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साहिर लुधियानवी: पल दो पल के शायर खूब हुए, तुम सदियों के साहिर हो

साहिर ने वक्त और समाज के हालात पर भी बाकमाल लिखा

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वो 8 बरस का था. अदालत में खड़ा हुआ. थोड़ा सहमा, थोड़ा डरा. बाप उस पर हक चाहता था. मां उसे चाहती थी. बाप 11 शादियां कर चुका था. जागीरदार था. अमीर था. शानो शौकत रखता था. नौकर-चाकर रखता था. मां, गरीब थी. मुफलिसी तन पर थी. मन पर नहीं. अदालत ने उस 8 बरस के बच्चे से पूछा--तुम किसके साथ रहना चाहोगे? वो कुछ पल रुका. ठिठका. फिर उसने जवाब दिया- मां के साथ. वो साहिर था. साहिर लुधियानवी. बचपन से ही उसूलों का पक्का.
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अगर लेख पढ़ने का मूड न हो, तो सुन भी सकते हैं:

ताजमहल में साहिर को वो दिख गया जो किसी और ने नहीं देखा!

साहिर को अपने लिखे अल्फाजों के मानी और उनकी कीमत दोनों मालूम थे. 8 मार्च 1921 को लुधियाना में जन्मे साहिर की कलम कूची बनकर मुहब्बत के कैनवास पर न जाने कितने गुलों में खुशबू भर गई. न जाने क्यों साहिर के गीत जब होठों पर आते हैं तो वो अचानक 'फिल्मी' से कहीं ज्यादा हो जाते हैं. जैसे कोई अपनी बात भी कह दे और 'लिटरेचर' की लाज भी रख ले. साहिर के पास एक नजर थी. और वो नजर जहां-जहां पड़ी, देखने वालों का नजरिया बदल गया. पेशे-नजर हैं ऐसी ही कुछ बानगियां--

जब ताजमहल को लेकर कोहराम मचा तो साहिर यकायक याद आ गए. पूछें तो वजह सियासी भी नहीं. ताजमहल को मोहब्बत की सबसे बड़ी निशानी माना जाता है. कितने शायरों ने कितनी तरह से ताज और उसको तामीर कराने वाले शहंशाह की तारीफ में कसीदे पढ़े हैं लेकिन साहिर ने क्या लिखा..पढ़िए.

साहिर ने वक्त और समाज के हालात पर भी बाकमाल लिखा
(फोटो: कनिष्क दांगी/द क्विंट)
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सबसे दिलचस्प ये कि ताजमहल नाम से मशहूर नज्म तो साहिर ने लिख दी लेकिन वो कभी आगरा नहीं गए थे.

तख्त पर बैठने वालों से मुखातिब साहिर

साहिर की पहली किताब 'तल्खियां' महज 24 साल की उम्र में आ गई थी और शायर के तौर कुछ कामयाबी उन्हें पहली ही किताब से हासिल हो गई. लेकिन उन्हें सही मायनों में शोहरत मिली फिल्मों के लिए लिखे अपने गीतों से. 50 के दशक में साहिर ने फिल्मों को अपना लिया. सिनेमा के लिए लिखते हुए भी साहिर ने अपनी कलम से शायद ही कभी समझौता किया. उनकी अलग नजर के कई कमाल सिनेमा के पर्दे पर बिखरते चले गए और देखने-सुनने वालों को कभी उदास कर जाते तो कभी वाह-वाह करने पर मजबूर. एक शायर जब मुल्क के हालात पर अपना दिल निकाल कर शायरी करता है तो आपका अपना दिल दर्द के दरिया में डूब-डूब जाने को होता है.

साहिर ने वक्त और समाज के हालात पर भी बाकमाल लिखा
(फोटो: कनिष्क दांगी/द क्विंट)

या फिर जब एक शायर इस नामुराद दुनिया को आग लगा देना चाहता है--

साहिर ने वक्त और समाज के हालात पर भी बाकमाल लिखा
(फोटो: कनिष्क दांगी/द क्विंट)

इंसानियत ही सबसे बड़ा मजहब

मजहब को लेकर होते झगड़ों ने 70 बरस पहले इस मुल्क को दो हिस्सों में बांट दिया था. साहिर भी पाकिस्तान चले गए. लेकिन लेखक-फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने साहिर के नाम एक खुला खत लिखा जो 'इंडिया वीकली' मैग्जीन में छपा. अब्बास ने लिखा कि जब तक तुम अपना नाम नहीं बदलते, हिंदुस्तानी ही कहलाओगे. मैग्जीन की कुछ कॉपी सरहद पार तक पहुंच गईं और साहिर लौट आए. अपनी बूढ़ी मां के साथ. हिंदुस्तान को उसका महबूब शायर वापस मिल गया और हिंदुस्तानी सिनेमा को खूबसूरत अल्फाजों के बेल-बूटों से टांकने वाला तो कभी मुल्क के हालात पर कलेजा चीर देने वाले शब्द लिखने वाला काबिल गीतकार. मजहब की दीवारों में साहिर का कोई यकीन नहीं था. यकीन न हो तो इस गीत की चंद लाइनों पर गौर करिए--

साहिर ने वक्त और समाज के हालात पर भी बाकमाल लिखा
(फोटो: कनिष्क दांगी/द क्विंट)
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इश्क की हकीकत के सिवा बहुत कुछ है

साहिर ने एक से बढ़कर एक प्रेम-गीत लिखे. एक दौर था जब साहिर ने बाकायदा ऐलान कर दिया कि अगर कोई गाना चलता है तो उसमें उनके बोलों की भूमिका, संगीत और गायक से किसी तरह कम नहीं है लिहाजा प्रोड्यूसर उन्हें म्यूजिक डायरेक्टर और सिंगर से ज्यादा रकम अदा करें. फिर भले ये रकम उन दोनों के मेहनताने से 1 रुपया ही ज्यादा क्यों न हो. साहिर इस अजीब सी जिद को मनवाने में काफी हद तक कामयाब भी रहे क्योंकि उनके लिखे गाने पर 'सुपरहिट' चस्पा होता था.

लेकिन साहिर सिर्फ प्यार में डूबे शायर तो नहीं थे. बल्कि, उनके नाकाम प्यार के किस्से लिखने बैठें तो पन्ने कम पड़ जाएं. अमृता प्रीतम और सुधा मल्होत्रा उनकी जिंदगी में आईं जरूर लेकिन मोहब्बत मुकम्मल शक्ल अख्तियार न कर सकी. कहा था कभी कैफी आजमी ने-”साहिर के दिल में तो परचम है लेकिन कलम प्यार के गीत रचती है.” उनके लिए प्यार के परे भी एक दुनिया थी जिसका पता उनके इन लफ्जों में चलता है.
साहिर ने वक्त और समाज के हालात पर भी बाकमाल लिखा
(फोटो: कनिष्क दांगी/द क्विंट)
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जिस अजीब दौर में हम जी रहे हैं, उसमें साहिर होते तो पता नहीं क्या लिखते. चुप तो नहीं रहते. जिन लोगों को लगता है कि साहिर के गीतों में सिर्फ उर्दू-फारसी जुबान के शब्दों की गूंज ही रहती थी, उन्हें ‘चित्रलेखा’ फिल्म के लिए लिखा साहिर का ये गीत भी जरूर सुनना चाहिए.

साहिर, कागज पर लिखे ‘जादू’ का नाम है

25 अक्तूबर 1980 का दिन था वो जब साहिर इस फानी दुनिया को छोड़ कर चले गए. साहिर का मतलब जानते हैं? जादू. वो जादू ही तो था जो अब तक बरकरार है...खत्म ही नहीं होता. साहिर ने लिखा था कभी--

कल और आएंगे नगमों की /खिलती कलियां चुनने वाले/ मुझसे बेहतर कहने वाले /तुमसे बेहतर सुनने वाले /कल कोई मुझको याद करे /क्यूं कोई मुझको याद करे /मसरूफ जमाना मेरे लिये/ क्यूं वक्त अपना बरबाद करे/  मैं पल दो पल का शायर हूं

पल दो पल के शायर खूब हुए साहिर, तुम सदियों के साहिर हो.

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