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देश में इस साल मौसम विभाग ने अच्छे मॉनसून की भविष्यवाणी की है. देश के आम लोगों, खासतौर पर किसानों के लिए क्या है इस भविष्यवाणी का मतलब ?
देश में अच्छे मॉनसून की भविष्यवाणी होते ही अखबार हों या टीवी चैनल, हर तरफ खुशी की लहर नजर आने लगती है. अर्थव्यवस्था के अच्छे भविष्य की उम्मीदें जोर पकड़ने लगती हैं. कभी इसे खेती और किसानों के लिए बेहतर दिनों की भविष्यवाणी बताया जाता है, तो कभी कंज्यूमर और कंज्यूमर प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनियों के लिए अच्छी खबर.
इन धारणाओं के पीछे बेहद सीधे-सरल तर्क काम करते हैं - अच्छी बारिश से फसल अच्छी होगी, फसल अच्छी होगी तो किसानों की आमदनी बढ़ेगी, किसानों के पास ज्यादा पैसे होंगे तो कंज्यूमर डिमांड बढ़ेगी और जब भारत जैसे कृषि प्रधान देश में खेतों-किसानों की हालत सुधरेगी तो कुल मिलाकर देश की आर्थिक हालत में भी सुधार आएगा, जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय बढ़ेगी, वगैरह-वगैरह.
शायद आपको जानकर हैरानी होगी कि देश की अर्थव्यवस्था के पिछले कुछ बरसों के आंकड़े अच्छे मॉनसून से अर्थव्यवस्था में उछाल आने की इस आम मान्यता का समर्थन नहीं करते. आंकड़े बताते हैं कि मॉनसून और अर्थव्यवस्था का ये रिश्ता उतना सीधा, सरल और पक्का है नहीं जितना आमतौर पर मान लिया जाता है.
भारत में मॉनसून, खेती, किसानों की आय और कंज्यूमर डिमांड के 2008 से 2017 तक के आंकड़े बताते हैं कि अच्छी बारिश हमेशा किसानों के अच्छे दिनों की गारंटी नहीं होती. और न ही कम बारिश होने पर ये पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि कृषि उत्पादन और किसानों की आमदनी में गिरावट आना तय है.
2008 से 2017 के दौरान देश में 3 साल ऐसे थे जब मॉनसून औसत से खराब रहा. इन 10 वर्षों के दौरान अनाज के उत्पादन में गिरावट भी 3 साल ही देखने को मिली. लेकिन उत्पादन में गिरावट वाले सभी 3 साल वही नहीं थे, जिनमें मॉनसून भी खराब रहा था.
देश में मॉनसून 2009, 2014 और 2015 में अच्छा नहीं था. इनमें 2009 और 2014 में तो अनाज का उत्पादन भी घटा, लेकिन 2015 में उसमें गिरावट नहीं आई. उत्पादन में गिरावट का तीसरा साल था 2012 का, जबकि उस साल मॉनसून औसत से बेहतर था. हकीकत तो ये है कि 2010 से अब तक लगभग हर साल देश में अनाज का उत्पादन 25 करोड़ टन या उससे अधिक रहा है, जबकि इस दौरान मॉनसून की बारिश में काफी उतार-चढ़ाव आते रहे हैं.
नहीं, आंकड़े बताते हैं कि ऐसा बिलकुल नहीं है. क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 2017 में नॉर्मल मॉनसून और खेती के बंपर उत्पादन के बावजूद किसानों की हालत खस्ता रही. दालों, तिलहन, अनाज और मोटे अनाज के प्राइस ट्रेंड की जांच के आधार पर इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 2017 में किसानों को सिर्फ धान की खेती में ही फायदा हुआ. बाकी हर फसल का दाम 2017 में तेजी से गिरा, जिससे किसानों को काफी नुकसान हुआ.
क्रिसिल की रिपोर्ट ये भी बताती है कि सरकार की तरफ से घोषित होने वाले MSP यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य में बेहद मामूली बढ़ोतरी किसानों की इस हालत के लिए सबसे ज्यादा कसूरवार है. 2009 से 2013 के दौरान MSP में हर साल औसतन 19.3 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, जबकि 2014 से 2017 के बीच ये बढ़त महज 3.6 फीसदी ही रही.
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ये आम धारणा भी आंकड़ों की कसौटी पर खरी नहीं उतरती. मिसाल के तौर पर, वित्त वर्ष 2009-10 में मॉनसून की बारिश 50 साल के औसत से 22 फीसदी कम रही. अनाज के उत्पादन में भी 7 फीसदी की गिरावट आई, लेकिन इसका असर कंज्यूमर डिमांड पर नहीं दिखाई दिया.
इसी साल ऑटोमोबाइल सेक्टर की बिक्री में 26 फीसदी की शानदार उछाल देखने को मिली, जबकि FMCG (साबुन-तेल-कॉस्मेटिक्स, खाने-पीने की पैकेटबंद चीजें, रोजमर्रा की जरूरत वाले ऐसे ही दूसरे प्रोडक्ट) की बिक्री 25 फीसदी और फ्रिज, एसी, वॉशिंग मशीन जैसे कंज्यूमर ड्यूरेबल की बिक्री 21 फीसदी बढ़ी. इसके अगले साल भी यही ट्रेंड बरकरार रहा.
खास बात ये कि इस बढ़ी हुई डिमांड में ग्रामीण कंज्यूमर की सबसे बड़ी हिस्सेदारी रही. ग्रामीण कंज्यूमर की मांग में तेजी की वजह थी कृषि उत्पादों के MSP में अच्छी बढ़ोतरी, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का विस्तार और मजदूरी की दरों में औसतन 17 फीसदी का उछाल. इसके ठीक विपरीत, वित्त वर्ष 2013-14 में अच्छे मॉनसून और बेहतर कृषि उत्पादन के बावजूद ऑटोमोबाइल और FMCG सेक्टर में मामूली ग्रोथ ही देखने को मिली.
कम बारिश वाले सालों में गांवों में अच्छी कंज्यूमर डिमांड और अच्छी बारिश होने पर भी सुस्त डिमांड का ये ट्रेंड कई वर्षों के आंकड़ों में देखने को मिलता है. इसकी बड़ी वजह ये हो सकती है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में खेती की हिस्सेदारी तेजी से घटी है.
दो साल पहले आई एक रिपोर्ट में बताया गया था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में खेती की हिस्सेदारी महज 25 फीसदी रह गई है. यानी देश के गांव अब वैसे नहीं रहे, जैसे मॉनसून की खबरें लिखने वाले ज्यादातर पत्रकार समझते हैं.
मॉनसून और अर्थव्यवस्था का रिश्ता कमजोर पड़ने का मतलब ये नहीं है कि अच्छी बारिश दरअसल देश के लिए जरूरी नहीं है. देश के तमाम हिस्सों में पीने के पानी की कमी, नदियों, तालाबों और बांधों के सूखने और जमीन के भीतर पानी का स्तर लगातार नीचे गिरने जैसे खबरें लगातार आती रहती हैं.
इंसान की जिंदगी को खतरे में डालने वाले इन हालात से निपटने के लिए मॉनसून की झमाझम बारिश बेहद जरूरी है. अच्छे मॉनसून के बावजूद अगर किसानों और अर्थव्यवस्था के हालात नहीं सुधरते, तो सवाल इंसानों के बनाए उस आर्थिक ढांचे पर उठने चाहिए, जो कुदरत की मेहरबानी को अच्छे दिनों में तब्दील होने से रोकते हैं.
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