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MP Elections: मध्य प्रदेश में नवंबर में 16वें विधानसभा चुनाव होंगे. जब 3 दिसंबर को चुनाव के नतीजे आएंगे उसने एक फैक्टर है, जिसके बदलने की संभावना नहीं है- वह है राज्य में उम्मीदवारों और विधायकों के बीच मुसलमान समुदाय का बेहद कम प्रतिनिधित्व.
2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की आबादी में मुसलमानों की संख्या लगभग 7% है. इस तथ्य के बावजूद कांग्रेस ने केवल दो मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए हैं, जबकि बीजेपी ने अब तक किसी को भी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा है.
तो, एक समुदाय के प्रतिनिधित्व की इस कमी के पीछे क्या कारण हैं?
यह जानने के लिए हमें मध्य प्रदेश की राजनीति और जनसांख्यिकी को समझना होगा. राज्य को ज्यादातर द्विध्रुवीय (बाईपोलर) राज्य कहा जाता है क्योंकि चुनावी लड़ाई हमेशा बीजेपी बनाम कांग्रेस की रही है.
अगस्त में, वरिष्ठ कांग्रेस नेता अजीज कुरैशी ने मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में एक सभा को संबोधित करते हुए यह कहकर विवाद खड़ा कर दिया था कि, "कांग्रेस सहित हर राजनीतिक दल को यह समझना चाहिए कि मुसलमान गुलाम नहीं हैं और उनके आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं." उन्होंने यह बात पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जयंती की पूर्व संध्या पर कही थी.
मुसलमानों के खराब प्रतिनिधित्व के बारे में द क्विंट से बात करते हुए, कुरैशी ने कहा, "मध्य प्रदेश में मुस्लिम समुदाय न केवल असंतुष्ट है, बल्कि अपमानित और उपेक्षित भी महसूस कर रहा है. उन्हें लगता है कि राष्ट्र और इसके निर्माण में उनका कोई महत्व नहीं है."
कुरैशी ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि राज्य में बीजेपी का उत्थान और सफलता राज्य में चुनावी रूप से मुस्लिम प्रतिनिधित्व में गिरावट के साथ मेल खाती है.
मध्य प्रदेश लगभग 50 लाख मुसलमानों का घर है, जिनमें से 10 लाख से अधिक 19 जिलों में रहते हैं.
यह भी माना जाता है कि खराब प्रतिनिधित्व दो फैक्टर्स के कारण है:
1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद वोटों का ध्रुवीकरण.
2002 में निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के कारण मुस्लिम आबादी का अलगाव.
बता दें कि परिसीमन का अर्थ है किसी देश या विधायी निकाय वाले प्रांत में क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं तय करने की प्रक्रिया.
चुनावों की तैयारी में, इस साल कांग्रेस ने 106 पन्नों का घोषणापत्र जारी किया जिसमें लगभग 59 वादे शामिल थे, जिसमें 27% ओबीसी कोटा, जाति जनगणना, सभी के लिए बीमा और यहां तक कि एक आईपीएल टीम बनाने का वादा भी शामिल है.
230 विधानसभा सीटों में से, कांग्रेस पार्टी ने ओबीसी उम्मीदवारों को 62 टिकट, राजपूत और ब्राह्मणों को 80, अनुसूचित जनजाति को 48 और अनुसूचित जाति को 34 टिकट आवंटित किए हैं. इनमें से केवल दो सीटें मुसलमानों को आवंटित की गई हैं: भोपाल उत्तर से आतिफ अकील और भोपाल मध्य से आरिफ मसूद.
2013 में, कांग्रेस ने पांच मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, 2018 में यह संख्या घटकर तीन हो गई और इसबार के चुनाव में यह दो हो गई है.
जहां तक बीजेपी की बात है, उन्होंने 2013 और 2018 में एक-एक मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दिया था, लेकिन इस साल उनकी उम्मीदवार सूची में कोई भी मुस्लिम दावेदार शामिल नहीं है.
मिश्रा ने कहा कि कांग्रेस ने जैन, मुस्लिम और अन्य समुदायों सहित अल्पसंख्यक समूहों के 10-12 उम्मीदवारों को टिकट दिया है.
जब बीजेपी की बात आती है, तो उसने 1993 और 2008 के बीच एक भी मुस्लिम को मैदान में नहीं उतारा. उसने 2013 और 2018 में एक-एक मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में उतारा. यह अधिकांश अन्य राज्यों और लोकसभा चुनावों में उसके पैटर्न के अनुरूप है.
हालांकि, जो नजर आ रहा है बात उससे और भी बहुत ज्यादा है. राज्य में चुनावी राजनीति को प्रभावित करने वाले सबसे बड़े कारकों में से एक यह है कि यहां द्विध्रुवीय राजनीति है. लोग या तो कांग्रेस के साथ जाते हैं या फिर बीजेपी के साथ.
बरकतुल्लाह यूथ फोरम के संस्थापक अनस अली ने कहा, किसी तीसरी पार्टी या कम्पटीशन की कमी के कारण मुसलमान "बीजेपी और कांग्रेस के बीच फंस गए हैं और दब गए हैं."
मुस्लिम प्रतिनिधित्व ऐतिहासिक रूप से उन राज्यों में बेहतर रहा है जहां एक क्षेत्रीय पार्टी मौजूद है, जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार या पश्चिम बंगाल. ऐसा इसलिए है क्योंकि समुदाय को कांग्रेस का एक व्यवहारिक विकल्प मिलता है.
अली ने क्विंट को बताया, "चूंकि यहां एमपी में केवल बीजेपी बनाम कांग्रेस है, इसलिए होता यह है कि मुस्लिम वोटर्स का महत्व कम हो जाता है. यहां तक कि भोपाल में भी, शहर में लगभग 30% मुस्लिम हैं, इसलिए यहां तीन मुस्लिम उम्मीदवार जीत सकते हैं लेकिन पार्टियां तीन टिकट नहीं देती हैं."
उन्होंने आगे कहा, "कांग्रेस और बीजेपी दोनों एक ही लाइन पर हैं, दोनों में ज्यादा अंतर नहीं बचा है. बात सिर्फ इतनी है कि बीजेपी की नीतियां जनता और अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाती हैं और कांग्रेस के साथ दोनों में अंतर नहीं है."
उन्होंने कहा, "तीन साल से अधिक समय से बीजेपी की नीतियां इतनी मुस्लिम विरोधी रही हैं कि जमीनी स्तर पर मुसलमान इससे आगे बढ़ना चाहते हैं और सिर्फ उसकी जगह किसी और को चाहते हैं."
दिलचस्प बात यह है कि अली ने यह भी बताया कि 2013 में एनसीपी के एक मुस्लिम उम्मीदवार हामिद काजी ने बुरहानपुर सीट से चुनाव लड़ा था और तब वह बीजेपी की अर्चना चिटनीस से हार गए थे. अली ने कहा, "अब 2023 में काजी के बेटे ने चुनाव लड़ने के लिए टिकट मांगा था, लेकिन इस तथ्य के बावजूद कि इलाके में मुस्लिम आबादी ठीक-ठाक है, उन्हें टिकट नहीं दिया गया."
इसके अतिरिक्त, उज्जैन, इंदौर, उज्जैन, खंडवा, रतलाम, जावरा, शाजापुर, मंडला, रतलाम, सीहोर, शाजापुर, रायसेन जैसे लगभग दो दर्जन विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम अपनी पर्याप्त उपस्थिति के कारण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
आखिरी बार 1962 में मुस्लिम प्रतिनिधित्व 7% पर अपने चरम पर था जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के शाकिर अली खान और कांग्रेस के छह नेता भी चुने गए थे.
मध्य प्रदेश में रह चुके और अल्पसंख्यक मुद्दों पर रिपोर्ट करने वाले अनुभवी पत्रकार शम्स उर रहमान अलवी के अनुसार, मध्य प्रदेश में, "यूपी-बिहार जैसी ओबीसी या सामाजिक न्याय की राजनीति के विपरीत, कोई प्रमुख क्षेत्रीय या भाषाई पहचान नहीं है."
अलवी के अनुसार मध्य प्रदेश में उत्तर भारत के किसी भी अन्य राज्य की तरह ही ध्रुवीकरण है. खंडवा और खरगोन के शहरी इलाकों में मुसलमानों की एक बड़ी आबादी है. शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम अधिक हैं.
हालांकि, अलवी ने द क्विंट को बताया कि जब राजनीति की बात आती है तो मुसलमानों में एक 'बेजारी', एक निराशा और ऊब है.
आगे बताते हुए, उन्होंने कहा कि राजनीति में सफल होने के लिए, किसी को राजनीतिक परिवार से आना होगा या रणनीति के क्षेत्र में कुछ अनुभव होना चाहिए.
उन्होंने कहा, "जो मुस्लिम परिवार राजनीति में जाने जाते थे, उनके बच्चों ने राजनीति में नहीं जाकर दूसरे पेशे चुन लिए, इसलिए उनका दबदबा खत्म हो गया है. इसलिए, पारिवारिक राजनीति बिखर गई है. उदाहरण के लिए, आरिफ बेग, एक कांग्रेस सांसद हुआ करते थे , भोपाल में काफी प्रसिद्ध हैं. लेकिन उनके बेटे राजनीति में नहीं हैं.''
उन्होंने कहा, "आखिर में लोग अपने व्यक्तित्व से पहचान बनाते हैं."
उन्होंने यह भी याद दिलाया कि भले ही एमपी में शिव सेना का कोई मजबूत गढ़ नहीं है, लेकिन 1990 के दशक में, बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने एक मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में उतारा था, लेकिन बुरहानपुर सीट के हिंदू मतदाताओं ने एक शिव सेना के उम्मीदवार को जीत दिलाई थी.
अलावी ने कहा कि परिसीमन का असर नरेला और बुरहानपुर जैसी 2-3 सीटों पर पड़ सकता है, जहां एक मुस्लिम उम्मीदवार को मौका मिल सकता था. हालांकि उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि परिसीमन ने 2002 से पहले एमपी के कई शहरों में समीकरण को बदल दिया है.
उनके अनुसार, नरेला में भी मुस्लिम बहुसंख्यक थे, 40% से अधिक. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह घटकर लगभग 30% रह गया है. नरेला सीट को पुराने शहरी क्षेत्र के साथ नए में मिला दिया गया और इसका असर वोटों पर पड़ा.
जैसा कि राहुल गांधी अब बड़े उत्साह से दावा करते हैं कि उनकी पार्टी राज्य में जाति जनगणना कराएगी और "जितनी आबादी, उतना हक" के साथ रैलियां करेगी, यह देखना अभी बाकी है कि राज्य में मुसलमानों के लिए राजनीतिक रूप से आनुपातिक प्रतिनिधित्व कैसा होगा.
कुरैशी ने यह भी कहा कि उन्होंने प्रतिनिधित्व के इस मुद्दे को कई बार कांग्रेस के समक्ष उठाया है. उन्होंने टिप्पणी की, "उनमें से कुछ इसका समर्थन करते हैं और कुछ नहीं, मैं उनसे न केवल प्रतिनिधित्व (विधायिका में) बल्कि रोजगार, व्यापार, सेना सहित अन्य मुद्दों पर भी बात करना जारी रखूंगा. मैं मुस्लिम प्रतिनिधित्व के लिए इस लड़ाई को लंबे समय तक जारी रखूंगा, जब तक मैं कर सकता हूं."
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