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असम: महामारी और बाढ़ से त्रस्त गन्ना किसान, सरकार नहीं कर रही कोई समाधान

असम के गन्ना किसानों की खराब स्थिति पर सरकारों की चुप्पी

क्विंट हिंदी
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Assam के होजई जिले में जंग लगी गन्ना क्रशर मशीन, जनरेटर, फिल्टर और गुड़ के उत्पादन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले बड़े कड़ाहे पिछले कई महीनों से बेकार पड़े हैं. कोरोना महामारी के अलावा स्थानीय गन्ना किसानों की गन्ने की फसलों की स्थिति व अन्य गंभीर चिंताएं किसानों की एक निराशाजनक तस्वीर पेश करती हैं.

द क्विंट की रिपोर्ट के मुताबिक गन्ना की खेती करने वाले किसान बहरउद्दीन रोज सुबह 5 बजे उठ जाते हैं और नाश्ता करने के बाद वो अपने गन्ने के खेत में पहुंच जाते हैं. उनका हर दिन एक कठिन तपस्या के जैसे होता है लेकिन स्थिति इस बात से गंभीर हो जाती है कि गन्ने की खेती में कभी-कभार कोई प्रॉफिट मिलता है. 55 वर्षीय बदरुद्दीन जिस तरह से जीवित रहने के लिए कड़ी मशक्कत करते हैं उसको देखा जा सकता है.

एक 45 वर्षीय गन्ना किसान बिरेन्द्र बिस्वास कहते हैं कोरोना महामारी से आयी आर्थिक तंगी, बाढ़ और हाथियों की वजह से गन्ने की खेती पर भारी मार पड़ी है. गन्ने के बीज तैयार करने से लेकर 4-5 बार जमीन पर जुताई करने व अंत में फसल काटने तक की प्रक्रिया गहन है. उनका कहना है कि इतनी मेहनत के बाद जब हाथी फसल खा जाते हैं तो हमारी सारी मेहनत बर्बाद हो जाती है.

हम एक बीघे में गन्ने की खेती के लिए 600-700 रूपए लगाते हैं. उसके बाद अगर बाढ़ आ जाती है या हाथियों का समूह खेत में चला जाता है तो पूरी फसल बर्बाद हो जाती है. हमको सरकार के द्वारा भी कोई सहायता नहीं प्रदान की जाती है. एक तरफ किसान मर रहे हैं और सरकार भारत को डिजिटल बनाना चाहती है.
बहर उद्दीन, गन्ना किसान

बाजारों में गुड़ बेचने के लिए असमर्थ

यह स्पष्ट हो गया है कि ये गन्ना किसान COVID-19 प्रतिबंधों के कारण खुले बाजार में गुड़ बेचने के लिए असमर्थ हैं. आखिरकार उन्हें घर से ही कम कीमत पर अपनी उपज बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. बहर बताते हैं कि कैसे महामारी ने गन्ना किसानों के जीवन में एक आपदा ला दी.

बिस्वास बताते हैं कि पिछले साल कोरोना के कारण हुए 9 महीने लॉकलाउन के दौरान किसानों को गुड़ बाजार के बजाय घर से ही बेचना पड़ा. गुड़ बिकने का मूल्य जो बाजार में 1000 रुपए था, घर पर बेचने के कारण 500-600 रुपयों पर आ गया. किसानों ने किसी तरह फिर से गन्ने की खेती शुरू की. उसके बाद बाढ़, फिर से लॉकडाउन और हाथियों की वजह से फिर से समस्या आ गई.
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45 वर्षीय गन्ना किसान जुबेर अहमद इस बात से सहमत हैं कि महामारी के बीच गन्ने की खेती से लाभ कमाना अतीत की बात है. जुबेर बाधाओं के बीच अपनी खेती करते हुए अपने परिवार को खिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

गन्ने की खेती करने वाले भूमिहीन मजदूर

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 14.43 करोड़ भूमिहीन खेतिहर मजदूर हैं. इन भूमिहीन खेतिहर मजदूरों का मुद्दा तब जोरों से उठाया गया था जब दिल्ली के आस-पास किसान आंदोलन अपने चरम पर था. अब महामारी के बीच गन्ने की खेती में लगे भूमिहीन मजदूर अत्यधिक गरीबी का सामना कर रहे हैं. जबकि असम के होजई जिले में अधिकांश भूमिहीन मजदूर दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते रहते हैं और उनमें से कुछ Crop-Sharing (अधिया खेती) में भी हैं.

गन्ने की खेती में लगे 43 वर्षीय भूमिहीन मजदूर इन्द्रजीत दास कहते हैं कि Crop-Sharing से भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें जमीन के मालिकों के साथ उपज बांटनी होती है. गन्ने की खेती में उनके निवेश की तुलना में रिटर्न उतना लाभदायक नहीं है.

इन्द्रजीत ने बताया कि सरकार के द्वारा उनको कोई मदद नहीं मिली है. वह अपने परिवार में कमाने वाले एक अकेले इंसान हैं. परिवार की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है.

यही हाल बीरेन्द्र बिस्वास का भी है. उनको अपने छः सदस्यों के परिवार को भरण-पोषण करने के संघर्ष करना पड़ता है. बीरेन्द्र के पास खुद का खेत नहीं है. वो जीवनयापन के लिए अधिया खेती और दिहाड़ी पर निर्भर हैं.

खेत घास से भरे होते हैं. घास को साफ करवाने के लिए 1400-1500 रुपए खर्च करना पड़ता है. उसके बाद खेती करने से हम 10-15 गुड़ का बॉक्स हासिल कर पाते हैं, जिसमें से आधा खेत के मालिक का होता है. अन्य खर्चों और लॉकडॉउन की वजह से हम लाभ नहीं कमा पाते.
बिरेन्द्र बिस्वास, गन्ना किसान

महामारी के बीच किसान जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. उनका कोई मुद्दा हल नहीं किया जा रहा है जिससे वे राज्य व केन्द्र दोनों सरकारों पर सवाल उठाते हैं.

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