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हिंदी, हिंदुस्तानी, अंग्रेजी: भारत की भाषाई राजनीति का पूरा इतिहास

हिंदी और अंग्रेजी भारत की आधिकारिक भाषाएं कैसे बनीं?

मानवी
कुंजी
Updated:
हिंदी और अंग्रेजी भारत की राष्ट्रीय भाषाएं कैसे बनीं?
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हिंदी और अंग्रेजी भारत की राष्ट्रीय भाषाएं कैसे बनीं?
(फोटो: iStock)

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“हमें एक कॉमन भाषा की भी आवश्यकता है. वर्णाकुलर भाषाओं के बदले नहीं, बल्कि उनका विस्तार करके. अमूमन माना जाता है कि ये भाषा हिन्दुस्तानी होनी चाहिए, जो हिंदी और उर्दू का मिश्रण हो. ये भाषा ना तो कठिन संस्कृतनिष्ठ हो और न भारी-भरकम फारसी और अरबी से प्रभावित हो.” (यंग इंडिया,1925)

अगस्त 1925 में गांधी जी ने एक सवाल का यही जवाब दिया था. उनसे पूछा गया था कि भारत की राष्ट्रीय भाषा क्या होनी चाहिए? उस समय से भारत की भाषा के सवाल पर संविधान सभा में कानून बने हैं, सड़कों पर प्रदर्शन हुए हैं और सोशल मीडिया में बहस हो रही है. 14 सितंबर को गृह मंत्री अमित शाह ने एक बार फिर “एक राष्ट्र, एक भाषा” की बहस को हवा दे दी. उन्होंने कहा, “भारत में एक भाषा होनी चाहिए, जो विश्व में भारत की नुमाइंदगी करे.” उन्होंने ये भी कहा कि हिंदी “देश को एकता के सूत्र में बांध सकती है.”

इस बहस का इतिहास क्या है? हिंदी और अंग्रेजी भारत की राष्ट्रीय भाषाएं कैसे बनीं? हिंदी को भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाने के बारे में जवाहरलाल नेहरू और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के क्या विचार थे? जब हिंदी को लादने का सवाल आता है, तो इतिहास हमें क्या सबक सिखाता है? हम आपको विस्तार से बता रहे हैं.

हिंदी, हिंदुस्तानी या अंग्रेजी? संविधान सभा में बहस

भारत में बीस से ज्यादा क्षेत्रीय भाषाएं हैं. हर भाषा की अलग संस्कृति है, अपना इतिहास है. इस लिहाज से भारत में भाषा का सवाल बड़ा पेचीदा रहा है. दूसरी ओर ज्यादातर देशों ने कॉमन भाषा के आधार पर अपनी पहचान बनाई है. संविधान सभा में भी साझा भाषा के सवाल पर बहस हुई. ऐसी भाषा पर गहराई से विचार-विमर्श किया गया, जो राष्ट्रीय एकता मजबूत करे. शुरु में हिंदी और उर्दू मिश्रित हिंदुस्तानी भाषा के विकल्प पर विचार हुआ. 1937 के एक लेख में जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दुस्तानी को “golden mean” बताया.

लेकिन विभाजन के बाद बहस की दिशा बदल गई. हिंदुस्तानी के बजाय हिंदी (उर्दू रहित) को संभावित राष्ट्रीय भाषा के रूप में लागू करने पर विचार किया जाने लगा.

13 सितंबर 1949 को संविधान सभा में हिंदी भाषा के पैरोकार आरवी धुलेकर ने कहा,

“मेरा कहना है कि हिंदी आधिकारिक और राष्ट्रीय भाषा है. आपको इस पर आपत्ति हो सकती है. आप दूसरे देश के हो सकते हैं, लेकिन मैं भारतीय हूं. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि आप इसे राष्ट्रीय भाषा मानने को क्यों तैयार नहीं हैं.”

लेकिन दक्षिण भारतीय राज्यों के प्रतिनिधियों ने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का जोरदार विरोध किया. सितंबर 1949 में संविधान सभा में मद्रास के प्रतिनिधि टीए रामालिंगम ने कहा,

“हमारे पास ऐसी भाषा है जिसका बेहतर विकास हुआ है और जिसका हमारे क्षेत्र में हिंदी की तुलना में विस्तृत साहित्य है. अगर हम हिंदी को स्वीकार करते हैं तो ऐसा हिंदी के बेहतर होने के कारण नहीं होगा. सिर्फ भारी संख्या में हिंदी बोलने वालों के कारण संभव होगा.”

अंत में संविधान सभा ने “मुंशी-आयंगर फॉर्मूला” स्वीकार किया. इस फॉर्मूले के मुताबिक, भारत की आधिकारिक भाषा देवनागरी शैली की हिंदी होगी. हिंदी सिर्फ आधिकारिक भाषा होगी, राष्ट्रीय नहीं. अगले 15 सालों तक सभी आधिकारिक कार्यों के लिए अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल जारी रहेगा, ताकि गैर-हिंदी भाषी राज्यों को हिंदी सीखने-समझने का पूरा समय मिले. इसकी डेडलाइन 26 जनवरी 1965 रखी गई.

दक्षिण भारत में विरोध और प्रधानमंत्री का आश्वासन

1965 नजदीक आने पर राष्ट्रीय भाषा पर बहस हिंदी भाषा लादने के खिलाफ आंदोलन में बदल गया. तमिलनाडु में द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (DMK) लोकप्रिय हो रहा था. ऐसा लगने लगा कि भारत को एक बार फिर भाषा के पेचीदे सवाल का सामना करना पड़ेगा.

इससे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में Official Language Act 1963 में कहा गया था कि आधिकारिक संवाद में अंग्रेजी के अलावा हिंदी का भी प्रयोग किया जा सकता है. लेकिन “सकना” शब्द को परिभाषित नहीं किया गया था.

DMK नेता सीएन अन्नादुराई ने 26 जनवरी 1965 को “काला दिवस” के रूप में मनाया और पूरे तमिलनाडु में विरोध प्रदर्शन शुरु हो गए. इनमें हड़ताल और आत्मदाह तक शामिल थे. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री हिंदी अपनाना चाहते थे, लेकिन उन्हें बगावत की आशंका थी. केंद्रीय मंत्री सी. सुब्रमण्यम और ओवी अलागेसन ने हिंदी लागू करने के विरोध में इस्तीफा दे दिया. वो अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा के रूप में जारी रखना चाहते थे.

एक बार फिर बीच का रास्ता अपनाया गया. इतिहासकार रामचन्द्र गुहा India After Gandhi में लिखते हैं, कि लाल बहादुर शास्त्री ने निम्नलिखित मुद्दों पर देशवासियों को भरोसा दिया:

  1. सभी राज्य अंग्रेजी या अपने पसंद की भाषा जारी रख सकते हैं.
  2. अंतर-राज्यीय संवाद अंग्रेजी में या क्षेत्रीय भाषा के अंग्रेजी अनुवाद के रूप में किये जा सकते हैं.
  3. गैर-हिंदी भाषी राज्य केंद्र के साथ अंग्रेजी में संवाद कर सकते हैं.
  4. केंद्र अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल कर सकता है.
  5. सिविल सर्विसेज परीक्षा सिर्फ हिंदी के बजाय अंग्रेजी में भी जारी रहेगी.
कुल मिलाकर हिंदी के साथ अंग्रेजी भी आधिकारिक भाषा बनी रही. राज्य आधिकारिक भाषा के रूप में एकाधिक भाषा अपना सकते थे. दूसरी भाषा अमूमन उस राज्य में ज्यादातर बोली जाने वाली भाषा थी. इन भाषाओं को संविधान की अनुसूची में आधिकारिक भाषाओं का दर्जा मिला हुआ है.

अब तक की स्थिति है. कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है, आधिकारिक भाषाएं दो हैं – हिंदी और अंग्रेजी.

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कालान्तर में भाषाई विवाद कैसे पनपा?

1965 के बाद भाषा विवाद कुछ और आगे बढ़ा. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तीन भाषाओं का फॉर्मूला था. नीति के मुताबिक गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी का अध्ययन वैकल्पिक भाषा के रूप में अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा के साथ किया जा सकता था. 1968 के राष्ट्रीय शिक्षा नीति को 2019 में की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में नया रूप दिया गया. नई नीति में गैर-हिंदी भाषी राज्यों के स्कूलों में हिंदी पढ़ाना अनिवार्य है. इस प्रस्ताव का तमिलनाडु जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों में विरोध शुरु हो गया.

राष्ट्रीय भाषा और आधिकारिक भाषा के बहस में अदालतों के भी निर्देश हैं. बॉम्बे, कलकत्ता और मध्य प्रदेश के हाई कोर्ट ने कहा कि हिंदी भारत की राष्ट्रीय भाषा है. जबकि गुजरात, कर्नाटक और पटना हाई कोर्ट ने संविधान के अनुरूप निर्देश दिये, जिसके मुताबिक हिंदी एक आधिकारिक भाषा है.

लेकिन हिंदी को जबरन लागू करना उल्टा क्यों पड़ा?

अमित शाह के बयान के बाद #StopHindiImposition ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा है. ये विरोध न सिर्फ तमिलनाडु में, बल्कि पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा, कर्नाटक, महाराष्ट्र और केरल में भी हो रहा है. इतिहास के नजरिये से देखा जाए, तो जब भी “एक राष्ट्र, एक भाषा” का सवाल उठा है, भारी विरोध प्रदर्शन हुए हैं.

तमिलनाडु जैसे राज्यों में हिंदी लागू करने के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन हुए हैं, जहां तमिल भाषा एक राजनीतिक मुद्दा है. 1960 के दशक में जबरन हिंदी लागू करने के खिलाफ विरोध था, जिसके कारण DMK का जन्म हुआ. राज्यों में राजनीतिक दलों के लिए हिंदी को एक ऐसी भाषा के रूप में स्वीकार करना मुश्किल है, जो देश को “एकता के सूत्र में बांधती है.” यहां तक कि बीजेपी के शासन वाले कर्नाटक में भी अमित शाह के बयान के बाद मुख्य मंत्री बीएस येदयुरप्पा ने कहा, “हम कन्नड़ का महत्व कभी कम नहीं होने देंगे...”

नई शिक्षा नीति 2019 के मसौदे में गैर-हिंदी भाषी राज्यों में अनिवार्य हिंदी का इतना जोरदार विरोध हुआ, कि केंद्र को अपनी नीति में सुधार करना पड़ा. राज्यों में राष्ट्रीय भाषा लागू होने पर अपनी क्षेत्रीय भाषा की मजबूत पहचान खोने और एक भाषा लागू होने का डर समाया हुआ है. अमित शाह के बयान के साथ ये विवाद फिर शुरु हो गया है. सवाल है, कि क्या हिंदी को सभी लोगों की भाषा के रूप में मान्यता मिलेगी? या भारत की भाषाई विविधता के पैरोकार अपना विरोध जारी रखेंगे?

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Published: 17 Sep 2019,10:55 PM IST

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