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साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम की पहली मुलाकात हुई एक मुशायरे में. साल था 1944. अमृता शादी-शुदा थीं. उस शाम साहिर की कही नज्में, उनकी शख्सियत ने अमृता के दिल तक का सफर तय कर लिया. साहिर, अमृता की रूह में गहरे उतर चले थे. अमृता ने इस मुलाकात का जिक्र करते हुए लिखा,
अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत में जो रूहानी एहसास था, वैसी मिसालें कम ही मिलती हैं. 'रसीदी टिकट' के उन पन्नों पर अगर ढेर सारी अमृता बिखरी हैं तो साहिर भी यहां-वहां, मुड़े-तुड़े, जर्द पन्नों में सामने आ जाते हैं. वो जब भी आते हैं, तो आप इन दोनों से बेतरह इश्क करने लगते हैं. इसी किताब में अमृता लिखती हैं,
ये कैसा इश्क था. जिसमें मोहब्बत का इजहार इतना था कि कभी ठीक-ठीक कहने की जरूरत नहीं पड़ी. या शायद दोनों उसे लफ्जों में बांधकर, कहकर बिगाड़ना न चाहते हों. लिखा था अमृता ने--
एक दर्द था
जो सिगरेट की तरह
मैंने चुपचाप पिया है
सिर्फ कुछ नज्में हैं
जो सिगरेट से मैंने
राख की तरह झाड़ी हैं
साहिर के बारे में अमृता ने कहा कि वो उन्हें जब सिगरेट पीते देखतीं तो वो उन हाथों को छूना चाहती थीं. आप सिर्फ सोच कर देखिए. दो लोग हैं. दोनों मोहब्बत में हैं. दोनों ये जानते भी हैं. पर छुअन का एहसास जरूरी नहीं है. ‘रसीदी टिकट’ में ही अमृता वो किस्सा तफसील से सुनाती हैं जब उनकी बेटी ने न जाने कैसे उस रिश्ते को पहचान लिया था:
"साहिर ने एक दिन मेरी बेटी को गोद में बिठाकर कहा- 'तुम्हें एक कहानी सुनाऊं?' जब मेरी बेटी कहानी सुनने के लिए तैयार हुई तो वो कहने लगा- 'एक लकड़हारा था. वो दिन-रात जंगल में लकड़ियां काटता. एक दिन उसने जंगल में एक राजकुमारी को देखा, बड़ी सुंदर. लकड़हारे का जी किया कि वो राजकुमारी को लेकर भाग जाए. '
मेरी लड़की कहानियों के हुंकारे भरने की उम्र की थी इसलिए बड़े ध्यान से सुन रही थी.
मैं केवल हंस रही थी.
साहिर ने कहा- 'पर वो था तो लकड़हारा न. वह राजकुमारी को सिर्फ देखता रहा. दूर से खड़े-खड़े. फिर उदास होकर लकड़ियां काटने लगा. सच्ची कहानी है न?'
'हां, मैंने भी देखा था.' न जाने बच्ची ने ये क्या कहा.
साहिर हंसते हुए मेरी ओर देखने लगा- 'देख लो, ये भी जानती है' और बच्ची से उसने पूछा- 'तुम वही थीं न जंगल में?'
बच्ची ने 'हां' में सिर हिला दिया.
साहिर ने फिर उस गोद में बैठी बच्ची से पूछा- 'तुमने उस लकड़हारे को भी देखा था न, वह कौन था?'
बच्ची के ऊपर उस घड़ी कोई देव वाणी उतरी थी शायद, वो बोली- 'आप.'
साहिर ने फिर पूछा- 'और वो राजकुमारी कौन थी?'
'मम्मा.' बच्ची हंसने लगी.
साहिर मुझसे कहने लगा- 'देखा, बच्चे सब कुछ जानते हैं.'
साहिर 1980 में इस दुनिया को छोड़ कर चले गए. पीछे अमृता एक दिन को एक युग की तरह काटने को अकेली. अमृता के लिए साहिर का जाना मीठे चश्मे के पानी का अचानक कड़वे हो जाने जैसा था. जैसे सांस रुकती है. जैसे लफ्ज गले में अटकते हैं. और वो जीती रहीं साहिर की यादों के सहारे 25 बरस और. अमृता प्रीतम के शब्दों में साहिर के जाने की टीस कितनी बेचैन करती है.
साहिर के जाने के बाद अकेली अमृता की जिंदगी में इमरोज दाखिल हुए. इमरोज जो बस दबे पांव चले आए और उनसे वैसी ही मोहब्बत करते रहे जैसी वो साहिर से करती थीं. वो इमरोज के स्कूटर पर बैठकर उनकी पीठ पर उंगलियों से साहिर का नाम उकेरती रहीं. पर इमरोज ने प्यार करना नहीं छोड़ा.
साहिर और अमृता की मोहब्बत, इश्क करने वालों के जेहन में क्या दर्जा रखती है मालूम नहीं लेकिन इश्क को जीने वाले जरूर उसे खुदा का दर्जा देते होंगे.
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