मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Elections Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019‘सबका साथ सबका विकास’ के बाद अब ‘जितना वोट उतना विकास’ की धमकी

‘सबका साथ सबका विकास’ के बाद अब ‘जितना वोट उतना विकास’ की धमकी

क्या चुनाव आयोग मतदान की गोपनीयता को सुनिश्चित नहीं करता?

मुकेश कुमार सिंह
चुनाव
Updated:
हाल ही में मेनका गांधी ने बताया था ‘ABCD’ फॉर्मूला
i
हाल ही में मेनका गांधी ने बताया था ‘ABCD’ फॉर्मूला
(फोटो: Facebook)

advertisement

चुनाव आयोग 'डाल-डाल' तो मेनका गांधी 'पात-पात'. इधर, चुनाव आयोग ने मेनका को मुसलमानों को धमकाने की सजा सुनाई तो उधर, मेनका ने नई धमकी दे डाली- 'जितना वोट, उतना विकास.' यही है मेनका गांधी का विकास का ABCD फॉर्मूला. चुनाव आयोग ने भले ही इस फॉर्मूले का संज्ञान ना लिया हो, लेकिन इसने सुर्खियां खूब बटोरीं.

मेनका का ऐलान है- ‘जिस बूथ से 80 फीसदी वोट बीजेपी को मिलेगा वो ‘A’ कैटेगरी का माना जाएगा. जहां से 60% वोट मिलेगा वो ‘B’ कैटेगरी का, 50% तक वोट देने वाले ‘C’ कैटेगरी में और इससे कम वोट देने वाले ‘D’ कैटेगरी वाले समझे जाएंगे. इन्हीं कैटेगरीज के हिसाब से पोलिंग बूथ से जुड़े इलाके के ‘विकास’ को प्राथमिकता मिलेगी.’ इसे बूथों की जातीय या मनुवादी व्यवस्था भी कह सकते हैं.

मेनका ने ये भी बताया कि ‘ABCD फॉर्मूले’ की जन्मस्थली पीलीभीत है, जहां से वह खुद और उनके बेटे वरूण गांधी, 1989 से ही लोकसभा पहुंचते रहे हैं. वैसे बीजेपी के ताजा संकल्प-पत्र में ‘ABCD फॉर्मूले’ का कोई ब्यौरा नहीं है. दरअसल, कोई भी नेता अपने निर्वाचन क्षेत्र का, वहां के हरेक नागरिक का प्रतिनिधि होता है. सिर्फ उन लोगों का नहीं, जिसने उसे वोट दिया हो. इसीलिए नरेंद्र मोदी उन लोगों के भी प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने बीजेपी या एनडीए को वोट नहीं दिया. मगर मेनका तो कदाचित, भारत के इस लोकतांत्रिक दर्शन से ऊपर हैं. फिलहाल, मेनका का ये फलसफा, चुनाव आचार संहिता के खिलाफ वैसे ही नहीं है, जैसे पीएम मोदी का पुलवामा के शहीदों और बालाकोट हमले के नाम पर वोट मांगना.

बहरहाल, अगला सवाल ये है कि मेनका जैसे नेताओं को ये पता कैसे चलेगा कि कहां-कहां के लोगों ने उन्हें वोट नहीं दिया? क्या चुनाव आयोग मतदान की गोपनीयता को सुनिश्चित नहीं करता? सच तो यही है कि आपका मतदान सिर्फ कहने को गोपनीय है, वास्तव में गोपनीयता नदारद है. इस बार कई जगहों पर पोलिंग बॉक्स से जरा हटकर ‘कोई’ ये देख रहा था कि लोग EVM का कौन सा बटन दबा रहे हैं? वैसे भी EVM में अब वो गुण नहीं रहे, जिसने कभी इसे बैलट पेपर से बेहतर बनाया था. अब तो EVM बहुत आसानी से बता देती है कि किस मतदान केंद्र के मतदाताओं की पसंद क्या-क्या पसंद रही है? यानी, वोटों की गिनती के वक्त नेता जान जाते हैं कि किस EVM से उन्हें कितने वोट मिले हैं? इन्हीं वोटों के आधार पर मेनका गांधी का ‘ABCD फॉर्मूला’ परवान चढ़ता है.

EVM से पहला चुनाव 1982 में हुआ था. 2004 से देश के सभी चुनाव EVM के जरिये हो रहे हैं. उससे पहले वोटों की गिनती के वक्त बैलेट बॉक्स के सभी वोटों को एक जगह मिलाकर उन्हें उम्मीदवार के हिसाब से छांटकर गिना जाता था. ताकि वोटों की गोपनीयता पर आंच ना आए. उसी तर्ज पर शुरुआत में EVM को भी बैलट पेपर की तरह मिलाया जाता था. 

मगर EVM में हुए घपलों को देखते हुए, अब हरेक मशीन के आंकड़े अलग-अलग हासिल किए जाते हैं. फिर इन्हें जोड़कर नतीजे घोषित होते हैं, लेकिन इसी प्रक्रिया से उम्मीदवार जान लेते हैं कि उन्हें किस मतदान केंद्र से कितने वोट मिले हैं. फिर विजेता जहां कम वोट पाता है, वहां के लोगों को सबक सिखाने के लिए उनकी उपेक्षा करता है. मेनका गांधी ने अभी इसी रवैये की पुष्टि की है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

चुनाव आयोग की जिद है कि वो EVM रूपी अपने दही का खट्टा नहीं मानना चाहता. वर्ना, EVM से जितनी सहूलियत हुई, उससे ज्यादा इसने चुनाव की पारदर्शिता और गोपनीयता को प्रभावित किया. मतपत्रों के कागज और गिनती के वक्त में बचत को EVM की खासियत माना गया. हालांकि EVM है तो एक मानव निर्मित तकनीक ही. हर तकनीक में गुण-दोष होते हैं. EVM की आलोचना उसके दोषों की वजह से ही है. अगर दोष नहीं होते तो सुप्रीम कोर्ट के सख्त तेवर के बाद चुनाव आयोग को VVPAT (वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) तकनीक को क्यों अपनाना पड़ता? VVPAT तकनीक के साथ ही ऐसी मशीनें क्यों नहीं विकसित हुईं, जो बेहद कम वक्त में उसकी सारी पर्चियों को गिन सकें?

अभी चुनौती EVM की गोपनीयता को स्थापित करने की है. इसके लिए वक्त भी बहुत कम है. सात दौर के मतदान में से एक दौर हो चुका है, दूसरा 18 अप्रैल को है. ऐसे में क्या कोई ऐसी तरकीब हो सकती है, जिसे अभी भी अपनाया जा सके? जी हां, यह मुमकिन है. अगर युद्धस्तरीय प्राथमिकता दिखाई जाए तो वोटों की गिनती से पहले हरेक EVM को वैसे ही गुप्त कोड दिए जा सकते हैं, जैसे उच्चस्तरीय परीक्षाओं के वक्त विद्यार्थियों की उत्तर पुस्तिकाओं (कॉपियों) को दिए जाते हैं. इसकी स्वदेशी तकनीक और विशेषज्ञता भारत में मौजूद है. हरेक EVM को एक विद्यार्थी क्यों नहीं माना जा सकता? काउन्टिंग टेबल पर मौजूद उम्मीदवारों के एजेंट को वो कोड दिखने ही नहीं चाहिए, जिससे पोलिंग बूथ की पहचान हो सके.

आज आर्टिफिशियल इन्टेलिजेंस, इनक्रिप्शन टेक्नोलॉजी, बार कोड, क्यूआर कोड जैसी तकनीकियों के जरिए स्ट्रॉन्ग रूम में रखे गए हरेक EVM को ऐसा कम्प्यूटरीकृत कोड देना बहुत आसान है, जिससे उसकी ये पहचान छिपाई जा सके कि वो किस मतदान केंद्र से आई है?

इस काम में ‘आधार’ के संचालकों और बैंकिंग डेटा को सुरक्षित रखने वाले विशेषज्ञों को भी महारथ हासिल है. अगर इन्हें उन मतगणना केंद्रों पर तैनात कर दिया जाए, जहां लोकसभा की 543 सीटों के नतीजे घोषित होंगे, तो गोपनीयता के लक्ष्य को पूरी तरह से हासिल किया जा सकता है. ऐसा होने पर ही मेनका गांधी के ‘ABCD फॉर्मूले’ पर पानी फेरा जा सकता है.

हालांकि, मौजूदा चुनाव आयोग से ऐसे संकल्प, सूझबूझ और दूरदर्शिता की अपेक्षा रखना बेमानी है. पहले EVM और अब VVPAT तकनीक पर इतराने वाले चुनाव आयोग की दशा ‘सौ दिन चले अढाई कोस’ से भी बदतर है. उसने वक्त रहते मतदान पहचान पत्र (EPIC) को लेकर ऐसी तरकीब भी नहीं अपनाई जिससे 'मतदाता सूची में नाम नहीं' की चुनौती का कारगर समाधान विकसित किया जा सके. आज के डिजिटल युग में भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनके नाम मतदाता सूची से बाहर हैं. इसके लिए जितनी प्रशासनिक खामियां जिम्मेदार हैं, उतनी ही सियासी बेईमानियां भी.

इस तर्क को कौन गलत ठहरा सकता है कि जैसे आधार, पैन, नेट बैंकिंग, ड्राइविंग लाइसेंस वगैरह पूरे देश में मान्य हैं, वैसी ही तरकीब अभी तक वोटर्स को लेकर क्यों नहीं अपनाई गई, जिससे वोटर लिस्ट में फर्जी नाम होने या फिर असली नामों के गायब होने की बीमारी का पुख्ता इलाज हो सकता? मतदाता की पहचान के लिए अभी तक बायोमेट्रिक्स को मान्यता क्यों नहीं दी गई? हो सकता है कि संचार नेटवर्क और बिजली की उपलब्धता भी इसमें बाधक हो, लेकिन जहां ये मुमकिन है, वहां इसे क्यों नहीं अपनाया गया? आज जमाना ऑनलाइन का है, लेकिन चुनाव आयोग अभी तक देश को ऑनलाइन वोटिंग की तकनीक भी नहीं दे सका है.

(ऊपर दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

ये भी देखें- चुनावी चौपाल:बीड में सुविधाएं तो मिलीं लेकिन रोजगार पर उम्मीद बाकी

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 17 Apr 2019,12:42 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT