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एक तरफ हर घर तिरंगा का नारा था, दूसरी ओर ओडिशा के अदावासियों से घर जलाया जा रहा था. उनके खेतों को तबाह किया जा रहा था. एक तरफ राजस्थान के एक स्कूल में दलित छात्र को शिक्षक ने इसलिए पीट दिया क्योंकि उसने शिक्षक के मटके से पानी पीने की 'गुस्ताखी' की थी. छात्र ने इलाज के दौरान दम तोड़ दिया. आजादी के अमृत महोत्सव से पहले भारत को द्रौपदी मुर्मू के रूप में पहली आदिवासी राष्ट्रपति तो मिल गई लेकिन क्या आदिवासियों को इस 'अमृत कलश' से कुछ मिल सका?
सवाल है कि भारत की आजादी 75 सालों में दलित और आदिवासी समुदाय को क्या हासिल हुआ? कितना हासिल हुआ? और अगर कथित अमृतकाल में दलितों-आदिवासियों को छुआछूत और भेदभाव का विष पीना पड़ेगा तो हम पूछेंगे जनाब ऐसे कैसे?
नबरंगपुर और जालोर की घटनाएं अपने आप में अलहदा नहीं हैं. दरअसल आदिवासी और दलित रोज सताए जा रहे हैं और इनपर जुल्म बढ़ रहा है.
2019 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट ट्राइबल हेल्थ ऑफ इंडिया में बताया गया था कि 2001 की जनगणना में जिन गांवों में 100 प्रतिशत आदिवासी थे, वहीं 2011 की जनगणना में इन आदिवासियों की संख्या 32 प्रतिशत कम हो गई. रिपोर्ट में आदिवासियों के पलायन के लिए मुख्य रूप से आजीविका के संकट को जिम्मेदार माना गया है.
वैसे तो हर पार्टी के नेता दलितों और आदिवासियों का हितैषी होने का दावा करते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि दलितों और आदिवासियों के नौकरियां कम हो रही हैं.
सच ये है कि 6 साल में करीब 5 लाख आरक्षित नौकरियां घट गई हैं. 2014-15 में आरक्षित वर्ग के करीब 14 लाख लोग केंद्र सरकार की नौकरी में थे, 2020-21 में रह गए सिर्फ 9 लाख. ये सही है सरकारी नौकरियां सबके लिए कम हो रही हैं लेकिन सबल वर्गों के लोगों को जान पहचान और पैरवी के बल पर निजी क्षेत्र में भी नौकरियां मिल जाती हैं और घर से संपन्न होने के कारण वो कोई बिजनेस शुरू कर लेते हैं. लेकिन दलित-पिछड़े, आदिवासियों को अगर सरकारी नौकरी का सहारा न हो तो वो आगे नहीं बढ़ पाता.
नेशनल कॉनफेडरेशन ऑफ दलित एण्ड आदिवासी ऑर्गनाइजेशन्स (नैकडोर) के मुताबिक, केन्द्रीय सरकार के तमाम मंत्रालयों और विभागों में अलग-अलग पदों पर साल 2014-15 में जहां 228258 आदिवासी समाज के लोग नौकरी पर थे वहीं साल 2020-21 में सिर्फ 147953 आदिवासी समाज के लोग नौकरी में बचे. मतलब 7 सालों में 80305 पद खाली हो गए या कम हो गए.
अब आते हैं दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अपराध पर. छत्तीसगढ़ के सुकमा में साल 2017 में एक हमला हुआ था, जिसमें करीब 25 सैनिक मारे गए थे. उस हमले के नाम पर 121 आदिवासियों को बेगुनाह होते हुए भी पांच साल जेल में रहना पड़ा. आखिरकार 17 जुलाई को NIA की एक स्पेशल कोर्ट ने 121 आदिवासियों को बरी कर दिया.
संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक साल 2018 और 2020 के बीच आदिवासियों के खिलाफ अपराध में 26 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार अनुसूचित जनजाति यानी ST के खिलाफ 2018 में 6528, 2019 में 7570 और 2020 में 8272 अत्याचार के मामले दर्ज किए गए है.
अब अगर दलित समाज की बात करें तो केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने लोकसभा में बताया है कि साल 2018 में दलितों पर अत्याचार के 42,793 मामले सामने आए थे जबकि 2019 में 45,935 मामले सामने आए. और 2020 में यह आंकड़ा बढ़कर 50,291 हो गया है.
अमृतकाल में भी दलित और आदिवासी यानी करीब एक चौथाई आबादी विष पीने को मजबूर होगा तो हम पूछेंगे जरूर-जनाब ऐसे कैसे?
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