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एक ओर कोरोना की फाइजर वैक्सीन के इस्तेमाल को मंजूरी ने लोगों को राहत की खबर दी है. वहीं, दूसरी तरफ नकली वैक्सीन को लेकर अलर्ट और भारत में ट्रायल के दौरान वॉलंटियर्स में एडवर्स इफेक्ट (प्रतिकूल घटनाओं) जैसे विवाद ने वैक्सीन को लेकर लोगों में डर और संकोच बढ़ा दिया है.
इस आर्टिकल में हम एंटी-वैक्सीनेशन यानी वैक्सीन के खिलाफ गलतफहमियों को जाननें और उन्हें दूर करने की कोशिश कर रहे हैं.
क्या वैक्सीन से हानिकारक दुष्प्रभाव हो सकते हैं, बीमारियां या मौतें भी हो सकती हैं? क्या लंबे समय के बाद प्रभाव दिख सकता है जिनके बारे में हम अभी तक नहीं जानते हैं?
कई एंटी-वैक्सीन पब्लिकेशन के दावों के बावजूद जान लीजिए कि वैक्सीन बहुत सुरक्षित होती हैं. ज्यादातर वैक्सीन के एडवर्स इवेंट (प्रतिकूल घटनाएं) मामूली और अस्थायी होती हैं, जैसे कि गले में खराश या हल्का बुखार, सिर दर्द और उस जगह पर दर्द जहां वैक्सीन शॉट दिए जाते हैं. वैक्सीनेशन के बाद पैरासिटामोल लेने से इन्हें अक्सर नियंत्रित किया जा सकता है.
स्वास्थ्य मंत्रालय हर मौत की पूरी तरह से जांच करती है कि क्या ये वास्तव में वैक्सीन लगाने से संबंधित है, और अगर हां, तो इसका क्या कारण है. जब, सावधानीपूर्वक जांच के बाद, वजह वैक्सीन से जुड़ी मिलती है, तो ये ज्यादातर प्रोग्रामेटिक एरर (Programmatic error) के रूप में सामने आता है, न कि वैक्सीन मैन्यूफैक्चर में हुई गलती के तौर पर.
महामारी खुद खत्म हो जाएगी. देशों को बीमारियों के खिलाफ वैक्सीनेशन की जरूरत नहीं है?
हम कई विकसित देशों के अनुभवों को देख सकते हैं कि जब उन्होंने अपने यहां वैक्सीनेशन को कम करने की इजाजत दी तो क्या हुआ. तीन देशों - यूके, स्वीडन और जापान ने डर की वजह से पर्टुसिस (काली खांसी-Whooping cough)
वैक्सीन में कटौती की थी. इसका तुरंत और नाटकीय प्रभाव दिखा था. यूके में, 1974 में पर्टुसिस(Pertussis) के वैक्सीनेशन में गिरावट के बाद 1978 तक ये 100000 से ज्यादा मामलों वाली महामारी बन गया और 36 लोगों की मौतें हुईं.
1990 के दशक में पूर्व सोवियत संघ में होने वाला डिप्थीरिया बड़ी महामारी था. वहां बच्चों के लिए प्राथमिक वैक्सीनेशन रेट कम होना और वयस्कों के लिए बूस्टर वैक्सीनेशन की कमी का नतीजा ये हुआ कि 1989 में जहां 839 केस थे वो 1994 में बढ़कर करीब 50000 हो गए और 1700 मौतें हुईं. इन अनुभवों से ये साफ होता है कि वैक्सीन के बिना बीमारियां गायब नहीं हो जातीं, इतना ही नहीं, इससे ये भी पता चलता है कि अगर हम वैक्सीनेशन रोकते हैं, तो बीमारियां वापस आ सकती हैं.
क्या वैक्सीन बीमारी का कारण बन सकते हैं? वैक्सीन में विषैले तत्व(Toxins) होते हैं?
सबसे पहले, कोई भी वैक्सीन 100% प्रभावी नहीं होता. बीमारी के मुकाबले वैक्सीन को सुरक्षित बनाने के लिए, बैक्टीरिया या वायरस को मार दिया जाता है या कमजोर (क्षीण) कर दिया जाता है. हरेक व्यक्ति से जुड़े कारण हो सकते हैं, मुमकिन है कि वैक्सीन लगवा चुका हर व्यक्ति इम्युनिटी विकसित न करे. बचपन में दिए जाने वाले अधिकतर वैक्सीन 85% से 95% प्राप्तकर्ताओं के लिए प्रभावी रहे हैं.
हालांकि, प्राकृतिक इम्युनिटी वैक्सीन से मिलने वाली इम्युनिटी के मुकाबले ज्यादा मजबूत हो सकते हैं. लेकिन वैक्सीन सुरक्षित चॉइस है क्योंकि इसे लेने के बाद गंभीर बीमारी का सामना नहीं करना पड़ता जबकि प्राकृतिक इम्युनिटी बीमारी से गुजरने के बाद ही मिल पाती है. इसलिए वैक्सीन रिस्क को काफी कम करता है.
बात करें विषैले तत्वों(Toxins) की तो ये सच है कि कुछ वैक्सीन में ऐसे पदार्थ होते हैं जिनकी शरीर में ज्यादा मात्रा में मौजूदगी हानिकारक हो सकती हैं - जैसे कि मर्करी, फॉर्मेल्डिहाइड और एल्यूमीनियम.
वैक्सीन में अगर इन पदार्थों का इस्तेमाल होता भी है तो उनकी मात्रा काफी कम होती है जिससे वे शरीर को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं.
बच्चों को COVID-19 का ज्यादा खतरा नहीं, इसलिए उनके वैक्सीनेशन की जरूरत नहीं है?
भले ही COVID-19 की बीमारी बच्चों में कम गंभीर पाई गई है, लेकिन ये सच है कि बच्चे संक्रमित हो सकते हैं और अपने आसपास के लोगों में संक्रमण फैला सकते हैं.
साइंस जर्नल में 85,000 COVID मामलों और उनके 6 लाख कॉन्टैक्ट्स को लेकर छपी स्टडी में पाया गया कि सभी उम्र के बच्चे वायरस से संक्रमित हो सकते हैं और इसे दूसरों में फैला सकते हैं. स्टडी को लीड करने वाले बर्कले के कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के एपिडेमियोलॉजिस्ट डॉ. जोसेफ लेवार्ड ने कहा, “ दावा है कि संक्रमण फैलाने में बच्चों की कोई भूमिका नहीं है. कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग डेटा में बच्चों की बड़ी संख्या नहीं मिली है, लेकिन जो इसमें शामिल हैं वो निश्चित रूप से इसे फैला रहे हैं.”
इसके अलावा, बच्चों में COVID के साथ कावासाकी जैसे दुर्लभ मामले और साथ ही मल्टीविस्ट इन्फ्लेमेटरी सिंड्रोम इन चिल्ड्रेन (MIS-C) रिपोर्ट किया गया है. इसलिए बच्चों में गंभीर संक्रमण का खतरा कम है, लेकिन ये हो सकता है, खासकर तब जब उन्हें कोई और मेडिकल समस्या हो.
वैक्सीन को लेकर फैलाए जा रही कई भ्रामक खबरें भी गलतफहमियों को हवा दे रही है. फिट हिंदी इस बारे में पहले से आगाह करता रहा है.
उदाहरण के तौर पर, नवंबर के आखिरी सप्ताह में ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका कोरोनावायरस वैक्सीन के बारे में बात कर रही एक महिला का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ. वीडियो में महिला ये कह रही थी कि इस वैक्सीन में गर्भ से गिराए गए नर भ्रूण के फेफड़े के टिशू का इस्तेमाल किया गया है.
हालांकि, हमने पाया कि वीडियो ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका वैक्सीन में इस्तेमाल की गई सेल लाइन की गलत पहचान बता रहा है. हमने ये भी पाया कि गर्भ से गिराए गए भ्रूण के टिशू के वैक्सीन में 'इस्तेमाल' की बात गलत है.
ऑनलाइन हेल्थ कंटेंट भरोसेमंद है या नहीं, इसका आकलन करने के कुछ तरीके यहां दिए गए हैं:
पूरी खबर यहां पढ़ें- वेबकूफ: भ्रूण की कोशिकाओं का इस्तेमाल कर वैक्सीन बनाने का दावा गलत
(WHO से इनपुट के साथ)
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