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क्या नौकरी नहीं है? हर बात पर गलती निकालने वाले जाएं तेल लेने

आजकल एक कैंपेन चल रहा है. ये बताया जा रहा है कि नौकरियां नहीं मिल रही हैं.

मयंक मिश्रा
भूतझोलकिया
Updated:
आजकल एक कैंपेन चल रहा है. यह बताया जा रहा है कि नौकरियां नहीं मिल रही हैं.
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आजकल एक कैंपेन चल रहा है. यह बताया जा रहा है कि नौकरियां नहीं मिल रही हैं.
(फोटो: The Quint)

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प्यारे भक्तों,

(मैं सिर्फ आपके लिए मेहनत करके आंकड़े लेकर आया हूं, उन लोगों के लिए नहीं, जो बात-बात पर किचकिच करते हैं और बुराई निकालते हैं. क्योंकि मेरी आदत है सीधी बात, नो बकवास).

आजकल एक कैंपेन चल रहा है. ये बताया जा रहा है कि नौकरियां नहीं मिल रही हैं. बड़े-बड़े नामों का हवाला देकर बड़ी-बड़ी हेडलाइंस परोसी जा रही हैं. कुछ नमूने आप भी देख लीजिए:

  1. सीएमआई का आंकड़ा कहता है कि 2017 में नौकरी के मौके में महज 0.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, जो काफी कम है
  2. वर्ल्ड बैंक की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अच्छी क्वालिटी वाले नौकरियों की जरूरत है, सिर्फ चाय-पकौड़ों की दुकान से काम नहीं चलने वाला है
  3. आईएलओ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि जहां पूरी दुनिया में नौकरी के मौके बढ़ रहे हैं, वहीं भारत में नौकरी के मौके कम हो रहे हैं. और कम से कम अगले दो साल तक यही सिलसिला चलने वाला है.
  4. एक बड़े बिजनेस अखबार के विश्लेषण से पता चला है कि 2006-11 के बीच जो नौकरी बढ़ने की रफ्तार थी, वो हाल के दिनों में आधी हो गई है.

इस तरह के हेडलाइंस आपको डराएंगे. लेकिन घबराने की जरूरत नहीं है. इसकी काट हम आपको बताएंगे. आपको सिर्फ दो रिपोर्ट के कुछ अंश पढ़ने होंगे. जी हां, कुछ चुनिंदा अंश ही. क्योंकि मैं जानता हूं कि आपको आंकड़ों से नफरत है, इसलिए पूरी रिपोर्ट पढ़कर कन्‍फ्यूज होने की जरूरत नहीं है. आप सबके लिए यहां छोटा सारांश दे रहे हैं.

  1. जिस पहली रिपोर्ट को पढ़ने का आग्रह कर रहा हूं, वो नीति आयोग की है. नीति आयोग ने एक टास्क फोर्स बनाया था. ये बताने के लिए कि नौकरी के आंकड़ों को कैसे दुरुस्त किया जाए. उस रिपोर्ट में कहा गया है कि मनरेगा, पीएम आवास योजना जैसी कई स्कीम हैं, जिनके जरिए नौकरी के मौके पैदा होते हैं. इन मौकों को अभी किसी भी आंकड़ों में शामिल नहीं किया जाता है, जो सही नहीं है.
  2. इसी के साथ कंसल्टेंसी फर्म E&Y की रिपोर्ट का वो हिस्सा पढ़िए, जिसमें कहा गया है कि मनरेगा के जरिए अकेले 2017 में 1.5 करोड़ लोगों की आमदनी बढ़ी. दोबारा बता दूं डेढ़ करोड़ की कमाई बढ़ गई.

अब जरा सोचिए, एक स्कीम का फायदा इतने लोगों को हो सकता है, तो सारी स्कीम को मिला दिया जाए, तो देश में कोई नहीं बचेगा, जिसको किसी न किसी स्कीम से फायदा न हुआ हो.

हमेशा नुक्ताचीनी और किचकिच करने वाले एंटी-नेशनल्स कहेंगे कि इस तरह की स्कीम में तो किसी तरह पेट भरने लायक आमदनी ही होती है. कोई सोशल सिक्योरिटी नहीं, कोई सेविंग नहीं. बस कुछ दिनों के लिए पेट भर जाता है और बाकी दिनों में वही पेट भरने की जद्दोजहद. इसका तो बड़ा ही सिंपल जवाब है- नौकरी के मौके की बात हुई थी, सोशल सिक्योरिटी की नहीं.

सलाह है, चेतावनी समझिए

यहां एक चेतावनी दे दूं कि नीति आयोग की रिपोर्ट की बारीकियों में जाने की जरूरत नहीं है. सरकारी स्कीमों से मिले फायदों का मतलब हमेशा ये नहीं है कि नौकरी के नए अवसर बढ़े हैं. ऐसा भी हो सकता है कि लोगों ने खेत में मजदूरी छोड़कर मनरेगा में काम करना शुरू कर दिया हो. इसीलिये इन बारीक बातों को पढ़ने की जरूरत नहीं है.

नौकरियां नहीं मिल रही हैं, इस तरह के अफवाहों का जवाब देने के और भी तर्क हैं-

  1. नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि अच्छी क्वालिटी वाली जॉब्स का डेटाबेस बनाने का अभी जो तरीका चल रहा है, वो सही नहीं है. इसीलिए ये सुझाव दिया गया है कि गिनती के अब नए तरीके होने चाहिए.
  2. फॉर्मल सेक्टर में नौकरी करने वाला उसे माना जा सकता है, जिसके पास ईपीएफ अकाउंट है, जो सरकारी नौकरी में है या सरकारी कंपनियों में काम करता है, जिसने पेंशन स्कीम खरीदी है या जिसका टीडीएस कटता है.

गौर से पढ़िए. पेंशन और टीडीएस के आंकड़ों के आधार पर रोजगार का पूरा डेटाबेस तैयार किया जा सकता है.

उंगली करने वाले फिर अजीबो-गरीब सवाल उठाएंगे— अगर किसी ने पेंशन स्कीम खरीदी और फिलहाल उसके पास नौकरी नहीं है तो? या किसी का चार फर्म में टीडीएस कटता है. इसको एक जॉब माना जाएगा या फिर 4. इन सवालों पर ध्यान नहीं देना है. पूछने वाले तो ये भी कहेंगे उसी नीति आयोग के रिपोर्ट में लिखा गया है कि इन डेटाबेस को आंख बंदकर मान लेना सही नहीं होगा. बहुत सारे डुप्लीकेशन होंगे.

इस तरह के कन्‍फ्यूजन हो, तो अर्न्स्ट और यंग की रिपोर्ट पढ़ लीजिए. इस रिपोर्ट की खासियत है इसमें लिखी गोलमोल बातें. इस रिपोर्ट में दुश्मनों को खारिज करने वाले कुछ शब्दों का प्रयोग किया है, जिसे कहीं भी फेंका जा सकता है. शब्द दोहराता हूं- डिकप्लिंग, माइक्रो एंटरप्रेन्योरशिप और एक्सपोनेंशियल टेक्नोलोजी. इन शब्दों को हिंदी में जानने की जरूरत भी नहीं है. इनकी खासियत इनके अटपटेपन में ही है.

इसके बावजूद भी अगर कुछ लोग ये कहते मिलें कि उसके और उसके सगे संबंधी  या पहचान वाले बेरोजगार हैं , तो मान लीजिए कि वो दूसरे कैंप का है और उसकी बातों को सुनने की भी जरूरत नहीं है.

आपकी सेवा में

न्यू डेटा क्रिएशन और डेसिमिनेशन सेंटर (जो भक्तों की सेवा में लगा है)

यह भी पढ़ें: रोजगार के मामले में खस्ताहाल सरकार, प्राइवेट में भी नौकरी की कमी

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Published: 11 May 2018,07:07 PM IST

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