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Qala Movie Review: जैसा नाम-वैसा काम,तृप्ति डिमरी-बाबिल की फिल्म कला का नमूना है

Triptii Dimri और Babil Khan की फिल्म 'कला' नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है

प्रतीक्षा मिश्रा
मूवी रिव्यू
Published:
<div class="paragraphs"><p>Qala Movie Review: जैसा नाम-वैसा काम,तृप्ति डिमरी-बाबिल की फिल्म कला का नमूना है</p></div>
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Qala Movie Review: जैसा नाम-वैसा काम,तृप्ति डिमरी-बाबिल की फिल्म कला का नमूना है

(फोटो-YouTube)

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Qala Movie Review: "मैंने अपनी जिंदगी में कभी भी जो कुछ भी निर्णय लिए हैं, उसने मुझे ठीक इस मोड़ तक पहुंचाया है." यह ख्याल मुझे एक फास्ट फूड रेस्टोरेंट में किसी चीज को लेकर रोते हुए आया था, और बात भी ऐसी कि शायद आज उसे मैं मामूली समझूं.

लेकिन यह एक ऐसी भावना है जो हर इंसान के जेहन में कई बार आती है. और अन्विता दत्त की लेटेस्ट फिल्म- 'कला' जीवन के उन्हीं पलों के बारे में है जिसका अनुभव तो कम बार होता है, लेकिन जिंदगी पर उसका असर बहुत ज्यादा.

Netflix पर आ चुकी कला फिल्म एक युवा सिंगर कला ( जिसका किरदार तृप्ति डिमरी ने निभाया है) के बारे में है, जो अपनी मां का दिल जीतने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देती है, वो भी तब कि जब मां ने उसे अपनी जिंदगी से अलग कर दिया है. फिल्म का शुरूआती प्लॉट कला और उसकी मां उर्मिला (स्वास्तिका मुखर्जी) को बाकी दुनिया से अलग-थलग करता है, उनका घर बर्फ से घिरा हुआ है.

कला के किरदार में तृप्ति डिमरी

(फोटो- YouTube)

इस अलगाव में, कला और उसकी मां उर्मिला के बीच एक दूरी है, जिसे कला को पार करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है जबकि उसकी मां इस दूरी को पाटने की कोशिश नहीं करती. कला के किरदार में तृप्ति डिमरी चमक बिखेरी भी हैं और संकोची भी हैं. यानी संक्षेप में कहें तो ठीक वही जो उनके करियर की मांग है. फिल्म उसके अतीत और उसके वर्तमान के बीच गोते मारती है क्योंकि किरदार का अतीत उसके वर्तमान को परेशान कर रहा होता है.

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घर पर, कला मैच्योर नहीं बल्कि छोटी बच्ची लगती है ( यह समझ में भी आता है क्योंकि कला के पास एक बच्चे के मैच्योर वयस्क के रूप में विकसित होने के लिए जरूरी मां का स्नेह नहीं है बल्कि दोनों के बीच रिश्ते हद से अधिक उलझे हुए हैं.) अभी वह प्रसिद्धि के चरम पर है और अपने आसपास की महिला कलाकारों को आगे बढ़ाने के लिए वह अपनी आवाज का उपयोग करती है.

कला के किरदार के जरिए डायरेक्टर अन्विता दत्त दो जेनेरेशन के बीच के ट्रॉमा, परिवारों और किसी भी इंडस्ट्री में पितृसत्ता की धमक, बचपन में झेले गए आघात और यह किसी के मन को कैसे प्रभावित करता है जैसे और कई पहलू को छूते हैं. कला जिस तरह से अपनी मां के तानों और आलोचनाओं को आत्मसात करती है, वह स्क्रीन पर साफ दिखता है.

इसके बावजूद कला फिल्म अपने किरदारों को खलनायक/विलेन के खांचे में फिट नहीं करता. शायद हमारी इच्छा होगी कि हम उर्मिला को नापसंद करें लेकिन हमारे जेहन में उसके लिए 'नफरत' पैदा नहीं होती क्योंकि उस किरदार को भी उसकी परिस्थितियों ने गढ़ा है. उर्मिला के किरदार को निभा रहीं स्वास्तिका मुखर्जी की शानदार एक्टिंग से किरदार की शांत हिचकिचाहट और तीव्र तिरस्कार, सब व्यक्त हो रहे हैं.

कला फिल्म का एक दृश्य

(फोटो- YouTube)

इसके अनुसार बबील खान की एक्टिंग का जिक्र भी जरूरी है जो जगन का किरदार निभा रहा हैं. जगन एक टैलेंटेड सिंगर है जो एक गुरुद्वारे में पला-बढ़ा है. अपनी पहली फिल्म में ही बाबिल यह साबित करते हैं कि वे एक ऐसे एक्टर हैं जिनपर हमें नजर रखनी चाहिए.

उर्मिला की जगन के लिए स्वीकृति अपनी बेटी कला के प्रति उनके तिरस्कार के ठीक उलट है (यह तिरस्कार कला के जन्म से भी जुड़ा हुआ है). यहां तक ​​कि जब कला खुद के लिए जगह बनाने की कोशिश कर रही होती है, फिल्म में कई ऐसे मौके आते हैं जब आपको आश्चर्य होगा कि "क्या गगन का भी यही अनुभव रहा होगा?

कला के जीवन में जिस तरह से पितृसत्ता का दखल होता है, उसे फिल्म में अच्छे से दिखाया गया है. इसमें महिलाओं के जीवन और उनके करियर में पितृसत्ता की वजह से वंचित होने के कई पहलुओं की खोज की गई है. अगर फिल्म के कहानी से परे जाए तो, 'कला' फिल्म आर्ट और म्यूजिक में हुनरमंदी की धाक जमाने वाली फिल्म है.

प्रोडक्शन डिजाइनर मीनल अग्रवाल और दत्त भावनाओं में लिपटी एक ऐसी कहानी बनाने में कामयाब हुए हैं जो लगभग काल्पनिक लगती हैं. हिमाचल के घर में में कला ( जहां वह अपनी मां के साथ रहती थी) का घुटन कलकत्ता में उसके अपने घर में जाने पर खत्म नहीं होता बल्कि कहीं अधिक तंग जगह की घुटन में बदल जाता है.

रेम्ब्रांट और वर्मियर जैसे डच कलाकारों के रेफरेंस को पकड़ पाने के लिए शायद आप में से कुछ को कला फिल्म को फिर से देखना पड़ सकता है. डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी सिद्धार्थ दीवान ने दत्त और अग्रवाल के विजन को परफेक्शन के साथ कैमरे में कैद किया है- एक शॉट भी जगह से बाहर नहीं है.

और आखिर में कला के सबसे अच्छे हिस्से का जिक्र- उसका म्यूजिक. अमित त्रिवेदी ने म्यूजिक दिया है, जिसमें 'रुबैयां' और 'शौक' जैसे ट्रैक शामिल हैं, और इसमें हमें एक युग से दूसरे युग तक भेजने की कूवत है. फिल्म का हर ट्रैक हमें 1940 के दशक के कलकत्ता में ले जाता है और भारतीय सिनेमा इसी तरह के संगीत के लिए जाना जाता है.

कला फिल्म इस रिव्यु में जितना फिट हो सकता है उससे कहीं अधिक है और यही इस फिल्म के शानदार होने की कहानी कहती है.

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