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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) में बहुजन समाज पार्टी (BSP) की अध्यक्ष कुमारी मायावती (Mayawati) की सक्रियता पर कई तरह के सवाल और कयास सियासी गलियारों में चर्चा का विषय बन रहे हैं. कई लोग कहने लगे हैं कि मायावती और उनकी पार्टी ढलता हुआ सूरज हैं. लेकिन क्या वाकई ऐसा है, क्या मायावती इतनी कमजोर हो गई हैं कि अपनी हार खुद स्वीकार कर चुकी हैं और चुनाव में रुचि नहीं ले रही हैं. क्या दलित वोट मायावती से इस बार छिटक रहा है?
उत्तर प्रदेश में करीब 21 फीसदी दलितों की आबादी है, लेकिन ये सब मायावती का वोट बैंक नहीं है, दलितों में कई उपजातियां हैं, जिनमें जाटव बहुसंख्यक हैं. उसी जाटव समुदाय से मायावती ताल्लुक रखती हैं. इसीलिए अब तक जाटवों को मायावती का कोर वोटर माना जाता रहा है.
ये वोटर इतना पक्का और लक्ष्य निर्धारित है कि मायावती की पार्टी बीएसपी हारे या जीते लेकिन उनके मत प्रतिशत पर खास असर नहीं पड़ता. जो इनके वोट पैटर्न को दर्शाता है.
1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी, लेकिन मायावती 1977 से ही कांशीराम के संपर्क में थीं. पहली बार बीएसपी ने सबका ध्यान अपनी ओर तब खींचा जब पार्टी ने 1993 के चुनाव में 67 सीटें जीती. बीएसपी के समर्थन से मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने. उसके बाद बीएसपी गठबंधन में कभी मायावती को सीएम बनाती रही, कभी किसी को समर्थन देती रही. फिर 2007 में आया पार्टी का अब तक का स्वर्णिम दौर जब बीएसपी ने 206 सीटें जीतकर अपने दम पर सरकार बनाई. उसके बाद से बीएसपी चुनाव दर चुनाव कमजोर पड़ती चली गई.
1993 विधानसभा चुनाव- 67 सीटें
1996 विधानसभा चुनाव- 67 सीटें
2002 विधानसभा चुनाव- 98 सीटें
2007 विधानसभा चुनाव- 206 सीटें
2012 विधानसभा चुनाव- 80 सीटें
2017 विधानसभा चुनाव- 19 सीटें
2007 में पूर्ण बहुमत पाने के बाद बीएसपी लगातार नीचे जाती दिखी है. लेकिन जरा उसका मत प्रतिशत देखिए, 1993 में जिस साल पार्टी चर्चा में आई तब उसे 11.12 फीसदी वोट मिले. 1996 के चुनाव में बीएसपी को 19.64 फीसदी वोट मिले. 2002 में बीएसपी को 23.06 प्रतिशत वोट मिले. 2007 में बीएसपी को 30.43 फीसदी वोट मिले, इसी साल बीएसपी ने पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई.
इसके बाद बीएसपी नीचे जाना शुरू हुई, 2012 के चुनाव में उसे 25.95 फीसदी वोट मिले. 2017 के चुनाव में बीएसपी की सबसे बुरी हालत हुई जब पार्टी को मात्र 19 सीटों पर जीत मिली और उसे 22.24 फीसदी वोट मिले.
ये आंकड़े बताते हैं कि बीएसपी की हालत कितनी ही बुरी क्यों ना रही हो, उसका कोर वोट बैंक कभी उससे नहीं छिटका. पर दलित वोट में सेंधमारी जरूर हुई है लेकिन सारा दलित वोट बीएसपी का कोर वोटर नहीं है. बीएसपी के लिए जाटव समाज ही हमेशा कोर वोटर के रूप में रूप में रहा है. जिसकी हिस्सेदारी दलितों की आबादी में करीब 55 फीसदी है.
इसे ऐसे समझिए... सेंटर फॉर द स्टडी ऑफफ डेवलपिंग सोसाइटी के आंकड़ो के अनुसार, मायावती ने जब 2007 में जबरदस्त ढंग से चुनाव जीता, उस समय 85 प्रतिशत जाटव, 71 प्रतिशत वाल्मीकि और 57 प्रतिशत पासी ने बीएसपी को वोट दिया था. 2012 में जब मायावती सत्ता से बाहर हुईं तब बी 62 फीसदी जाटव, 42 फीसदी वाल्मीकि और 52 प्रतिशत पासियों ने बीएसपी को वोट दिया. तो अगर किसी समाज का 60 फीसदी से ज्यादा वोट एक ही पार्टी को मिलता है तो क्या आप उसे उस पार्टी का वोट बैंक नहीं कहेंगे.
उत्तर प्रदेश में करीब 21 फीसदी दलित वोटर हैं, जिनमें जाटव करीब 55 फीसदी हैं. इसके अलावा पासी लगभग 16 प्रतिशत, कनौजिया और धोबी करीब 16 फीसदी, कोल करीब 4.5 फीसदी, वाल्मीकि करीब 1.3 फीसदी और खटिक करीब 1.2 फीसदी हैं.
वैसे तो करीब 300 सीटों पर दलित निर्णायक भूमिका में दिखते हैं. लेकिन अगल दलितों को जातियों और उपजातियों में बांटकर देखें तो सबसे ज्यादा संख्या वाला जाटव समाज आजमगढ़, जौनपुर, आगरा, बिजनौर, सहारनपुर, गोरखपुर और गाजीपुर में बड़ी भूमिका में नजर आता है.
इसके अलावा सीतापुर, रायबरेली, हरदोई और इलाहाबाद में पासी समुदाय का प्रभाव दिखता है. साथ ही बरेली, सुल्तानपुर और गाजियाबाद में धोबी और वाल्मीकि समाज का प्रभाव ज्यादा है.
उत्तर प्रदेश की आरक्षित सीटों का असर कुछ ऐसा रहा है कि पिछले तीन चुनावों में जिसने भी इन सीटों पर बाजी मारी, सरकार उसी की बनी. जरा देखिए...2007 में कुल 89 सीटें आरक्षित थी, जिसमें से बीएसपी ने 61, एसपी ने 13, बीजेपी ने 7 और कांग्रेस ने 5 सीटें जीती थी. और 2007 में बीएसपी ने पूर्ण बहुमत से उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई.
2012 में कुल 85 सीटें आरक्षित थी, जिनमें से 58 एसपी ने जीती, बीएसपी ने 15, कांग्रेस ने 4 और बीजेपी ने 3 सीटें जीती. नतीजा ये हुआ कि 2012 में समाजवादी पार्टी ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई.
2017 में कुल 86 सीटें आरक्षित थी जिनमें से 84 एससी और 2 एसटी के लिए थी. जिनमें से बीजेपी गठबंधन ने 76 सीटों पर बंपर जीत हासिल की. समाजवादी पार्टी ने 7 सीटें जीती और मायावती की बीएसपी को मात्र 2 सीटें हासिल हुई. इसके अलावा आरक्षित सीटों पर 2017 में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला.
भारतीय जनता पार्टी ने जो चाल ओबीसी के लिए गैर यादव ओबीसी को इकट्ठा करके 2017 में चली थी. उसी के सहारे वो बीएसपी के वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश कर रही है और करती रही है. बीजेपी गैर जाटव दलित जातियों को लुभाने की कोशिश में लगातार जुटी रही. हाल ही में सीएम योगी आदित्यनाथ ने एक दलित के घर भोजन किया. जो दर्शाता है कि समाजवादी पार्टी में ओबीसी नेताओं के जाने के बाद दलितों पर बीजेपी की निर्भरता किस कदर बढ़ गई है.
अगर एक तरीके से कहें तो 2017 में बीजेपी ने किसी हद तक गैर जाटव दलितों में सेंधमारी की थी. तभी तो वो 84 आरक्षित सीटों में से 70 जीत गए. इसके अलावा बीजेपी के सहयोगियों अपना दल(S) ने तीन और सुभासपा ने भी 3 सीटें जीत ली थीं.
बीजेपी इस बार गैर जाटव से एक कदम आगे बढ़कर जाटव समुदाय को भी लुभाने की कोशिश की है. बीजेपी ने जो पहली 117 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की है, उसमें 19 दलितों को टिकट दिया है, जिनमें से 13 जाटव समुदाय से आते हैं. जिस दलित उपजाति से मायावती ताल्लुक रखती हैं.
समाजवादी पार्टी ने भी दलितों को लुभाने की भरसक कोशिश की है. उन्होंने सितंबर 2021 में ही दलित संवाद की शुरुआत कर दी थी. जिसकी कमान समाजवादी लोहिया वाहिनी के हाथों में थी. बीएसपी से बीजेपी में गए स्वामीप्रसाद मौर्या को उन्होंने पार्टी ज्वाइन कराई है. जिनकी बीएसपी वोटर के बीच भी खासी पकड़ है. क्योंकि 2012 में जब एसपी की सरकार बनी थी तो उसमें आरक्षित सीटों का बड़ा रोल था.
एक पहलू ये भी है कि, 2019 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन भी किया था, जो असफल रहा. इसके बाद मायावती ने ये कहकर गठबंधन तोड़ दिया कि एसपी अपना वोट ट्रांसफर नहीं करा पाई.
भीम आर्मी की कमान संभालने वाले चंद्रशेखर आजाद ने आजाद समाज पार्टी के नाम से अपनी पार्टी बनाई है और यूपी विधानसभा चुनाव में कूद गए हैं. कुछ दिन पहले तक वो अखिलेश यादव के साथ गठबंधन के लिए बातचीत में थे लेकिन वहां बात नहीं बनी तो अब अकेले चुनावी मैदान में हैं. चंद्रशेखर आजाद योगी आदित्यनाथ के खिलाफ उनके गढ़ गोरखपुर में चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके हैं. चंद्रशेखर आजाद की दलित युवाओं में अच्छी खासी पकड़ है, लेकिन काफी दलित ये मानते हैं कि अभी चंद्रशेखर के लिए थोड़ा वक्त है. हालांकि बातचीत में वो ये जरूर कहते हैं कि चंद्रशेखर हमारे काम आते हैं और उन्हें समाज में मान्यता भी हासिल है.
शुरू से ही दलित वोटर साइलेंट वोटर रहा है. इसीलिए कई बार बीएसपी का करंट सामने से नहीं दिखता लेकिन वोट में नजर आता है. मायावती अब तक इस पैटर्न को भुनाती आई हैं और उनका स्टाइल भी पॉलिटिक्स में कुछ वैसा ही रहा है. वो शुरू से ही बहुत ज्यादा संवाद नहीं करतीं, प्रेस कॉन्फ्रेंस से लेकर रैलियों तक में उनके शब्द नपे-तुले होते हैं. ग्रामीण परिपेक्ष्य के दलित वोटर का ये पैटर्न आज भी वैसा ही है. हां शहरी इलाकों में दलित कुछ वोकल हुए हैं.
सोनभद्र में 41.92%
कौशाम्बी में 36.10%
सीतापुर में 31.87%
हरदोई में 31.36%
उन्नाव में 30.64%
रायबरेली में 29.83%
औरैया में 29.69%
झांसी में 28.07%
जालौन में 27.04%
बहराइच में 26.89%
चित्रकूट में 26.34%
महोबा में 25.78%
मिर्जापुर में 25.76%
आजमगढ में 25.73%
लखीमपुर खीरी में 25.58%
हाथरस में 25.20%
फतेहपुर में 25.04%
ललितपुर में 25.01%
कानपुर देहात में 25.08%
अम्बेडकर नगर में 25.14%
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