उद्घाटन के दौरान अपने भाषण में जोर दिया था.

दक्षाबेन ताडवी एक स्थानीय एक्टिविस्ट हैं और स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के पास लिमडी गांव की रहने वाली हैं

फोटो : ईश्वर / द क्विंट

कई स्थानीय लोगों का आरोप है कि मूर्ति को मेंटेन करने के लिए जिन बाहरी एजेंसियों को काम पर रखा गया है वे केवल सफाई और लोकल ऑटो चलाने जैसे छोटे-मोटे काम देती हैं और उनमें प्राथमिकता केवल "बाहरी लोगों" को दी जाती है.

राजेंद्र ने दावे के साथ बताया कि "इतने सारे गांवों में कई ग्रेजुएट्स हैं जिन्हें स्टैच्यू में नौकरी नहीं मिली, जबकि बाहर से लोगों को यहां काम करने के लिए लाया जा रहा है."

वहीं अधिकारियों का दावा है कि लोगों को दी जाने वाली नौकरियां उनकी योग्यता के अनुसार हैं.

आशीष ताडवी, कोठी गांव के एक एक्टिविस्ट हैं और पास के एक स्कूल के पूर्व शिक्षक रहे हैं, उन्होंने एक बार स्टैच्यू पर टूर गाइड सुपरवाइजर के रूप में काम किया है.

आशीष कहते हैं कि "जब यहां स्टैच्यू ऑफ यूनिटी प्रोजेक्ट लॉन्च किया जा रहा था तब मैं खुश था. यहां किसे विकास पसंद नहीं है?"

वे आगे बताते हैं कि "आपने 2010 में इस प्रोजेक्ट को लॉन्च किया. लेकिन 2010 से और उससे पहले भी, आपने हमें खुद को शिक्षित करने और रोजगार योग्य बनाने के लिए उचित स्कूल भी नहीं दिए. आप एक दशक के भीतर स्टैच्यू का निर्माण कर सकते हैं और इसके आसपास के क्षेत्रों का विकास कर सकते हैं, लेकिन 60 वर्षों तक आप हमारी शिक्षा और उत्थान के बारे में थोड़ी बहुत भी परवाह नहीं कर सके."

अधिकांश स्थानीय लोगों और फेरीवालों का आरोप है कि स्टैच्यू के पास सड़कों पर दुकानें लगाने पर पुलिस उन्हें परेशान करती है.

राजेंद्र बताते हैं कि "बड़े व्यवसायियों के आने और यहां दुकानें लगाने से उन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन स्थानीय लोगों को रेहड़ी लगाने की भी अनुमति नहीं है."

हालांकि कई स्थानीय लोगों ने दावा किया है कि भले ही आदर्श तरीके से नहीं लेकिन स्टैच्यू ने उन्हें लाभ पहुंचाया है.

जैसे ही स्टैच्यू को लॉन्च किया गया वैसे ही स्थानीय महिलाओं को मूर्ति के आसपास ई-रिक्शा चलाने के लिए काम पर रखा गया ताकि लोगों को पास के पर्यटक स्थलों तक ले जाया जा सके. ग्रामीणों को जूलॉजिकल पार्क, 'वैली ऑफ फ्लावर्स' आदि में भी रोजगार दिया गया.

23 वर्षीय करिश्मा ताडवी स्टैच्यू के बाहर ई-रिक्शा चलाती हैं. उन्होंने बताया कि वे इस काम के जरिए अपने परिवार का भरण-पोषण कर पा रही हैं. प्राइमरी स्कूल से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाने वाली करिश्मा ने कहा कि स्टैच्यू की वजह से उनके ज्यादातर दोस्तों को रोजगार मिला है.

23 वर्षीय करिश्मा ताडवी स्टैच्यू के आसपास ई-रिक्शा चलाती हैं.

फोटो : ईश्वर / द क्विंट

करिश्मा कहती हैं कि "स्टैच्यू की वजह से ई-रिक्शा यहां आए हैं. मैं यहां पांच महीने से काम कर रही हूं. अगर पूरे दिन के लिए ऑटो बुक हो जाता है, तो हमें 2 हजार रुपये मिलते हैं, जिसमें से 670 रुपये स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के ऑफिस में जमा करने पड़ते हैं बाकी के हमारे पास होते हैं."

एक अन्य स्थानीय आदिवासी जो पास ही में 'वैली ऑफ फ्लावर्स' में काम करते हैं, वह अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहता है. उसने बताया कि पुश्तैनी जमीन में खेती करने की तुलना में इस काम में उसे कम वेतन मिलता है. लेकिन वह पुराने काम से चिपके नहीं रहना चाहता है.

वो कहते हैं कि "मैं सरकार का प्रशंसक नहीं हूं, लेकिन मैं अतीत को भी नहीं बदल सकता. 1960 के दशक में जो कुछ भी हुआ वह बहुत पहले की बात हो गई है. मैं इस बात को मानता हूं कि सरकार को विकास के प्रयास करना चाहिए था. लेकिन अगर मैं विरोध और कानूनी झंझटों में उलझा रहा, तो मैं अपने बच्चों की मदद नहीं कर पाऊंगा."

सिस्टमैटिक विफलता के कई वर्ष

नंदिनी ओझा, एक लेखिका और आर्किविस्ट हैं, जो वर्षों से नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ी हुई हैं. उन्होंने सरकारों पर दशकों से उपेक्षा का आरोप लगाया है और पुनर्वासित परिवारों को बुनियादी सुविधाएं प्रदान नहीं किए जाने के कारणों पर चर्चा की.

नंदिनी कहती हैं कि "जिम्मेदारों (अधिकारियों) के लिए, ये लोग अवांछनीय हैं और जिन जमीनों का सरकार ने अधिग्रहण किया है, उनपर इन्हें रहने का कोई हक नहीं है. सिर्फ इन लोगों के विरोध की वजह से कम से कम इन्हें अपने घर के लिए जगह मिल पायी है, लेकिन जैसा कि सरकार का दावा है इन लोगों के ज्यादातर घर अधिग्रहित भूमि पर हैं."

नंदिनी ने आरोप लगाते हुए कहा कि "1960 के दशक से, वास्तव में कोई रिकॉर्ड नहीं है. कितने मुआवजे का भुगतान किया गया इसका कोई डेटा नहीं है. लोग कहते हैं कि उन्हें केवल खड़ी फसलों के लिए मुआवजा दिया गया था, लेकिन SSNNL का दावा है कि ये जमीनें उनकी हैं. वे इसलिए कोई बुनियादी सुविधा नहीं देना चाहते हैं, ताकि लोग धीरे-धीरे बेहतर सुविधाओं वाली जगहों पर जाने के लिए मजबूर हो जाएं."

नंदिनी ने कहा "यह केवल पुनर्वास के अधिकार के बारे में नहीं है, बल्कि मानवीय स्तर पर संघर्ष के बारे में भी है."

नंदिनी कहती हैं कि "डैम के फायदे पहले ही अधिक प्रिविलेज्ड और ताकतवर लोगों तक पहुंच चुके हैं. साबरमती रिवरफ्रंट पहले से ही है जहां नर्मदा का पानी पहुंच गया है."

(कई स्थानीय लोगों द्वारा जो दावे किए और उनके सामने जो समस्याएं हैं, इन सभी पर प्रतिक्रिया जानने के लिए क्विंट ने SSNNL से ईमेल के जरिए संपर्क किया है. उनका जवाब अभी नहीं मिला है. जैसे ही उनकी प्रतिक्रिया मिलेगी स्टोरी को अपडेट किया जाएगा.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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