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परीक्षा - जिसका उद्देश्य और बनावट इस बात पर आधारित होनी चाहिए कि स्टूडेंट्स उन संभावित संभावनाओं को तलाश सकें जिनमें वो हुनरमंद हैं. लेकिन ऐसा होने के बजाए एग्जाम्स अब किशोर जीवन के लिए भयानक सपना बन गए हैं. स्टूडेंट्स को अपने सहपाठियों को “मात” देने की बात सिखाई जाती है, जबकि होना तो यह चाहिए कि परीक्षा का उद्देश्य किसी की प्रतिभा को पहचानकर उसे तराशने पर फोकस हो, न कि प्रतिस्पर्धा के लिए उकसाने वाला.
उनींदीं-जागती रातें, घंटों तक लगातार पढ़ाई, और हां सबसे ज्यादा जरूरी ‘परफेक्ट परसेंटेज’ किसी भी बोर्ड परीक्षा की बतौर विवरण पहचान बन चुके हैं. हमें इस बात को समझना होगा कि यह अंत नहीं बल्कि शुरुआत है. बोर्ड एग्जाम्स को लेकर सोसाइटी की कुछ बातें मुझे असहज करती है. खासकर लोगों द्वारा बोली गईं ये बातें कि “85 परसेंट तो एवरेज है” या “95 परसेंट ज्यादा अच्छा स्कोर नहीं है.” सभी आंटियां कृपया गहरी सांस लें और रिलेक्स हो जाएं!
स्टूडेंट्स के बीच बोर्ड परीक्षा का खौफ पैदा करने में सोसाइटी प्रेशर (सामाजिक दबाव) का सबसे अहम रोल है. बच्चों की दूसरे स्टूडेंट्स से नियमित तौर पर तुलना की जाती है. मम्मी-पापा और रिश्तेदार बच्चों पर दवाब बनाते हैं कि, बेहतर से सर्वोत्कृष्ट करो, और हां बेशक “शर्मा जी का बेटा” या फिर ”मासी का लड़का” से बेहतर करो.”
माता-पिता इस बात पर ज्यादा फोकस्ड हैं कि बच्चों को विषय के चयन में प्रयोगवादी न होने दिया जाए, वे बच्चों को उनकी वास्तविक रुचि और प्रतिभा के बजाय विज्ञान और गणित विषय लेने के लिए जोर दे रहे हैं.
मुझे भरोसा है कि पैरेंट्स इसको महसूस करेंगे और बोर्ड परीक्षा में मार्क्स को लेकर उनका नजरिया बदलेगा. इससे स्टूडेंट्स को उनका सपोर्ट महसूस होगा और वे बगैर तनाव के बेफिक्र होकर पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ प्रदर्शन कर पाएंगे. वे बच्चों की पसंद का विषय चुनने में मददगार बनें और उनको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें.
साथ ही लड़का हो या लड़की उनको आभास कराएं कि स्टैंडर्ड स्कोर या फिर एक्सीलेंट होने की बजाय कुछ खोने की चिंता छोड़कर परीक्षा पर ध्यान केंद्रित करके अपना सौ फीसदी दिया जाए. दुनिया में महान लोगों के कई ऐसे भी उदाहरण हैं जो पढ़ाई में तो प्रतिभाशाली नहीं थे लेकिन अपनी रुचि के क्षेत्र में वो सर्वोत्कृष्ट माने जाते हैं.
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Published: 20 Feb 2019,05:18 PM IST