advertisement
कबीर खान उन कुछ फिल्म निर्माताओं में से हैं जो अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर काम कर चुके हैं. 2006 में आई उनकी पहली फीचर फिल्म काबुल एक्सप्रेस के अलावा उन्होंने कुछ डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की भी शूटिंग वहां पर की है. जिसमें एक पोस्ट-9/11 है जो देश पर तालिबान के पांच साल को दर्शाती है.
बजरंगी भाईजान, न्यू यॉर्क और एक था टाइगर का निर्देशन करने वाले फिल्म डायरेक्टर कबीर खान (Kabir Khan) ने क्विंट से बात करते हुए बताया कि अफगानिस्तान के क्रिएटिव कम्यूनिटी को लेकर उनके मन में डर है और भारत सरकार को अफगान शरणार्थियों के प्रति अच्छी नीति रखनी चाहिए.
रिपोर्ट के अनुसार तालिबान द्वारा कॉमेडियन नजर मोहम्मद की हत्या कर दी गई थी. हमने फिल्म निर्माता सरहा करीमी की अपील को देखा है, जिसमें उन्होंने अन्य देशों के फिल्म निर्माताओं से अफगानिस्तान के लोगों की मदद के लिए अपनी सरकारों पर दबाव बनाने के लिए कहा है. काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद वहां की क्रिएटिव कम्युनिटी पर क्या असर हो सकता है.
हम सबको पता है कि तालिबानियों ने पिछली बार कला, संस्कृति, फिल्म और फोटोग्राफी के संबंध में क्या किया था, मुझे नहीं लगता कि किसी को इस बार कुछ अलग उम्मीद करनी चाहिए. यदि वो लोग वहां के कलाकारों और फिल्म इंडस्ट्री को फलने-फूलने देते हैं तो मुझे बहुत आश्चर्य होगा. मुझे नहीं लगता वो ऐसा कुछ होने देंगे, क्योंकि उन्होंने पिछली बार फोटो फोटोग्राफी की भी इजाजत नहीं दी थी.
मैं ये कह सकता हूं कि वहां के सभी कलाकारों का पलायन हो जाएगा, वो भाग जाएंगे जैसा कि पिछली बार भी हुआ था. जो मेरे दोस्त हैं, जिन्होंने काबुल एक्सप्रेस में मेरे साथ काम किया था, मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह से जानता हूं.
वो मुझे अपनी सारी कहानियां सुनाते थे कि वो ईरान कैसे भाग गए क्योंकि यही एकमात्र जगह है, जहां उन्हें आसानी से काम मिल सकता था. क्योंकि काबुल में बोली जाने वाली ‘दारी’ मूल रूप से फारसी की बोली है, इसलिए उनके लिए ईरान में काम पाना आसान होता है. कुछ भारत आए, कुछ पाकिस्तान चले गए. इसलिए मुझे लगता है कि कला और संस्कृति से जुड़े लोगों के लिए वहां रह पाना मुश्किल होगा.
आपने वहां पर कई डॉक्यूमेंट्रीज की शूटिंग की है. आपकी पहली फीचर फिल्म काबुल एक्सप्रेस भी वहीं शूट की गई जिससे आप वहां के काफी लोकल लोगों से जुड़े होंगे. क्या आप अभी उनके संपर्क में हैं, क्या उनमें से किसी ने मदद के लिए कहा?
वहां पर हमारे कई दोस्त हैं, केवल काबुल एक्सप्रेस की वजह से ही नहीं बल्कि उससे पहले भी मैंने वहां कई डॉक्यूमेंट्रीज की शूटिंग की थी. उनमें से बहुत से लोग पहले ही विस्थापित हो चुके थे, क्योंकि भले ही आज तालिबान काबुल के कब्जे में है, लेकिन तालिबान का असर 2006 में ही शुरू हो गया था?
हम एक बदलता हुआ नेरेटिव देख रहे हैं कि यह बदला हुआ तालिबान है. उन्होंने अपनी कल की प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि हम लड़कियों को बाहर काम करने की इजाजत देंगे, स्कूल जाने की छूट देंगे और महिला पत्रकारों को भी अपना काम करते रहने की छूट देंगे. आपकी इस पर क्या राय है?
मैं इस बात से बहुत ज्यादा इत्तेफाक नहीं रखता. मूल विचारधारा कभी नहीं बदलती. मैं इस वक्त सुन रहा हूं कि वो ये सब करने देंगे लेकिन हमें यह भी देखना चाहिए कि इस वक्त वर्ल्ड प्रेस वहां पर है, पूरी दुनिया के लोग उन पर नजर रखे हुए हैं इसलिए वे शायद एक क्लियर इमेज बनाने की कोशिश कर रहे हैं. मुझे बहुत खुशी होगी अगर ये सच होता है और वो 1996 और 2001 की तुलना में अलग साबित होते हैं.
आप अफगानिस्तान पर कई दशकों से नजर रखे हुए हैं, अभी पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अफगानिस्तान के प्रति अमेरिकी सरकार की जिम्मेदारियों से पल्ली झाड़ लिया और इस वजह से उनको काफी आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा. उन्होंने कहा कि अमेरिका अफगानिस्तान में राष्ट्र निर्माण के उद्देश्य से कभी नहीं गया था.
कोई उनसे ये सवाल पूछे कि सर आप वहां पर गए किसलिए थे. आप वहां पर 20 साल तक क्या कर रहे थे. मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है क्योंकि उस समय मैं अफगानिस्तान में डॉक्यूमेंट्री के लिए काम कर रहा था, जिससे मुझे सब कुछ पता है कि क्या कहा गया था और मैं समझता हूं कि यह बहुत सही तरीके से कहा गया था कि अमेरिकी सरकार वहां पर राष्ट्र-निर्माण के लिए जा रही है.
और अब राष्ट्रपति ये कहते हैं कि हमारा एजेंडा राष्ट्र-निर्माण नहीं था तो मैं आश्चर्य में हूं कि उनका एजेंडा था क्या, क्या उनका एजेंडा तालिबान को विघटित करना था और वो नहीं हो सका. मैं समझता हूं कि यह बहुत ही हास्यास्पद बयान है कि हम वहां राष्ट्र-निर्माण के लिए नहीं गए थे.
पिछले दिनों 16 अगस्त को भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि हम अफगानिस्तान के हिन्दू और सिख समुदायों का स्वागत करेंगे. ऐसे वक्त में जब अफगानियों को मुश्किल में फंसे देख रहे हैं तो क्या आपको लगता है कि हमारा दृष्टिकोण और अधिक मिलनसार होना चाहिए कि हम सभी अफगानी शरणार्थियों के लिए दरवाजा खुला रखें वो चाहे किसी भी धर्म के हों.
मुझे लगता है कि यह बहुत ही दुःखद है कि हम हर वक्त लोगों को धर्मों में बांटना शुरू कर देते हैं, इस धर्म वालों का स्वागत है और इस धर्म वाले नहीं आ सकते. मुझे लगता है कि उस समय ऐसे बयान की कोई जरूरत नहीं थी, यह सुनकर मुझे बहुत निराशा हुई.
लोग तालिबान को मुसलमान के रूप में पहचान रहे हैं लेकिन वो ये नहीं समझ रहे हैं कि जो लोग उनके हाथों पीड़ित हैं वो भी तो मुसलमान हैं. ऐसा नहीं है कि तालिबान केवल कुछ अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने जा रहे हैं, बल्कि वो सभी को निशाना बनाने वाले हैं. तालिबान के हाथों हजारों अफगान मुसलमान मारे गए और पीड़ित हुए. इसलिए धर्म का इससे कोई लेना-देना नहीं है, हमें लोगों को धर्म के अनुसार नहीं बांटना चाहिए.
तालिबान एक विचारधारा है जो सभी धर्मों को पार कर सकती है. यह केवल धर्म की एक्सट्रीम विचारधारा है और जब भी धर्म के बारे में एक्सट्रीम विचारधारा होती है तो यह परेशानी का सबब बनता है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किस धर्म का है. यह इस्लाम हो सकता है, ईसाई धर्म हो सकता है, हिंदू धर्म हो सकता है, यह कोई भी धर्म हो सकता है. एक एक्सट्रीम विचारधारा जो बांटने और नफरत पर आधारित है, हमेशा समाज के लिए गलत साबित होगी और हमने यह देखा भी है.
क्या आप आश्चर्य में थे जब अफगानिस्तान की सरकार ने काबुल एक्सप्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था?
बिल्कुल नहीं, क्योंकि यह वास्तव में हमसे अनजाने में एक गलती हुई. यह एक ऐसा सीन था जिससे उन्होंने एक विशेष कम्युनिटी का उल्लेख किया और दुर्भाग्य से एक ऐसा दृश्य था जहां वह विशेष समुदाय दूसरे समुदाय के बारे में बात कर रहा था. उसमें यह दिखाने की कोशिश की गई थी कि वे सभी एक दूसरे के बारे में इस तरह कैसे बात करते हैं. लेकिन एडिटिंग में, उसमें एक सीन को काट दिया गया था, इसलिए उन्हें लगा कि हम एक खास समुदाय को टारगेट कर रहे हैं, और वो ये रिस्क नहीं लेना चाहते थे. उसके बाद हमने उन सभी से बात की, मैं वहां गया, लकिन यह एक दुःखद घटना थी.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)