पिंजर यानी कंकाल. “न कोई आकृति, न सूरत. न मन, न मर्जी.” बस कंकाल. कंकाल कई किस्म के हैं. कुछ कंकाल इतिहास के पन्नों पर उगे होते हैं. वह पीछा करते हैं. भारत-पाकिस्तान के सीने में, हिंदू-मुसलमान के सीने में भी बंटवारे के कंकाल के अनगिनत नुकीले सिरे शूल की भांति धंसे हुए हैं. 70 बरस बीत गए हैं और ये नुकीले सिरे बाहर निकलने की जगह और गहरे धंसते जा रहे हैं. ये लगातार चुभते रहते हैं. सांस लेने में दिक्कत होती है और बेगुनाह रक्त बहता है.
पहले भारत में बनी फिल्म और इसके बाद पाकिस्तान में सीरियल
1950 में मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम ने बंटवारे पर, हिंदू-मुसलमानों पर, धर्म के कठमुल्लों की साजिशों पर और इन सबके बीच पिसती औरतों पर एक दास्तान लिखी थी और उसे नाम दिया था “पिंजर”. 2003 में इस पर एक फिल्म बनी. चाणक्य वाले डॉक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने यह फिल्म बनाई. उर्मिला मातोंडकर और मनोज वाजपेयी ने अभिनय किया था.
पूरो और रशीद के चरित्रों को जिंदा किया था. अब “पिंजर” पर पाकिस्तान के मशहूर एक्टर अदनान सिद्धीकी सीरियल बना रहे हैं. उसका नाम रखा है “घुग्गी”.
घुग्गी यानी कबूतर. सफेद कबूतर शांति का दूत होता है. बहुत खूबसूरत भी.
इस सीरियल का पहला एपिसोड 25 जनवरी यानी भारत के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिखाया जाएगा. 68 साल बाद भी अमृता प्रीतम के “पिंजर” को याद किया जा रहा है तो आखिर क्यों? आखिर इसमें ऐसा क्या है कि दोनों मुल्कों के लोग इसे लेकर उत्साहित हो जाते हैं. आइये जानने की कोशिश करते हैं.
क्या है पिंजर की कहानी?
रशीद का गुनाह, पूरो का दंश
पिंजर आजादी के दौर की भारत की कहानी है. उस हिस्से की जो हिंदुस्तान से कट कर पाकिस्तान बना. इसके केंद्रीय पात्र पूरो और रशीद हैं. पूरो शाह और रशीद शेख. हिंदू और मुसलमान. शाहों और शेखों के बीच पुश्तैनी झगड़ा था. दो पीढ़ी पहले शाहों के एक मर्द ने शेखों की एक लड़की उठा ली थी. चोट इतनी गहरी थी कि शेखों में बदले की आग सुलगती रही.
खुद बदला लेने में नाकाम बुजुर्ग शेखों के ललकारने पर नौजवान रशीद के खून ने उबाल मारा. वो शाहों की बेटी पूरो को उसकी शादी से ठीक पहले घोड़ी पर उठा ले आया. पूरो की शादी बगल के गांव के रामचंद्र से तय हुई थी. वह उससे प्यार भी करने लगी थी. लेकिन रशीद ने सबकुछ तहस-नहस कर दिया.
पूरो की समझ में नहीं आया कि पुरखों के अन्याय की कीमत उसे क्यों चुकानी पड़ रही है? मर्दों के इस खेल में एक पीढ़ी पहले कोई महिला शिकार हुई थी और अब वह खुद रशीद के कब्जे में थी. वह उससे घर छोड़ आने की जिद करती. लेकिन रशीद यह कह कर मना कर देता कि पूरो के लिए उसके अपने ही घर में कोई जगह नहीं बची है. पूरो के लिए यह सोचना भी गुनाह था.
उसे अपने मां-बाप पर भरोसा था. एक दिन मौका पा कर पर रशीद की गिरफ्त से भाग निकलती है. रात के अंधेरे में अपने घर पहुंचती है. मां दरवाजा खोलती है. पिता भी साथ में होते हैं. पिता पूरो को घर में घुसने से रोक देते हैं. कहते हैं कि अब वो परायी हो गई है. उसका धर्म भ्रष्ट हो गया है. उसके लिए घर में कोई जगह नहीं. पूरो को काटो तो खून नहीं.
वह बेजान जिस्म सी खेतों की तरफ मुड़ जाती है. कुएं में कूद कर जान देने का ख्याल आता है. उसे लगता है कि वक्त ने “उसके शरीर से सारा मांस उतार लिया है, अब वह निरा पिंजर है. उसकी न कोई आकृति है, न सूरत, न मन, न मर्जी.” रास्ते में उसे अपनी ओर आता हुआ रशीद नजर आता है. रशीद उसका बांह पकड़ कर अपने घर ले जाता है.
कुछ दिनों बाद पूरो से निकाह करने के साथ रशीद अपने पुश्तैनी गांव चला आता है. वहीं उनकी संतान होती है. लेकिन पूरो अभी तक रशीद को माफ नहीं पायी थी.
जिस दिन बेटा पहली बार उसका दूध पीता है, उस दिन उसे लगता है कि “यह लड़का जबरदस्ती उसकी नसों में से दूध खींच रहा है. जबरदस्ती…. जबरदस्ती… इसके बाप ने भी तो उसके साथ जबरदस्ती ही की थी. लड़का भी तो अपने बाप का बेटा था. अपने बाप का रक्त था. अपने बाप का मांस था. जबरदस्ती यह उसके शरीर में धरा गया था. जबरदस्ती ही उसके पेट में पल गया था. और अब जबरदस्ती ही उसकी नसों से दूध खींच रहा है.” पूरो आगे सोचती है. “यह लड़का… इस लड़के का बाप. सारी पुरुष जाति… पुरुष… पुरुष! जो स्त्री के शरीर को कुत्ते की हड्डी की तरह चूसते हैं”.
रशीद का प्रायश्चित, पूरो की माफी
पूरो रशीद से नफरत करती है और रशीद उस नफरत को मोहब्बत में बदलने की जी-तोड़ कोशिश करता है. वह जिस पल पूरो को उठा कर लाता है, उसी पल से अपने गुनाह पर शर्मिंदा है. वह पूरो की हर जरुरत का ख्याल रखता है. उसे खुश रखने की कोशिश करता है. और प्रायश्चित करने का मौका ढूंढता है. इसी उधेड़-बुन में वक्त गुजरता जाता है.
फिर 1947 का वो दौर भी आता है जब हिंदू-मुसलमान में बंटा इंसान खूंखार भेड़िये में बदल जाता है. जब लहू की लहरों से धरती बांट दी जाती है. पाकिस्तान में बसे हिंदू अपनी मिट्टी, अपना गांव, अपना घर-बार छोड़ कर हिंदुस्तान की ओर जाने लगते. यही हाल हिंदुस्तान में बसे मुसलमानों का था.
उसी समय पूरो को पता चलता है कि रामचंद्र की बहन लाजो को किसी और मुसलमान ने अगवा कर लिया है. लाजो की शादी पूरो के भाई से हुई थी और इस नाते वो पूरो की भाभी भी थी. पूरो अनहोनी की आशंका से बेचैन हो उठती है. रशीद को मजबूर करती है कि वो लाजो को ढूंढे और उसे रामचंद्र से मिलवाए. वह खुद भी रशीद के साथ लाजो को ढूंढने निकल पड़ती है.
रामचंद्र के गांव रत्तोवाल में लाजो उसे मिल जाती है. फिर मौका देख कर पूरो की योजना के मुताबिक रशीद लाजो को भी घोड़ी पर भगा ले जाता है. यह उसका प्रायश्चित था.
पूरो को उठाने के बाद “वह ज्यों-ज्यों घोड़ी दौड़ाता जाता, मनों भार का एक पत्थर जैसे उसकी आत्मा पर बैठता जाता था. कई वर्षों से वह बोझ उसकी आत्मा पर पड़ा था. आज ज्यों-ज्यों रशीद की घोड़ी रत्तोवाल की सीमाओं को दूर छोड़ती जाती थी, रशीद को लगता था कि उसकी आत्मा पर पड़ा वह भारी बोझ सरकता जा रहा है”…
उसके बाद रशीद की कोशिशों से ही वो लाजो को रामचंद्र और अपने भाई से मिलवाती है. इसी क्रम में रशीद के प्रति उसकी नफरत खत्म हो जाती है. वो उसे माफ कर देती है. पूरो का भाई उससे हिंदुस्तान साथ चलने को कहता है. लेकिन वह चंद कदमों की दूरी पर खड़े रशीद के पास मौजूद बेटे को गोद में उठाती है और भाई से कहती है कि “लाजो अपने घर लौट रही है. समझ लेना कि इसी में पूरो भी लौट आई. मेरे लिए अब यही जगह है…. चाहे कोई लड़की हिंदू हो या मुसलमान, जो लड़की भी लौटकर अपने ठिकाने पहुंचती है, समझो कि उसी के साथ पूरो की आत्मा भी ठिकाने पहुंच गई”…
आखिर क्यों खास है पिंजर?
पिंजर में स्त्री की पीड़ा है, वेदना है, संताप है, त्याग है और ममत्व है. साथ में मर्दों के अपराध हैं, रशीद का पछतावा है और पश्चाताप भी. हिंदू हैं. मुसलमान हैं. विभाजन का दंश है. धर्मांधता के विरुद्ध खड़े मानवीय मूल्य हैं. जिनके सहारे अंत में वर्तमान के यशार्थ को कुबूल कर पूरो सबके गुनाह माफ करती है और फिर से जिंदा हो उठती है, भविष्य की अनंत संभावनाओं के साथ.
यही पिंजर की सार्थकता है. अतीत को खुले दिल से उसकी सम्पूर्णता में स्वीकार किए बगैर, वर्तमान सुधारा नहीं जा सकता. वर्तमान सुधारे बगैर भविष्य उजला नहीं होगा. मतलब अगर उजले भविष्य की रचना करनी है, तो इतिहास के गुनाह माफ करने होंगे.
इतिहास दुरुस्त करने का भ्रम और अहंकार त्यागना होगा. पिंजर में यही सबक है. भारत और पाकिस्तान के लोगों को यही सबक सीखने की जरुरत है. दोनों मुल्कों ने बंटवारे को अभी तक खुले दिल से स्वीकार नहीं किया है. सच को अधूरे मन के साथ स्वीकार करने से भीतर अवसाद पैदा होता है. यह जीने नहीं देता.
दोनों देशों के बीच आज भी जो टकराव है उसका कारण यही अवसाद है. भारत का एक बड़ा तबका आज भी पाकिस्तान की जमीन को अपना मानता है, मगर उस पर रहने वालों को दुश्मन.
यही बात पाकिस्तानियों पर लागू होती है. उन्हें भारत की जमीन चाहिए, मगर यहां के लोगों से नफरत है. इसमें कुछ दोष सियासत का है, कुछ हम सबका. आखिर ये सियासतदान, इसी समाज की कोख से जन्म लेते हैं.
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